Tuesday, February 23, 2010

सलीब पर साहस

वे बस अपना फर्ज निभा रहे थे. मगर प्रशंसा के बजाय उन्हें मिली प्रताड़ना, परेशानियां और कभी-कभी मौत भी. तुषा मित्तल बता रही हैं कि भारत में व्यवस्था को कोसने के बजाय उसे बदलने का काम कितना जोखिमभरा है.

संजीव चतुर्वेदी की कहानी सही और गलत के बीच होने वाले सनातन संघर्ष की कहानी है. संयोग देखिए कि इसकी शुरूआत उसी कुरूक्षेत्र से होती है जहां महाभारत का युद्ध लड़ा गया था. लेकिन चतुर्वेदी का महाभारत थोड़ा अलग है. महाभारत में पांडव पांच थे. यहां चतुर्वेदी अकेले हैं. महाभारत में लड़ाई पांडवों ने नहीं छेड़ी थी. यहां छेड़ी है. यह लड़ाई अप्रैल, 2007 की एक दोपहर को शुरू हुई थी. तब चतुर्वेदी को कुरूक्षेत्र का डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर (डीएफओ) बने छह महीने ही हुए थे. नेशनल फॉरेस्ट एकेडमी, देहरादून में प्रशिक्षण के बाद उनकी यह पहली पोस्टिंग थी. हरियाणा के सबसे बड़े संरक्षित क्षेत्रों में से एक सरस्वती वन्यजीव अभ्यारण्य की देखभाल का काम उनके जिम्मे था. काले हिरण जैसी कई दुर्लभ प्रजातियों का बसेरा यह अभ्यारण्य 34 साल के चतुर्वेदी के लिए किसी मंदिर जैसा था और भारतीय वन सेवा का अधिकारी होने के नाते वे खुद को इसका संरक्षक मानते थे. उस दोपहर जब वे इसका दौरा कर रहे थे तो एक जगह पर अचानक कुछ देखकर वे जड़ हो गए. सामने का नजारा चौंकाने वाला था. बबूल, नीम और यूकेलिप्टिस के सैकडों पेड़ जमीन पर गिरे हुए थे और कई मशीनें मलबा साफ करने के काम में जुटी थीं. वन्यजीव सुरक्षा कानून का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हुए जरूरी मंजूरी लिए बिना अभ्यारण्य के बीच से एक विशाल नहर बनाने का काम चल रहा था.

चतुर्वेदी की लड़ाई को सिर्फ एक अभ्यारण्य बचाने का जुनून या भ्रष्टाचार उजागर करने की कोशिश के तौर पर देखना भूल होगी. दरअसल यह यह उस चीज को बचाने की लड़ाई है जिसे वे बहुत पवित्र समझते हैं. यह चीज है अपने बुनियादी कर्तव्य को निभाने का अधिकार

चतुर्वेदी ने तुरंत निर्माण कार्य रोकने के आदेश दिए. इसके बाद उन्होंने पेड़ों के अवैध कटान और पर्यावास के विनाश पर हरियाणा सिंचाई विभाग के ठेकेदारों और अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई. साथ ही उन्होंने राज्य के मुख्य वन्यजीव संरक्षक (चीफ वाइल्डलाइफ वार्डन) आरडी जकाती को भी इस बारे में सचेत कर दिया.

मगर अतिक्रमण के खिलाफ कार्रवाई करने की बजाय जकाती ने चतुर्वेदी के आदेश को ही निरस्त कर दिया. इसके बाद फौरन ही चतुर्वेदी का तबादला हो गया. चार साल बाद जकाती नेशनल फॉरेस्ट एकेडमी के निदेशक हैं जबकि चतुर्वेदी आज भी तबादलों, आरोपपत्रों और फर्जी एफआईआरों से जूझ रहे हैं. सही रास्ते पर चलने की उन्हें यह कीमत चुकानी पड़ रही है.

चतुर्वेदी की लड़ाई को सिर्फ एक अभ्यारण्य बचाने का जुनून या भ्रष्टाचार उजागर करने की कोशिश के तौर पर देखना भूल होगी. दरअसल यह यह उस चीज को बचाने की लड़ाई है जिसे वे बहुत पवित्र समझते हैं. यह चीज है अपने बुनियादी कर्तव्य को निभाने का अधिकार. चतुर्वेदी ने कभी अपने भाई राजीव (वे भी राजस्थान में तैनात आईएफएस अधिकारी हैं) से कहा था, ‘हम जनता के पैसे और प्राकृतिक संसाधनों के ट्रस्टी हैं.’ इसी सोच की वजह से चार साल के दौरान उनका 11 बार तबादला हो चुका है. किसी एक जगह पर उनका सबसे लंबा कार्यकाल साढ़े सात महीने का था. इन चार साल के दरम्यान वे जहां भी गए नई लड़ाई छेड़ते रहे.

कुरूक्षेत्र में अपनी पहली पोस्टिंग के साथ ही चतुर्वेदी की ख्याति एक ऐसे अफसर के रूप में फैल गई थी जिसे कोई भी लालच भ्रष्ट नहीं कर सकता. शायद इसीलिए यह मालूम होते हुए भी 110किमी लंबी हिसार-कुरूक्षेत्र नहर राज्य सरकार की प्रिय परियोजना है, उन्होंने निर्माण कार्य रोकने के आदेश दे दिए. 23 मई, 2007 को चतुर्वेदी ने एक रिपोर्ट सौंपी, जिसमें अभ्यारण्य को नुकसान पहुंचाए बिना नहर के लिए वैकल्पिक रास्ते सुझाए गए थे. मगर अगले ही दिन जकाती ने इसे खारिज कर दिया.

इसके बाद हरियाणा के मुख्य सचिव (वन) एचसी दिसोदिया ने चतुर्वेदी को एक पत्र लिखा जिसमें उनके इस कदम को ‘दुर्व्यवहार’ करार दिया गया था. इस पत्र के शब्द थे, ‘आपको चेतावनी दी जाती है कि आप भविष्य में इस तरह की गतिविधियों में शामिल न हों.’ चतुर्वेदी के तबादले के बाद वन विभाग ने अभ्यारण्य के भीतर पड़ने वाले नहर के हिस्से को वन्य जीवों के लिए जल स्रोत घोषित कर दिया जबकि इसमें पानी ही नहीं था. इसके बाद हरियाणा सरकार ने इसे आरक्षित वन भूमि के दायरे से बाहर कर दिया.

अगस्त 2007 में भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट नाम के एक गैरसरकारी संगठन ने इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की केंद्रीय अधिकार प्राप्त (सीईसी) में एक याचिका दायर की. इस पर अपने बचाव में हरियाणा सरकार का कहना था कि ‘जो उल्लंघन हुए हैं वे तकनीकी प्रकृति के थे और जानबूझकर नहीं किए गए थे. सरकार ने हमेशा वन और वन्यजीवों के बेहतर प्रबंधन के लिए काम किया है.’ मगर अपने फैसले में सीईसी ने कहा कि ‘वन संरक्षण कानून के तहत जरूरी मंजूरी लिए बिना निर्माण कार्य शुरू कर दिए गए जो वन्यजीव सुरक्षा कानून का उल्लंघन है.’ मगर चूंकि अब भूमि को आरक्षित वन भूमि की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था इसलिए सीईसी की नजर में दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई का कोई अधिकार नहीं बनता था. हरियाणा सरकार पर एक करोड़ रुपए का जुर्माना लगाकर मामला खत्म कर दिया गया.

छरहरे बदन और खुशनुमा मिजाज के चतुर्वेदी खुद के सरकारी अधिकारी होने का हवाला देकर पहले-पहल तहलका से बात करने से मना कर देते हैं. मगर हिसार में उनसे बार-बार मिलना ज्यादा मुश्किल नहीं है जहां वे फिलहाल डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर के रूप में तैनात हैं. जब हम उनसे कहते हैं कि वे एक योद्धा हैं तो वे हंसते हैं और कहते हैं कि उन्होंने खुद को कभी इस रूप में नहीं देखा. वे फर्ज के अपनी जवाबदेही में यकीन रखने वाले इंसान हैं और उन्हें लगता है कि अगर वे अपना दायित्व पूरा नहीं करते तो वे अपनी ही नजर में गिर जाएंगे. चतुर्वेदी के परिवार के लोग बताते हैं कि उनसे सुरक्षा लेने को कहा गया पर उन्होंने यह कहते हुए इससे मना कर दिया क्योंकि इससे यह संदेश जाता कि वे डरे हुए हैं. परिवारवालों के मुताबिक चतुर्वेदी ने उनसे कहा, ‘धर्म का अर्थ है बिना शिकायत अपना कर्तव्य पूरा करना, यह चिंता किए बिना कि इसके परिणाम क्या होंगे. मैं अपने काम का आनंद ले रहा हूं.’

कुरूक्षेत्र से चतुर्वेदी का तबादला एक दूरदराज के कस्बे फतेहाबाद कर दिया गया. यहां उन्हें पता चला कि उनका विभाग एक हर्बल पार्क के लिए दुर्लभ पेड़ों और जड़ी-बूटियों की खरीद पर करोड़ों रुपए खर्च कर रहा है. उन्हें यह भी जानकारी मिली कि यह पार्क सरकारी नहीं बल्कि एक निजी जमीन पर बनाया जा रहा है जो राज्य की वनमंत्री किरण चौधरी के करीबी बताए जाने वाले ताकतवर नेता प्रहलाद सिंह गिलाखेड़ा के परिवार की है. चतुर्वेदी ने तुरंत काम रोकने के आदेश दिए और इसकी जांच शुरू की कि इस काम के लिए पैसे की मंजूरी कैसे दी गई. मगर उनकी पीठ थपथपाने की बजाय 12 जुलाई, 2007 को हरियाणा के शीर्ष वन अधिकारी प्रधान मुख्य वन संरक्षक जेके रावत ने लिखा, ‘आदरणीय वन मंत्री इससे काफी नाराज थीं और उन्होंने मुझसे फौरन काम दोबारा शुरू करवाने के लिए कहा है.’ चतुर्वेदी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए उन्हें तीन अगस्त 2007 को निलंबित कर दिया गया. अचानक उनके लिए यह अब निजी गरिमा का मामला बन गया. उन्होंने फैसला किया कि खुद को निर्दोष साबित करने तक वे चैन से नहीं बैठेंगे. उनके भाई राजीव याद करते हैं, ‘उन्होंने कहा कि ये सिर्फ छोटे-मोटे झटके हैं, वे मुझे नहीं हरा सकते.’

चतुर्वेदी जीत भी गए. सेवा नियमों के मुताबिक निलंबन के 15 दिन के भीतर राज्य सरकार को इसके बारे में एक रिपोर्ट बनाकर केंद्र को देनी चाहिए थी. मगर ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं भेजी गई. निलंबन आदेश में इस कार्रवाई की कोई वजह नहीं बताई गई थी. इसमें सिर्फ यही लिखा गया था, ‘अनदेखी और बढ़ावे की गतिविधियों के चलते आपको निलंबित किया जाता है.’ चतुर्वेदी ने सूचना का अधिकार कानून के तहत वन विभाग में आवेदन कर अपनी निलंबन फाइल पर लिखी गई टिप्पणी की जानकारी मांगी. विभाग ने यह कहते हुए इससे मना कर दिया कि ऐसा करने से जांच प्रक्रिया में बाधा आएगी. चतुर्वेदी ने हार नहीं मानी. कई और आवेदनों के बाद राज्य सूचना आयोग ने मामले में दखल देते हुए विभाग से उन्हें यह टिप्पणियां देने को कहा.

ये टिप्पणियां चौंकाने वाली थीं और इससे वन मंत्री चौधरी पर भी सवाल खड़े होते थे. पहले वन विभाग के शीर्ष अधिकारी रावत ने लिखा था, ‘अधिकारी को किसी भी क्षेत्रीय शाखा में रखना विभाग के हितों के लिए ठीक नहीं होगा जहां कई योजनाएं और परियोजनाएं चल रही हैं और लोगों से लेन-देन का काफी व्यवहार हो रहा है.’ इसमें आगे जोड़ते हुए चौधरी के शब्द थे, ‘वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ बार-बार की अनुशासनहीनता को देखते हुए अधिकारी (चतुर्वेदी)को निलंबित किया जा सकता है.’ इसके बाद मुख्यमंत्री कार्यालय ने पहले तो यह लिखा कि चतुर्वेदी को अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाए मगर इसके बाद तुरंत ही यू टर्न लेते हुए फाइल पर लिखा गया, ‘पुनर्विचार के बाद मुख्यमंत्री ने प्रस्ताव ‘बी’ को मंजूरी दे दी है.’

चतुर्वेदी ने अपने निलंबन के खिलाफ अपील की. जब केंद्र ने राज्य सरकार से इस बाबत पूछा तो कोई जवाब नहीं आया. इसलिए जनवरी, 2008 में राष्ट्रपति के आदेश पर इस निलंबन को रद्द कर दिया गया. निलंबन के दौरान ही उनके खिलाफ एक फर्जी एफआईआर दर्ज कर दी गई थी. इसमें उन पर धमकी देने और कचनार के एक पौधे की चोरी के आरोप थे. यह चोरी मार्च, 2007 में फतेहाबाद में हुई दिखाई गई थी, जबकि उस समय उनकी नियुक्ति वहां थी ही नहीं. बाद में अदालत में पुलिस ने यह मानते हुए अपनी एफआईआर वापस ले ली कि यह भ्रामक तथ्यों पर आधारित थी.

इसके बाद एकता परिषद नाम के एक गैरसरकारी संगठन ने हर्बल पार्क के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की. इस पर अप्रैल, 2008 में हरियाणा सरकार को नोटिस जारी किया गया. निजी जमीन पर सरकार द्वारा पार्क बनाने की प्रक्रिया गैरकानूनी थी इसलिए इस पर पर्दा डालने के लिए इस जमीन को फरवरी, 2009 में संरक्षित वन घोषित कर इसका प्रबंधन वनविभाग के हवाले कर दिया गया. न कोई अपराधी साबित हुआ न किसी को सजा मिली. सिवाय चतुर्वेदी के जिन्होंने इस गड़बड़झाले को उजागर किया था. जनवरी, 2008 में बहाली के बाद उन्हें छह महीने तक बिना किसी नियुक्ति के रखा गया. और जब उन्हें नियुक्ति मिली तो यह उनके रैंक से नीचे की थी. वे इसके खिलाफ सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेशन ट्रिब्यूनल में गए और जीत गए.

सरकार हर तरफ से मुंह की खा चुकी थी. हारकर उसे चतुर्वेदी को झज्झर का डीएफओ बनाना पड़ा. यहां भी उन्होंने पांच करोड़ रुपए का घोटाला उजागर कर डाला जो फर्जी पौधारोपण पर खर्च किए गए थे. चतुर्वेदी ने अपने विभाग के सैकड़ों लोगों को खुद पेड़ गिनने के लिए कहा. इसके बाद उन्होंने विभाग के नौ अधिकारियों को निलंबित कर दिया और 40 लोगों को उनकी बर्खास्तगी के आदेश थमा दिए. फिर जैसी कि संभावना थी, उनका तबादला हो गया. चतुर्वेदी के घर की दीवारें और आलमारियां खाली हैं. ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं. कुरुक्षेत्र का यह योद्धा जानता है कि अगला तबादला भी जल्द ही हो सकता है.

भारत में संजीव चतुर्वेदी अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो साहस की सलीब टांगे हुए व्यवस्था बदलने की राह पर हैं. यहां हम ऐसे ही कुछ और लोगों के बारे में बता रहे हैं जिन्हें इस राह पर चलते हुए अनगिनत मुसीबतें उठानी पड़ीं, पड़ रहीं हैं लेकिन उससे डिगना इनको मंजूर नहीं है -

सिपाही, जिसे मिली सचेत करने की सजा : सतीश शेट्टी, पुणे

सतीश शेट्टी साधारण व्यक्ति नहीं थे. होते तो उनके दुश्मनों की संख्या इतनी ज्यादा न होती. जाली राशन कार्ड बेचने वालों से लेकर अवैध तरीके से संपत्तियों पर कब्जा जमाकर बैठने और करोड़ों रुपए का घोटाला करने वालों तक उनके दुश्मनों की सूची बहुत लंबी थी. शायद यही वजह थी कि पुणो से सटे तालेगांव में पले-बढ़े शेट्टी को 39 साल की उम्र में ही अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ा. 13 जनवरी, 2010 को दिनदहाड़े उन पर हमला हुआ और वह भी पुलिस स्टेशन के पास. अस्पताल पहुंचाए जाने के थोड़ी देर बाद उनकी मौत हो गई. शेट्टी का कसूर यही था कि वे गरीब किसानों को उनके साथ रहे धोखे से बचाना चाहते थे.

कई साल तक सबूत इकट्ठा करने के बाद शेट्टी ने इंस्पेक्टर जनरल ऑफ रजिस्ट्रीज (आईजीआर) तक शिकायत भेजी कि बडगाम-मवाल इलाके में जमीन की सैकड़ों अवध रजिस्ट्रियां हो रही हैं. नवंबर, 2009 में आईजीआर ने 2000 रजिस्टर्ड डॉक्यूमेंटों का ऑडिट शुरू किया जिसमें कम से कम 930 फर्जी पाए गए.चार भाई-बहनों में सबसे बड़े शेट्टी को आम तरीके से जीना कभी नहीं भाया. उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी. न नौकरी की न शादी. पुणो की एक एडवरटाइजिंग फर्म में काम कर रहे उनके भाई संदीप कहते हैं, ‘समाज सेवा के पीछे वे पागल थे.’ बीस-इक्कीस साल की उम्र में ही वे समाज सेवा से जुड़ गए थे. रेलवे टिकट बुक करने से लेकर कर्ज लेने की प्रक्रियाओं में वे गांववालों की मदद करते. संदीप बताते हैं, ‘उन्हें हर जगह भ्रष्टाचार नजर आने लगा.’ जल्दी ही वे सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे द्वारा चलाए जा रहे भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से जुड़ गए. बाद में उन्होंने भ्रष्टाचार निर्मूलन समिति नाम का एक संगठन बनाया.

शेट्टी पहली बार तब सुर्खियों में आए जब 1996 में उन्होंने सार्वजनिक वितरण व्यवस्था में डेढ़ करोड़ के फर्जीवाड़े का पर्दाफाश किया. दरअसल इसमें एक राशन विक्रेता ने 200 जाली राशन कार्ड बना रखे थे. मामला सामने आने के बाद एक अदालत ने राशन विक्रेता का लाइसेंस रद्द करते हुए उस पर भारी जुर्माना लगाया. 2004 में शेट्टी के दुश्मनों की सूची में तब और इजाफा हुआ जब उन्होंने रेलवे की जमीन पर कब्जा किए बैठे कुछ ताकतवर लोगों का भांडाफोड़ किया. इनमें एक मेयर और कुछ नेता भी थे. मेयर को कुर्सी गंवानी पड़ी. रेलवे की जमीन पर अवैध रूप से बने सभी लोगों के बंगले गिरा दिए गए. ऐसे ही एक बंगले का मालिक और स्थानीय वकील विजय दाभाड़े अब शेट्टी की हत्या के मामले में एक अहम आरोपित है.

2005 में शेट्टी को सूचना का अधिकार (आरटीआई) के रूप में अपना सबसे मजबूत हथियार मिला. उस समय मुंबई-पुणो एक्सप्रेसवे की वजह से रियल एस्टेट की कीमतों में बहुत उछाल आया हुआ था. एक तरफ जमीन की कीमतें बढ़ रही थीं और दूसरी तरफ जमीनें कब्जाई जा रहीं थीं. जमीन हड़पने की कई कहानियों के साथ तमाम छोटे-बड़े किसान शेट्टी के पास आने लगे. शेट्टी को पता चला कि नियमों में कुछ ऐसे झोल हैं जिनका फायदा उठाकर किसी की मर्जी के खिलाफ भी उसकी जमीन की रजिस्ट्री और खरीद-फरोख्त हो रही है. संदीप बताते हैं, ‘वे जमीन के एक ऐसे ही छोटे से टुकड़े की पड़ताल कर रहे थे कि उन्हें 3000 करोड़ रुपए के एक घोटाले की गंध मिली. शायद यही वजह है कि वे आज जिंदा नहीं हैं.’

कई साल तक सबूत इकट्ठा करने के बाद शेट्टी ने इंस्पेक्टर जनरल ऑफ रजिस्ट्रीज (आईजीआर) तक शिकायत भेजी कि बडगाम-मवाल इलाके में जमीन की सैकड़ों अवध रजिस्ट्रियां हो रही हैं. नवंबर, 2009 में आईजीआर ने 2000 रजिस्टर्ड डॉक्यूमेंटों का ऑडिट शुरू किया जिसमें कम से कम 930 फर्जी पाए गए. रजिस्ट्रार को निलंबित कर दिया गया. करोड़ों रुपए के कारोबार वाली कंपनी आइडियल रोड बिल्डर्स (आईआरबी) की तरफ उंगलियां उठीं. संदीप बताते हैं, ‘आईआरबी द्वारा अधिग्रहीत की गई 1800 एकड़ जमीन सवालों के घेरे में आ गई. कंपनी को काफी आर्थिक नुकसान तो हुआ ही, उसे काफी बदनामी भी झेलनी पड़ी.’ इसके बाद शेट्टी को आशंका हो गई थी कि उनकी जिंदगी को खतरा हो सकता है. 24 नवंबर, 2009 को उन्होंने पुलिस सुरक्षा मांगी. मगर उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया गया. अब पुलिस का कहना है कि उनके आवेदन पर कार्रवाई हो रही थी.

शेट्टी की मौत पुलिस अक्षमता से ज्यादा उस फर्ज की प्रति उदासीनता की उस व्यापक समस्या को दर्शाती है जिसकी जड़ें गहरे धंसी हुई हैं. शेट्टी व्यवस्था के झोल जनता के सामने लाना चाहते थे. मगर वे झोल ही शायद उनकी जिंदगी लील गए. उनकी हत्या की जांच अब लोनावाला के एक दूसरे पुलिस अधिकारी को सौंप दी गई है. पांच लोग गिरफ्तार हुए हैं. प्राथमिक आरोपित दाभाड़े को संतोष शिंदे नाम के एक सब्जी विक्रेता के बयान के आधार पर गिरफ्तार किया गया था. पुलिस के मुताबिक इस सब्जी विक्रेता ने खुद ही पुलिस से संपर्क साधकर माना था कि दाभाड़े ने उसे शेट्टी की हत्या की सुपारी दी थी जो उसने ठुकरा दी थी. शेट्टी के परिवार ने जो एफआईआर दर्ज करवाई है उसमें मुख्य रूप से आईआरबी पर शक जाहिर किया गया है. कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों से इस मामले में पूछताछ की गई है मगर गिरफ्तारी कोई नहीं हुई है.

फिलहाल तो शेट्टी के परिवार के लिए उम्मीद की किरण बांबे हाईकोर्ट ही है जिसने खुद ही इस मामले का संज्ञान लेते हुए शेट्टी द्वारा इकट्ठा किए गए आरटीआई दस्तावेज मांगे हैं। संदीप कहते हैं, ‘कम से कम कोई तो अब इन दस्तावेजों को देखेगा. मेरे भाई को मारने से इंसाफ की प्रक्रिया नहीं रुकने वाली.’

‘हम सतर्क रहने की शपथ लेते हैं’ : एमएन विजयकुमार, बेंगलुरु

2006 की बात है. तब विजयकुमार डिपार्टमेंट ऑफ पब्लिक एंटरप्राइजेज के सचिव थे. एक दिन आधीरात के करीब उनके घर की घंटी बजी. दरवाजे पर कुछ लोग थे जिन्होंने कहा कि विजयकुमार के बड़े बेटे का एक्सीडेंट हो गया है और वे उनके साथ चलें. मगर विजयकुमार जानते थे कि उनका बेटा उनसे थोड़ी ही दूर पर आराम से सो रहा है. यह उनकी जुबान खामोश करने की एक और कोशिश थी. तकरीबन एक साल बाद दिसंबर, 2007 में जब वे बेलगाम में नियुक्त थे तो एक दिन एक हुड़दंगी उनके ऑफिस में घुस गया. उसने धमकी देने वाले अंदाज में कहा, ‘मैं दिनदहाड़े दो लोगों का खून कर चुका हूं और अभी-अभी जेल से बाहर आया हूं. मैं आपको एक बार देखना चाहता था.’ यह तब हुआ था जब आधिकारिक रूप से विजयकुमार को पुलिस सुरक्षा मिली हुई थी.

चालीस बार जान से मारने की धमकियां, तीन हमले, दस महीनों में सात ट्रांसफर...फिर भी एमएन विजयकुमार अपना काम उसी जुनून के साथ कर रहे हैं जो उनमें तब था जब 1985 में उन्होंने एक आईएएस अधिकारी के रूप में कर्नाटक से अपने करिअर की शुरुआत की थी

कर्नाटक कैडर के आईएएस अधिकारी के रूप में अपने 25 साल के कार्यकाल में विजयकुमार ने हमेशा भ्रष्टाचार का भांडाफोड़ करने की कोशिश की है. वे कहते हैं, ‘अगर जनहित के खिलाफ कोई चीज हो रही है और आप अकेले हैं जो उनकी तरफ इशारा कर सकते हैं तो आपको बोलना होगा. जनसेवकों के रूप में हम सतर्क रहने की शपथ लेते हैं.’

अपनी जान पर खतरे के बारे में विजयकुमार केंद्रीय सतर्कता आयोग और कर्नाटक मानवाधिकार आयोग, दोनों को लिख चुके हैं मगर कोई फायदा नहीं हुआ. जब उनकी पत्नी जयश्री को यह अहसास हो गया कि व्यवस्था में किसी को भी उनके पति की जान की परवाह नहीं तो उन्होंने जनता के पास सीधे जाने का फैसला किया. जैसा कि वे बताती हैं, ‘मैंने एक वेबसाइट बनाई और हर चीज को दस्तावेज के रूप में इस पर सहेजना शुरू किया. मैं नहीं चाहती थी कि इंसाफ के लिए लड़ाई मुझे उन्हें खोने के बाद छेड़नी पड़े.’

2007 में वेबसाइट शुरू होने के बाद जल्द ही विजयकुमार को तत्कालीन मुख्य सचिव पीबी महिषि की चिट्ठी मिली. इसमें कहा गया था कि सरकारी सेवक की पत्नी इस तरह की वेबसाइट नहीं चला सकती क्योंकि पति और पत्नी के रूप में वे दोनों एक ही इकाई हैं. इसमें यह भी कहा गया था कि वेबसाइट जारी रखने के लिए जयश्री को अपने पति से अलग होना होगा.

इस दंपत्ति के लिए मुसीबत तब शुरू हुई थी जब ऊर्जा सुधार विभाग में विशेष सचिव के रूप में तैनात विजयकुमार ने 344 करोड़ रुपए के दुरुपयोग के खिलाफ आवाज उठाई थी. 2005 में उन्होंने इस बारे में कर्नाटक के मुख्य सचिव को 30 पन्नों की एक रिपोर्ट सौंपी. जैसा कि वे बताते हैं, ‘सबसे बुरी चीज जो मुझे लगी वह यह थी कि गरीबों के लिए किए गए कामों पर करोड़ों रुपए खर्च करने के दावे किए गए थे. जबकि आंकड़े इसके उलट कहानी कह रहे थे.’ आधिकारिक तौर पर गरीबों तक बिजली पहुंचाने के लिए भारी सब्सिडियां दी जा रही थीं. मगर 800 गांवों के टैरिफ और मीटर रीडिंगों का अध्ययन करने के बाद विजयकुमार ने पाया कि असल में गरीबों के नाम पर अमीरों को सब्सिडियां मिल रही थीं.

तब के मुख्य सचिव केके मिश्रा ने विजयकुमार को चेतावनी दी थी कि वे संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई न करें. विजयकुमार के मुताबिक मिश्रा ने उनसे कहा, ‘वे तुम्हें खत्म कर देंगे. ऐसा मत करो. वे तुम्हें बर्बाद करने के लिए किसी भी हद तक चले जाएंगे.’ मगर विजयकुमार माने नहीं. मिश्रा जल्द रिटायर हो गए और कुछ समय बाद उनकी जगह पीपी महिषि ने ले ली. विजयकुमार ने मांग की कि उनकी रिपोर्ट पर कार्रवाई की जाए वर्ना वे इसे सार्वजनिक कर देंगे. महिषि का जवाब था, ‘मुझे इससे भी बड़े घोटालों की खबर है. तुम इतना शोर क्यों मचा रहे हो?’ जयश्री भी इस बैठक के दौरान मौजूद थीं. वे महिषि के शब्द याद करती हैं, ‘भ्रष्टाचारियों के ऊपर मेरा हाथ है. जांच करने की जरूरत नहीं.’

तहलका ने जब इस बारे में महिषि से संपर्क किया तो उन्होंने माना कि विजयकुमार उनसे मिले थे. मगर उनका कहना था, ‘वे मेरे पास ऐसी कोई रिपोर्ट लेकर नहीं आए थे जिस पर मैं कार्रवाई करता. इसलिए मैंने उनसे कहा कि वे अपना काम करें और भ्रष्टाचार से निपटने का काम दूसरी संस्थाओं पर छोड़ दें. वे झूठे आरोप लगा रहे हैं.’ महिषि आगे यह भी जोड़ते हैं कि उन्होंने विजयकुमार के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की थी और अपने और विजयकुमार के बीच के पत्राचार को मनोरोगी वार्ड को भेज दिया था. विजयकुमार कहते हैं, ‘ऐसा लगता है कि मुख्य सचिव ने मेरी रिपोर्ट उन्हीं लोगों को दे दी जिनके खिलाफ मैंने शिकायत की थी. बाद में आरटीआई के तहत आवेदन लगाने पर पता चला कि मेरी रिपोर्ट का कहीं कोई पता नहीं.’

सितंबर 2006 से जून 2007 के बीच विजयकुमार का सात बार तबादला किया गया. एक बार तो उन्हें अपने रैंक से नीचे का पद तक दे दिया गया जबकि असल में उनका प्रमोशन होना था. इन्हीं तबादलों के दौरान एक बार उन्हें एक ऐसे विभाग में भेज दिया गया जो काम ही नहीं कर रहा था. यहां उन्हें चार महीनों तक तनख्वाह नहीं मिली.

विजयकुमार जहां भी गए भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ न कुछ करते रहे और नतीजतन उन्हें फिर दूसरी जगह पटका जाता रहा. बेंगलुरू का क्षेत्रीय आयुक्त बनने के बीस दिन बाद ही विजयुकमार ने एक योजना बनाई जिसमें जनता सूचना के अधिकार के तहत आने वाली जानकारी को बिना किसी झंझट के सीधे इंटरनेट पर देख सकती थी. इसमें खास दिन या समय जैसी कोई बाधा नहीं होती. मगर योजना अमल में आने से दो दिन पहले ही उनका तबादला कर दिया गया. इसके बाद उन्हें मैसूर लैंप्स नाम की एक कंपनी की एक बेकार पड़ी इकाई का प्रबंध निदेशक बना दिया गया. जब उन्होंने इसे पुनर्जीवित करने की एक योजना बनाकर सौंपी तो तबादला कर उन्हें बेलगाम भेज दिया गया. यहां उन्हें कमांड एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी में एक ऐसे पद पर काम करना था जो दरअसल इंजीनियरों के लिए होता है.

यह दिसंबर, 2007 की बात है. विजयकुमार ने पुलिस सुरक्षा के बिना बेलगाम जाने से इनकार कर दिया. उन्हें सुरक्षा तो मिली पर सिर्फ कागजों पर. जयश्री बताती हैं, ‘अधिकारी एक बार भी हमारे यहां आए बिना अपनी बीट बुक भरते रहे.’ इस तरह की पुलिस सुरक्षा में रहते हुए विजयकुमार पर दो जानलेवा हमले हुए. जैसा कि वे याद करते हैं, ‘पुलिस का कहना था कि वे मेरी सुरक्षा नहीं कर सकते इसलिए मुझे सीबीआई सुरक्षा के लिए कहना चाहिए.’ इन दिनों वे प्रधान सचिव के स्तर के पद पर हैं और कर्नाटक सिल्क मैनेजिंग बोर्ड के चेयरमैन बनकर काम कर रहे हैं जो कि काफी हद तक नाम का ही पद है.

मगर विजयकुमार यह प्रताड़ना झेलने वाले अकेले नहीं हैं. 2006 से उनकी पत्नी जयश्री उनके समर्थन में लगातार आरटीआई आवेदन दाखिल कर रही हैं. जब भ्रष्टाचार पर बनी एक उच्चस्तरीय समिति की कार्यशैली के बारे में पूछे गए उनके सवालों का कोई जवाब नहीं मिला तो जयश्री ने कर्नाटक सूचना आयोग की शरण ली. आयोग की इमारत से वे बाहर निकली ही थीं कि एक शख्स ने उनका रास्ता रोककर उनसे कहा, ‘अपने सभी आवेदन वापस ले लो वरना नतीजे बहुत खतरनाक होंगे.’ एक अन्य घटना में जब वे मुख्य सचिव के खिलाफ मिली एक जानकारी को सार्वजनिक करने के लिए एक प्रेस

कॉफ्रेंस में जा रही थीं तो एक बस ने उनकी कार में टक्कर मारने की कोशिश की. जयश्री बताती हैं, ‘ड्राइवर की सतर्कता से हम बच गए. हमारी किस्मत ठीक रही है. जब भी किसी ने हमें नुकसान पहुंचाने की कोशिश की, कोई न कोई हमें बचाने के लिए मौजूद रहा. मुझे नहीं पता ऐसा कब तक चल पाएगा.’

‘अब भी मेरी जान को खतरा है’

एचएस डिलिमा

पांच साल पहले 75 वर्ष के बुजुर्ग पर उनके घर के सामने हंसिए से हमला हुआ. खून से लथपथ होने के बावजूद उन्होंने हमलावर से जूझते हुए अपनी जान बचाई. तब से पांच वर्ष बीत गए. डिलिमा कई बार हमलावर को अंधेरी इलाके में आजादी से घूमते हुए देख चुके हैं. वे उसके घर का पता जानते हैं और उन्होंने कई बार पुलिस को वहां तक पहुंचाने की पेशकश की. इसके बावजूद मुंबई पुलिस ने यह कह कर उनका केस बंद कर दिया कि उनके हमलावर को खोजा नहीं जा सका.

डिलिमा की व्यथा कथा इतनी भर नहीं है. हमले से कुछ ही महीने पहले उन्होंने पुलिस से सुरक्षा की मांग की थी, क्योंकि किसी ने उन्हें जान से मारने की धमकियां दी थीं. यह वही आदमी था, जिसने बाद में उनकी जान लेने की कोशिश कीलेकिन डिलिमा की व्यथा कथा इतनी भर नहीं है. हमले से कुछ ही महीने पहले उन्होंने पुलिस से सुरक्षा की मांग की थी, क्योंकि किसी ने उन्हें जान से मारने की धमकियां दी थीं. यह वही आदमी था, जिसने बाद में उनकी जान लेने की कोशिश की. लेकिन डालमिया को कोई सुरक्षा नहीं दी गई. आज भी वे बिना सुरक्षा के ही घूमते हैं. पिछले एक दशक से डिलिमा मुंबई के अंधेरी पश्चिम इलाके में अवध इमारतों के निर्माण के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं. वे बताते हैं,‘इस इलाके तक पहुंचने वाले सभी रास्तों पर अवैध इमारतें बन गई हैं. इस इलाके में अब सिर्फ उसी तंग गली के जरिए पहुंचा जा सकता है जहां मैं रहता हूं.’

उनकी शिकायतें वर्षो तक धूल खाती रहीं. नवंबर, 2004 में अधिकारियों ने एक शिकायत पर कार्रवाई की. डिलिमा ने कुछ तसवीरों की मदद से बॉम्बे म्युनिसिपल कारपोरेशन (बीएमसी) से लड़ाई लड़ी और एक स्टे ऑर्डर जारी करवाने में सफल रहे. जल्दी ही अंधेरी की लेन नं 1 का हाउस नं 77 ढहा दिया गया. यह एक छोटी सी जीत थी जिसने आगे के लिए उम्मीदें बड़ी कर दी थीं.

लेकिन इस छोटी सफलता के लिए भी डिलिमा को कीमत चुकानी पड़ी. कुछ ही महीने बाद मार्च, 2005 में एक दिन जब डिलिमा अपने घर लौट रहे थे, तो उनके घर के बाहर उन पर पीछे से हमला हुआ. यह हमला हंसिए से हुआ था. उन्होंने मामले की एफआईआर में कम से कम 8 लोगों के नाम दर्ज कराए, जिन पर उन्हें शक था. तब से डिलिमा न केवल भू-माफियाओं से बल्कि उस पुलिस और व्यवस्था से भी जूझ रहे हैं जिसका फर्ज ही है नागरिकों की सुरक्षा. उनके अनुसार पुलिस ने जांच के नाम पर सिर्फ खानापूरी की. 2006 में एक संक्षिप्त रिपोर्ट जमा कर मामले को बंद कर दिया गया. लेकिन डिलिमा को इसकी जानकारी नहीं थी. जब इस बारे में उनके सवालों को नहीं सुना गया तो उन्होंने सूचना के अधिकार के तहत एक आवेदन किया. तब कहीं जाकर जनवरी, 2007 में उन्हें पता लगा कि संदिग्धों के खिलाफ कोई कार्रवाई ही नहीं की गई.

इस बीच डिलिमा ने अपनी खोज-बीन के जरिए 2004 में अपनी हत्या की सुपारी देनेवालों के बारे में कुछ पक्की सूचनाएं जमा कर ली थीं. वे उन्हें लेकर अपना मामला फिर से शुरू करने के लिए जून, 2007 में अंधेरी के डीजीपी और एसीपी से मिले. लेकिन अधिकारियों ने केस को फिर से खोलने से मना कर दिया. तब एक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद मजिस्ट्रेट के आदेश से नवंबर, 2008 में मामला फिर से खुल सका.

लेकिन डिलिमा बताते हैं कि इसके बावजूद कुछ खास कार्रवाई नहीं हुई है. जांच भी रुकी हुई है. इसे लेकर उन्होंने बीएमसी और मुंबई पुलिस को कम से कम 200 चिट्ठियां लिखी होंगी. उन्होंने आरटीआई के तहत जमा किए गए सबूत पेश किए हैं जो करोड़ों रुपए के अवैध निर्माण की तरफ इशारा करते हैं. डिलिमा कहते हैं, ‘मुंबई का बिल्डिंग प्रपोजल्स डिपार्टमेंट खुद ही मानता है कि इन निर्माणों के लिए उससे मंजूरी नहीं ली गई थी.’

लेकिन इसके बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हो रही है. 2006 में डिलिमा ने मुंबई हाई कोर्ट में इन्हीं सबूतों के साथ एक जनहित याचिका दायर की थी, जो अब भी लंबित पड़ी है. जबकि डिलिमा को अब भी धमकियां मिल रही हैं. दो महीने पहले उन्हें मुंबई के भू-माफिया की चिट्ठी मिली है, जिसमें कहा गया था कि उनकी हत्या के लिए पांच लाख की सुपारी दे दी गई है.

डिलिमा कहते हैं, ‘मेरे जैसे कार्यकर्ता तब तक सुरक्षित नहीं हैं जब तक पुलिस जवाबदेह और जिम्मेदार नहीं बनती जो कि उसे भारतीय संविधान के मुताबिक होना चाहिए। अब भी मेरी जान को खतरा है.’

सच्चाई की राह पर चलना बड़ा मुश्किल है’ : शिवप्रकाश, बिहार के एक किसान

बिहार के बक्सर जिले में स्थित सरिन्जा गांव के शिवप्रकाश को कई साल तक यही लगता रहा कि भारत को लोगों को असली आजादी तो 2005 में मिली जब सूचना का अधिकार कानून पास हुआ. लेकिन जब इस आजादी का इस्तेमाल करने की कोशिश में उन्हें और उनके जसे 18 लोगों को मार खानी पड़ी और जेल जाना पड़ा तो उनकी यह खुशफहमी अब दूर हो गई है.

'डीएम ने मुझे नौ सादे कागज दिए. उन्होंने मुझ पर यह लिखने के लिए दबाव डाला कि मुझे वे सूचनाएं मिल गई हैं, जिनकी मांग मैंने की थी. जब मैंने इसका विरोध किया, तो उन्होंने धमकी देनी शुरू की. वे कहने लगे-’मैं तुम्हें और तुम्हारे परिवार को बरबाद कर दूंगा. मैं तुम्हें जेल भेज दूंगा’

2005 से प्रकाश सूचना के अधिकार का इस्तेमाल उन चीजों से जुड़ी जानकारियां पाने के लिए कर रहे थे जो उनके गांव के किसानों की रोजमर्रा की जिंदगी को प्रभावित करती हैं, जैसे वार्ड कमिश्नर ने अपने कार्यकाल में कितना काम किया है या सरकारी योजनाओं से कितने किसानों को फायदा पहुंचा है आदि. उदाहरण के लिए केंद्र सरकार ने गरीब किसानों के लिए हैंडपंप की खरीद और ट्यूबवेल लगवाने पर 35 प्रतिशत की रियायत दी थी. आरटीआई दस्तावेजों के अनुसार प्रकाश ने पाया कि स्थानीय प्रशासन के दावों में भारी विसंगतियां हैं. वे बताते हैं कि प्रशासन ने स्टेशन रोड स्थित नवीन हार्डवेयर से 1000 ट्यूबवेलों या पीपी रोड स्थित अनिल मशीनरी के यहां से पंपसेटों की खरीद की सूची बनाई है. लेकिन इन दुकानों का अस्तित्व ही नहीं है. खरीद की अधिकतर रसीदें जाली हैं. प्रकाश को अनुमान है कि उनके अपने जिले में ही 10 करोड़ से अधिक का घोटाला हुआ है. उन्हें यकीन है कि इस तरह की धोखाधड़ी पूरे राज्य में चल रही है.

इसके बाद प्रकाश ने कई और सवाल पूछे. आवेदनों की बड़ी संख्या देख कर स्थानीय प्रशासन जवाब देने से कतराने लगा. 2006 में प्रकाश ने बक्सर जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय से शिक्षित बेरोजगार योजना के लाभार्थियों और सरकारी रियायती दर पर हैंडपंप और ट्यूबवेल खरीदनेवाले किसानों की सूची मांगी. वे कहते हैं, ‘मुझे लगा कि सरकारी फंड से करोड़ों रुपए फर्जी नामों पर उठाए गए हैं.’ लेकिन उन्हें प्रशासन से कोई जवाब नहीं मिला. इसके बाद प्रकाश ने नियमित अंतराल पर डीएम के कार्यालय को नौ आवेदन भेजे. जब उन्हें कोई जवाब नहीं मिला तो प्रकाश ने बिहार सूचना आयोग से संपर्क किया. उन्हें उम्मीद कम ही थी मगर आयोग ने उनकी शिकायतों पर कार्रवाई की और डीएम से जवाब तलब किया. प्रकाश कहते हैं, ‘इसीलिए डीएम ने तय कर लिया था कि मुझे सबक सिखाना है.’

बक्सर लौटते ही डीएम ने प्रकाश से कहा कि सारी सूचना उनके चेंबर में रखी हुई है और वे आकर उन्हें ले लें. प्रकाश 2 फरवरी, 2008 को डीएम कार्यालय पहुंचे. लेकिन यहां घटी घटना ने प्रकाश के जीवन को एक दूसरी ही दिशा दे दी. प्रकाश बताते हैं, ‘डीएम ने मुझे नौ सादे कागज दिए. उन्होंने मुझ पर यह लिखने के लिए दबाव डाला कि मुझे वे सूचनाएं मिल गई हैं, जिनकी मांग मैंने की थी. जब मैंने इसका विरोध किया, तो उन्होंने धमकी देनी शुरू की. वे कहने लगे-’मैं तुम्हें और तुम्हारे परिवार को बरबाद कर दूंगा. मैं तुम्हें जेल भेज दूंगा.’ जब प्रकाश ने झुकने से इनकार किया तो पुलिस बुला कर उन्हें हिरासत में ले लिया गया. उनके खिलाफ डीएम से रंगदारी वसूलने और उनकी हत्या करने की कोशिश के आरोप में एक एफआईआर दायर की गई. 29 दिन तक हिरासत में रहने के बाद प्रकाश सबूतों के अभाव में छूट गए.

जेल से निकलने के बाद प्रकाश का इरादा और मजबूत हुआ. उन्होंने हर जिले में घूम-घूम कर लोगों को आरटीआई और इसके उपयोग के बारे में बताया. उन्होंने अपने जैसे कुछ लोगों के साथ मिल कर आरटीआई मंच का गठन किया ताकि आरटीआई कार्यकर्ताओं को सुरक्षा दी जा सके. प्रकाश बताते हैं कि अन्य 18 कार्यकर्ताओं को भी निशाना बनाया गया है और उन्हें जेल भेजा गया है. वे कहते हैं, ‘डीजीपी ने खुद स्वीकार किया है कि बिहार में आरटीआई कार्यकताओं के खिलाफ जांच के 30 मामले चल रहे हैं.’

आजादी का शुरुआती भ्रम तेजी से बिखर रहा है. लेकिन प्रकाश अब भी डटे हुए हैं. वे कहते हैं, ‘मेरे घरवालों को यह काम पसंद नहीं. उन्हें हम बेवकूफ लगते हैं. ऐसा लगता है कि केवल भ्रष्ट लोगों को ही दौलत और शोहरत मिल सकती है. सच्चाई के रास्ते पर चलना बड़ा मुश्किल है.’

‘मैंने हार मान ली है’

सूर्यकांत शिंदे, मुंबई

बांबे पोर्ट ट्रस्ट (बीपीटी) में दो दशक तक काम करने के बाद नवंबर, 2009 में सहायक सुरक्षा अधिकारी सूर्यकांत शिंदे को बरखास्त कर दिया गया. उन्हें पांच लोगों का परिवार पालना था, होम लोन चुकाना था और उनका बैंक खाता लगभग खाली था. 45 वर्षीय शिंदे कहते हैं, ‘मैंने हार मान ली है. अब मैं जनता की भलाई के लिए और काम नहीं करना चाहता.’

अगस्त में शिंदे ने जहाजरानी मंत्रालय से शिकायत की. वे बताते हैं कि मंत्रालय ने शिकायत पोर्ट ट्रस्ट के चेयरमैन को भेजी और चेयरमैन ने इसे उसी मुख्य सुरक्षा अधिकारी के पास भेज दिया जिसके खिलाफ शिंदे ने शिकायत की थी

उनकी इस हताशा की शुरुआत कुछ साल पहले हुई थी जब शिंदे को आपराधिक साजिश रचने और मुंबई बंदरगाह पर आए कंटेनरों से केमिकल चुराने के आरोप में दो माह के लिए जेल भेज दिया गया. स्थानीय पुलिस ने उन्हें मुख्य साजिशकर्ता बताया. हालांकि शिंदे ने ही चोरियों को उजागर करने की कोशिश की थी. वास्तविकता यह थी कि शिंदे का पहले ही उस इलाके से तबादला कर दिया गया था जहां चोरियां हुई थीं. चोरियों के समय वे हेपेटाइटिस से पीड़ित थे और अस्पताल में भर्ती थे. इस मामले में दो वर्ष बाद एक जज ने उन्हें बरी कर दिया. शिंदे पर तीन अधिकारियों ने आरोप लगाए थे. यहां यह उल्लेखनीय है कि कुछ ही महीने पहले शिंदे ने एक घोटाला उजागर किया था, जिसमें मुख्य सुरक्षा अधिकारी समेत यही तीनों लोग संदेह के घेरे में आए थे. बाद में उन्होंने शिंदे को फंसाने की कोशिश की थी.

फरवरी, 2005 में शिंदे ने दवा बनाने के काम आनेवाले महंगे केमिकल्स और दवाओं की तस्करी से संबंधित एक विस्तृत रिपोर्ट सौंपी. 10 करोड़ रुपए से भी अधिक मूल्य की यह तस्करी बंदरगाह पर मौजूद कंटेनरों से छह महीने से हो रही थी. उन्होंने कंटेनरों और उनकी जगह तथा संदिग्धों के बारे में विस्तार से जानकारी दी थी. उनके अनुसार संदिग्धों के नाम थे-बरकत अली, परवेज और अमरसिंह राजपूत. ये सभी वांछित तस्कर थे.

शिंदे कहते हैं कि उन्होंने रिपोर्ट पुलिस, बीपीटी चेयरमैन तथा कस्टम और सतर्कता विभाग को सौंप दी थी लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. जब अखबार द इंडियन एक्सप्रेस ने चोरियों की खबर छापी तो मुंबई पुलिस की अपराध शाखा हरकत में आई और शिंदे के दफ्तर पहुंची. शिंदे की शिकायत का उल्लेख करते हुए पांच एफआईआर दर्ज की गईं. तस्करों के गिरफ्तार होने तक शिंदे ने पुलिस की मदद की. लेकिन डच्यूटी पर तैनात बीपीटी अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई. शिंदे बताते हैं कि ऐसी चोरियां गेट पास और कंटेनरों की खुफिया सूचना के बिना नहीं हो सकतीं. उन्होंने चोरियों के सात और मामलों को उजागर किया लेकिन अपराध शाखा ने उन मामलों को स्थानीय पुलिस के पास भेज दिया. हैरत की बात यह है कि उनमें से तीन मामलों में शिंदे को ही फंसा दिया गया और 5 जुलाई, 2005 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. अप्रैल, 2007 में बरी होने तक उनके दो लाख रुपए मुकदमा लड़ने और जमानत हासिल करने में खर्च हो चुके थे.

1994-97 के बीच शिंदे ने मुंबई बंदरगाह पर आयातित तेल की चोरियों का मामला उजागर किया था. कुछ आरोपित पकड़े गए और कुछ तेल की बरामदगी भी हुई. इससे पहले 1997 में उन्होंने टेट्रासाइक्लिन की चोरी की सूचना दी थी. इसका आरोपित गिरफ्तार हुआ था, लेकिन मुख्य सुरक्षा अधिकारी ने शिंदे से उनके व्यवहार के बारे में जवाब मांगा था. बाद में शिंदे को मानहानि के मुकदमे का सामना करना पड़ा था.

शिंदे कहते हैं, ‘मुझे सुरक्षा देने के बजाय बीपीटी ने मुझे निलंबित कर दिया और मेरा वेतन काट लिया.’ ड्यूटी से गायब रहने को लेकर उनके खिलाफ विभाग में अनेक आरोपपत्र दायर किए गए. अब वे ड्यूटी से गायब रहने और अनुशासनहीनता के आरोप में निलंबित चल रहे हैं. शिंदे के पास इसके सबूत हैं कि जिन दिनों वे ड्यूटी पर नहीं आए थे, उन दिनों उनकी सीबीआई और कस्टम के सामने गोपनीय मामलों में पेशी थी.

केंद्रीय सर्तकता आयोग को भेजी गई शिंदे की शिकायतों पर वर्षों तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। पिछले साल अगस्त में शिंदे ने जहाजरानी मंत्रालय से शिकायत की. वे बताते हैं कि मंत्रालय ने शिकायत पोर्ट ट्रस्ट के चेयरमैन को भेजी और चेयरमैन ने इसे उसी मुख्य सुरक्षा अधिकारी के पास भेज दिया जिसके खिलाफ शिंदे ने शिकायत की थी. शिंदे कहते हैं, ‘मैं महाभारत के अभिमन्यु की तरह अकेला पड़ गया हूं. मेरा परिवार सड़क पर है. नई नौकरी मिलने के बाद मैं अपनी तनख्वाह लूंगा और चुपचाप घर चला जाऊंगा.’