Sunday, January 17, 2010

भगत सिंह

जब मुक्ति का युग शुरु होगा : सलाम भगत सिंह


भगत सिंह. एक ऐसा नाम जिसे याद करने के लिए हमें उसकी जयंती और शहादत दिवस का सहारा नहीं लेना पड़ता. वह हमारी रगों में है. और हम उसे उसी तरह याद भी करते हैं. वह एक कामरेड था. अलग से उस पर कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं है. बस एक बात, वह क्या बात थी भगत सिंह में कि उससे आज की राजसत्ता भी डरती है? एक बार सोचें.



उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा


भगत सिंह


मैं
इस संसार को मिथ्या नहीं मानता. मेरा देश, न परछाई है, न ही कोई मायाजाल. ये एक जीती-जागती हकीकत है. हसीन हकीकत और मैं इससे प्यार करता हूं. मेरे लिए इस धरती के अलावा न तो कोई और दुनिया है और न कोई स्वर्ग. यह सही है कि आज थोड़े से व्यक्तियों ने अपने स्वार्थ के लिए इस धरती को नर्क बना दिया है. लेकिन इसके साथ ही इसे काल्पनिक कह कर भागने से काम नहीं चलेगा. लुटेरों और दुनिया को गुलाम बनानेवालों को खत्म करके हमें इस पवित्र धरती पर वापिस स्वर्ग की स्थापना करनी होगी.

मैं पूछता हूं कि सर्वशक्तिमान होकर भी आपका भगवान अन्याय, अत्याचार, भूख, गरीबी, लूट-पाट, ऊंच-नीच, गुलामी, हिंसा, महामारी और युद्ध का अंत क्यों नहीं करता? इन सबकों खत्म करने की ताकत होते हुए भी वह मनुष्यों को इन शापों से मुक्त नहीं करता, तो निश्चय ही उसे अच्छा भगवान नहीं कहा जा सकता और अगर उसमें इन सब बुराइयों को खत्म करने की शक्ति नहीं है, तो वह सर्व शक्तिमान नहीं है.
अगर वह ये सारे खेल अपनी लीला दिखाने के लिए कर रहा है, तो निश्चय ही यह कहना पड़ेगा कि वह बेसहारा व्यक्तियों को तड़पा कर सजा देनेवाली एक निर्दयी और क्रूर सत्ता है और जनता के हित से उसका जल्द-से-जल्द खत्म हो जाना ही बेहतर है.
मायावाद, किस्मतवाद, ईश्वरवाद आदि को मैं चंद लुटेरों द्वारा साधारण जनता को बहलाने-फुसलाने के लिए खोजी गयी जहरीली घुट्टी से ज्यादा कुछ नहीं समझता. दुनिया में अभी तक जितना भी खून-खराबा धर्म के नाम पर धर्म के ठेकेदारों ने किया है, उतना शायद ही किसी और ने किया होगा. जो धर्म इनसान को इनसान से अलग करे, मोहब्बत की जगह एक-दूसरे के प्रति नफरत करना सिखाना, अंधविश्वास को उत्साहित करके लोगों के बौद्धिक विकास को रोक कर उनके दिमाग को विवेकहीन बनाना, वह कभी भी मेरा धर्म नहीं बन सकता.
हम भगवान, पुनर्जन्म, स्वर्ग, घमंड और भगवान द्वारा बनाये गये जीवन के हिसाब-किताब पर कोई विश्वास नहीं रखते. इन सब जीवन-मौत के बारे में हमें हमेशा पदार्थवादी ढंग से ही सोचना चाहिए. जिस दिन हमें भगवान के ऊपर विश्वास न करनेवाले बहुत सारे स्त्री-पुरुष मिल जायें जो केवल अपना जीवन मनुष्यता की सेवा और पीड़ित मनुष्य की भलाई के सिवाय और कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते. उसी दिन से मुक्ति के युग का शुभ आरंभ होगा. मैंने अराजकतावादी, कम्युनिज़्म के पितामह कार्ल मार्क्स, लेनिन, ट्राटस्की और अन्य के लिखे साहित्य को पढ़ा है. वो सारे नास्तिक थे. सन 1922 के आखिर तक मुझे इस बात पर विश्वास हो गया कि सर्वशक्तिमान परमात्मा की बात, जिसने ब्रह्मांड की संरचना की है, संचालन किया है, एक कोरी बकवास है.


हम भगत सिंह को हरियाणा के उस दलित नौजवान की तरह समझते हैं जो कहता है कि जैसे लड़ोगे, वैसे लड़ेंगे. दरअसल जो लोग संघर्ष के बारे में यह प्रश्न उठाते है कि वह हिंसात्मक होगा या अहिंसात्मक वे लोग सत्ता के साथ खड़े होते है. भगत सिंह का पूरा दर्शन कहीं भी और कभी भी नहीं कहता है कि हिंसा ही एक रास्ता है. उन्होंने बम भी फेंका और अनशन भी किये. बुनियादी परिवर्तन करनेवाले सूत्र भगत सिंह के दर्शन में मिलते हैं.

-अनिल चमड़िया

भारत-पाकिस्तान का साझा नायक भगत सिंह

हुसैन कच्छी

गत सिंह हीरो है, भारत-पाकिस्तान का इकलौता संयुक्त हीरो, एक प्रिंस चारमिंग अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ उपमहाद्वीप में साझा संग्राम का नायक निर्विवाद और उसके चाहनेवाले पेशावर से चात्गाम तक फैले हुए हैं. पाकिस्तान के पिछले सफर में मैंने ये बातें सुनीं, जब अलाप संस्था के निमंत्रण पर लाहौर में आयोजित तीन द्विवसीय इंटर फेथ रिलेशंस फैसटीबल में शिरकत के लिए गया था. अल हमरा ऑर्ट सेंटर में मुल्क भर से आमंत्रित अलग-अलग धर्मों के माननेवाले आये थे. इनसानदोस्ती और मुहब्बतों से डूबे लोगों का मेला था. सूफियान नगमों, गीतों की बारिश हो रही थी, सब एक -दूसरे की बांहों में बाहें डाले झूम रहे थे व गा रहे थे. इसी माहौल में मेरी मुलाकात गुरमीत सिंह से हो गयी. गुरमीत पाकिस्तान के नागरिक हैं.
उनका घर भगतसिंह के पैतृक गांव के पास ही है. लायलपुर (अब फैसलाबाद) के तहसील जड़ांवाला के चॉक न. 105 ग्राम बंगा में 28 सितंबर, 1907 को भगत सिंह का जन्म हुआ. हम आज भगत की जन्मशती मना रहे हैं. पिछले वर्ष गुरमीत ने भगत सिंह के जन्म दिवस पर जड़ांवाला में सांस्कृतिक कार्यक्रम और भगत सिंह मेमोरियल कबड्डी टूर्नामेंट का आयोजन कि या था, जिसमें प्रशासन के सहयोग से कई टीमों ने हिस्सा लिया और पंजाबी टीवी चैनल पर उसका प्रसारण भी किया गया था. गुरमीत सिंह कुछ वर्षों से भगत सिंह के जीवन और उनके आंदोलन पर काम कर रहे हैं. वे इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि भगत सिंह का घर राष्ट्रीय स्मारक घोषित हो. लाहौर किला, जहां भगत सिंह को कैद रखा गया था और दरिया-ए-सतलुज के किनारे भगत सिंह की यादगार कायम की जाये. इसके लिए सरकार से उनकी वार्ता जारी है. उन्होंने बताया भारत सरकार की ओर से भी इस मुद्दे पर चर्चा की उन्हें सूचना है. चूंकि पाकिस्तान में भगत सिंह के किसी रिश्तेदार के होने की कोई खबर नहीं और उन्हें अमर शहीद पर अभी बहुत सूचनाएं एकत्रित करनी हैं, इसलिए वे भारत में भगत सिंह के रिश्तेदारों से मिलने का प्रोग्राम बना रहे हैं. अनेक रिश्तेदारों का अता-पता वह जमा कर रहे हैं.
पाकिस्तान में भगत सिंह के विषय पर गहरी रुचि का अनुभव हुआ, समय-समय पर अब अखबारों में उनकी गाथाएं छपती हैं. अहमद सलीम की दो किताबें भगत सिंह, जीवन के आदर्श 1973 और 1986 में छपी भगत सिंह देखने को मिली. इसके अलावा अजय घोष की पुस्तिका भगत सिंह और उसके साथी का उर्दू अनुवाद भी उपलब्ध है. प्रोफेसर नसरीन अंजुम भट्टी, अधिवक्ता आफताब जावेद, शिराज राज ने बताया कि भगत सिंह पर आधारित भारतीय फिल्में इस लगन और दिलचस्पी से देखी जाती हैं कि ये साड्डे (अपने) भगत सिंह की कहानी है. भगत साड्डा हीरो है, बहुत बड़ा और निर्विवाद हीरो, जिस पर कोई बहस नहीं और जिसकी कुर्बानी बेमिसाल है, पेशावर से चात्गाम तक भगत हर मां का बेटा है, सबका भाई है. हमें गर्व है कि भगत हमारी मिट्टी का सपूत है, वे कहते हैं कि आजादी के लिए उपमहाद्वीप के साझा संग्राम का वही एक मात्र लीडर है, जिसके लिए सरहद के दोनों तरफ एक से जज्बात हैं. अब खबर आयी कि भगत सिंह जन्मशती के मौके पर पाकिस्तान सरकार ने उनकी यादगार कायम करने का फैसला किया है, इसका चौतरफा स्वागत हुआ. अखबारों ने संपादकीय लिख कर इसकी सराहना की है. भाई गुरमीत से संपर्क बना हुआ है वे पूरे जोश खरोश से वहां आयोजित होनेवाले कार्यक्रमों में व्यस्त हैं, फुरसत पाते ही भारत आयेंगे, तो और जानकारी मिलेगी. भगत सिंह का त्याग बोल रहा है कि नफरतों के बीज बोनेवाले तो जा चुके हैं. अब साझा संस्कृति के वारिसों के दरम्यान गलतफहमी क्यों है? जो दिलों को जोड़ दें उस इंकलाब को जिंदाबाद किया जाये.
कच्छी जी का यह आलेख प्रभात खबर से साभार.

अछूतों की अजादी : धीरे-धीरे होनेवाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा

Posted by Reyaz-ul-haque on 6/03/2007 01:14:00 PM
देश में दलितों की दशा और आरक्षण पर बहस छि़ड़ी हुई है. ऐसे में हम भगत सिंह को याद कर सकते हैं, जिन्होंने देश में सबसे पहले एक शोषणमुक्त समाज बनाने के बारे में वैज्ञानिक तरीके से सोचा, तमाम संदर्भों को लेकर अध्ययन किया और एक नतीजे पर पहुंचे. यह उनका जन्मशती वर्ष भी है. कुछ हवाले पुराने भले हैं, मगर बाते समकालीन हैं.

भगत सिंह

हमारे देश जैसे बुरे हालात किसी दूसरे देश के नहीं हुए. यहां अजब-अजब सवाल उठते रहते हैं. एक अहम सवाल अछूत समस्या है. समस्या यह है कि 30 करोड़ की जनसंख्यावाले देश में जो 6 करोड़ लोग अछूत कहलाते हैं, उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जायेगा! उनके मंदिरों में प्रवेश से देवगण नाराज हो उठेंगे! कुएं से उनके द्वारा पानी निकालने से कुंआ अपवित्र हो जायेगा! ये सवाल बीसवीं सदी में किये जा रहे हैं, जिन्हें सुनते ही शर्म आती है.
हमारा देश बहुत अध्यात्मवादी है, लेकिन हम मनुष्य को मनुष्य का दर्जा देते हुए भी झिझकते हैं, जबकि पूर्णतया भौतिकवादी कहलानेवाला यूरोप कई सदियों से इनकलाब की आवाज उठा रहा है. उन्होंने अमेरिका और फ्रांस की क्रांतियों के दौरान ही समानता की घोषणा कर दी थी. आज रूस ने भी हर प्रकार के भेदभाव मिटा कर क्रांति के लिए कमर कसी हुई है. हम सदा ही आत्मा-परमात्मा के वजूद को लेकर चिंतित होने तथा इस जोरदार बहस में उलझे हुए हैं कि क्या अछूत को जनेऊ दे दिया जायेगा? वे वेद-शास्त्र पढ़ने के अधिकारी हैं अथवा नहीं? हम उलाहना देते हैं कि हमारे साथ विदेशों में अच्छा सलूक नहीं होता. अंगरेज़ी शासन हमें अंगरेज़ के समान नहीं समझता. लेकिन क्या हमें यह शिकायत करने का अधिकार है?
सिंध के एक मुसलिम सज्जन श्री नूर मुहम्मद ने, जो बंबई कौंसिल के सदस्य हैं, इस विषय पर 1926 में खूब कहा-

If the Hundu society refuses to allow other human beings, fellow creatures so that to attend public school, and if.. the president of local board representing so many lakhs of people in this house refuses to allow his fellows and brothers the elementary human right of having water to drink, what right have they to ask for more rights from the bureaucracy? Before we accuse people coming from other lands, we should see how we ourselves behave toward our own people.. How can we ask for greater political rights when we ourselves deny elementary rights of human beings.

वे कहते हैं कि जब तुम एक इनसान को पीने के लिए पानी देने से भी इनकार करते हो, जब तुम उन्हें स्कूल में भी पढ़ने नहीं देते तो तुम्हें क्या अधिकार है कि अपने लिए अधिक अधिकार की मांग करो? जब तुम एक इनसान को समान अधिकार देने से भी इनकार करते हो तो तुम अधिक राजनैतिक अधिकार मांगने के कैसे अधिकारी बन गये? बात बिल्कुल खरी है. लेकिन यह क्योंकि एक मुसलिम ने कही है इसलिए हिंदू कहेंगे कि देखो, वह उन अछूतों को मुसलमान बना कर अपने में शामिल करना चाहते हैं. जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया-बीता समझोगे तो वह जरूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जाएंगे, जिनमें उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे, जहां उनसे इनसानों जैसा व्यवहार किया जायेगा. फिर यह कहना कि देखो जी, ईसाई और मुसलमान, हिंदू कौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं व्यर्थ होगा. कितना स्पष्ट कथन है, लेकिन यह सुन कर सभी तिलमिला उठते हैं. इसी तरह की चिंता हिंदुओं को भी हुई. सनातनी पंडित भी कुछ-न-कुछ इस मसले पर सोचने लगे. बीच-बीच में बड़े 'युगांतरकारी` कहे जानेवाले भी शामिल हुए. पटना में हिंदू महासभा का सम्मेलन लाला लाजपतराय-जो कि अछूतों के बहुत पुराने समर्थक चले आ रहे हैं-की अध्यक्षता में हुआ, तो जोरदार बहस छिड़ी. अच्छी नोंक-झोंक हुई. समस्या यह थी कि अछूतों को यज्ञोपवीत धारण करने का हक है अथवा नहीं? तथा क्या उन्हें वेद-शास्त्रों का अध्ययन करने का अधिकार है? बड़े-बड़े समाज-सुधारक तमतमा गये, लेकिन लालाजी ने सबको सहमत कर दिया तथा यह दो बातें स्वीकृत कर हिंदू धर्म की लाज रख ली. वरना जरा सोचो, कितनी शर्म की बात होती. कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है. हमारी रसोई में निस्संग फिरता है, लेकिन एक इनसान का हमसे स्पर्श हो जाये तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है. इस समय मालवीय जी-जैसे बड़े समाज-सुधारक, अछूतों के बड़े प्रेमी और न जाने क्या-क्या पहले एक मेहतर के हाथों गले में हार डलवा लेते हैं, लेकिन कपड़ों सहित स्नान किये बिना स्वंय को अशुद्ध समझते हैं! क्या खूब यह चाल है! सबको प्यार करनेवाले भगवान की पूजा करने के लिए मंदिर बना है लेकिन वहां अछूत जा घुसे तो वह मंदिर अपवित्र हो जाता है. भगवान रुष्ट हो जाता है! घर की जब यह स्थिति हो तो बाहर हम बराबरी के नाम पर झगड़ते अच्छे लगते हैं? तब हमारे इस रवैये में कृतघ्नता की भी हद पायी जाती है. जो निम्नतम काम करके हमारे लिए सुविधाओं को उपलब्ध कराते हैं उन्हें ही हम दुरदुराते हैं. पशुओं की हम पूजा कर सकते हैं, लेकिन इनसान को पास नहीं बिठा सकते! आज इस सवाल पर बहुत शोर हो रहा है. उन विचारों पर आजकल विशेष ध्यान दिया जा रहा है. देश में मुक्ति कामना जिस तरह बढ़ रही है, उसमें सांप्रदायिक भावना ने और कोई लाभ पहुंचाया हो अथवा नहीं लेकिन एक लाभ जरूर पहुंचाया है. अधिक अधिकारों की मांग के लिए अपनी-अपनी कौमों की संख्या बढ़ाने की चिंता सबको हुई. मुसलिमों ने जरा ज्यादा जोर दिया. उन्होंने अछूतों को मुसलमान बना कर अपने बराबर अधिकार देने शुरू कर दिये. इससे हिंदुओं के अहम को चोट पहुंची. स्पर्धा बढ़ी. फसाद भी हुए. धीरे-धीरे सिखों ने भी सोचा कि हम पीछे न रह जायें उन्होंने भी अमृत छकाना आरंभ कर दिया. हिंदू-सिखों के बीच अछूतों के जनेऊ उतारने या केश कटवाने के सवालों पर झगड़े हुए. अब तीनों कौमें अछूतों को अपनी-अपनी ओर खींच रही है. इसका बहुत शोर-शराबा है. उधर ईसाई चुपचाप उनका रुतबा बढ़ा रहे हैं. चलो, इस सारी हलचल से ही देश के दुर्भाग्य की लानत दूर हो रही है.
इधर जब अछूतों ने देखा कि उनकी वजह से इनमें फसाद हो रहे हैं तथा उन्हें हर कोई अपनी-अपनी खुराक समझ रहा है तो वे अलग ही क्यों न संगठित हो जायें? इस विचार के अमल में अंगरेज़ी सरकार का कोई हाथ हो अथवा न हो लेकिन इतना अवश्य है कि इस प्रचार में सरकारी मशीनरी का काफी हाथ था. 'आदि धर्म मंडल` जैसे संगठन उस विचार के प्रचार का परिणाम हैं.
अब एक सवाल और उठता है कि इस समस्या का सही निदान क्या हो? इसका जबाब बड़ा अहम है. सबसे पहले यह निर्णय कर लेना चाहिए कि सब इनसान समान हैं तथा न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ और न कार्य विभाजन से. अर्थात क्योंकि एक आदमी गरीब मेहतर के घर पैदा हो गया है, इसलिए जीवन भर मैला ही साफ करेगा और दुनिया में किसी तरह के विकास का काम पाने का उसे कोई हक नहीं है, ये बातें फिजूल हैं. इस तरह हमारे पूर्वज आर्यों ने इनके साथ ऐसा अन्यायपूर्ण व्यवहार किया तथा उन्हें नीच कह कर दुत्कार दिया. उनसे ये निम्नकोटि के कार्य करनेवाले लगे. साथ ही यह भी चिंता हुई कि कहीं ये विद्रोह न कर दें, तब पुनर्जन्म के दर्शन का प्रचार कर दिया कि यह तुम्हारे पूर्व जन्म के पापों का फल है. अब क्या हो सकता है? चुपचाप दिन गुजारो! इस तरह उन्हें धैर्य का उपदेश देकर वे लोग उन्हें लंबे समय तक के लिए शांत करा गये. लेकिन उन्होंने बड़ा पाप किया. मानव के भीतर की मानवीयता को समाप्त कर दिया. आत्मविश्वास एवं स्वावलंबन की भावनाओं को समाप्त कर दिया. बहुत दमन और अन्याय किया गया. आज उस सबके प्रायश्चित का वक्त है.
इसके साथ एक दूसरी गड़बड़ी हो गयी. लोगों के मन में आवश्यक कार्यों के प्रति घृणा पैदा हो गयी. हमने जुलाहे को भी दुत्कारा. आज कपड़ा बुननेवाले भी अछूत समझे जाते हैं. यू.पी. की तरफ कहार को भी अछूत समझा जाता है. इससे बड़ी गड़बड़ी पैदा हुई. ऐसे में विकास की प्रक्रिया में रुकावटें पैदा हो रही हैं. इन तबकों को अपने समक्ष रखते हुए हमें चाहिए कि हम न इन्हें अछूत कहें और न समझें. बस, समस्या हल हो जाती है. नौजवान भारत सभा तथा नौजवान कांग्रेस ने जो ढंग अपनाया है वह काफी अच्छा है. जिन्हें आज तक अछूत कहा जाता रहा उनसे अपने इन पापों के लिए क्षमा याचना करनी चाहिए तथा उन्हें अपने जैसा इनसान समझना, बिना अमृत छकाये, बिना कलमा पढ़ाये या शुद्धि किये उन्हें अपने में शामिल करके उनके हाथ से पानी पीना, यही उचित ढंग है. और आपस में खींचतान करना और व्यवहार में कोई भी हक न देना, कोई ठीक बात नहीं है. जब गांवों में मजदूर प्रचार शुरू हुआ उस समय किसानों को सरकारी आदमी यह बात समझा कर भड़काते थे कि देखो, यह भंगी-चमारों को सिर पर चढ़ा रहे हैं और तुम्हारा काम बंद करवायेंगे. बस किसान इतने में ही भड़क गये. उन्हें याद रहना चाहिए कि उनकी हालत तब तक नहीं सुधर सकती जब तक कि वे इन गरीबों को नीच और कमीना कह कर अपनी जूती के नीचे दबाये रखना चाहते हैं. अक्सर कहा जाता है कि वह साफ नहीं रहते. इसका उत्तर साफ है-वे गरीब हैं. गरीबी का इलाज करो. ऊंचे-ऊंचे कुलों के गरीब लोग भी कोई कम गंदे नहीं रहते. गंदे काम करने का बहाना भी नहीं चल सकता, क्योंकि माताएं बच्चों का मैला साफ करने में मेहतर तथा अछूत तो नहीं हो जातीं. लेकिन यह काम उतने समय तक नहीं हो सकता जितने समय तक कि अछूत कौमें अपने आपको संगठित न कर लें. हम तो समझते हैं कि उनका स्वयं को अलग संगठनबद्ध करना तथा मुसलिमों के बराबर गिनती में होने के कारण उनके बराबर अधिकारों की मांग करना बहुत आशाजनक संकेत हैं. या तो सांप्रदायिक भेद को झंझट ही खत्म करो, नहीं तो उनके अलग अधिकार उन्हें दे दो. कौंसिलों और असेंबलियों का कर्तव्य है कि वे स्कूल-कालेज, कुंए तथा सड़क के उपयोग की पूरी स्वतंत्रता उन्हें दिलायें. जबानी तौर पर ही नहीं, वरन साथ ले जाकर उन्हें कुओं पर चढ़ायें. उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिलायें. लेकिन जिस लेजिस्लेटिव में बाल विवाह के विरुद्ध पेश किये बिल तथ मजहब के बहाने हाय-तौबा मचायी जाती है, वहां वे अछूतों को अपने साथ शामिल करने का साहस कैसे कर सकते हैं?
इसलिए हम मानते हैं कि उनके अपने जनप्रतिनिधि हों. वे अपने लिए अधिक अधिकार मांगें. हम तो साफ कहते हैं कि उठो, अछूत कहलानेवाले असली जनसेवकों तथा भाइयों उठो! अपना इतिहास देखो. गुरु गोविंद सिंह की फौज की असली शक्ति तुम्ही थे! शिवाजी तुम्हारे भरोसे पर ही सब कुछ कर सके, जिस कारण उनका नाम आज भी जिंदा है. तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई हैं. तुम जो नित्यप्रति सेवा करके जनता के सुखों में बढ़ोतरी करके और जिंदगी संभव बना कर यह बड़ा भारी अहसान कर रहे हो, उसे हम लोग नहीं समझते. लैंड एलियेशन एक्ट के अनुसार तुम धन एकत्र कर भी जमीन नहीं खरीद सकते. तुम पर इतना जुल्म हो रहा है कि मिस मेयो मनुष्यों से भी कहती हैं-उठो, अपनी शक्ति पहचानो. संगठनबद्ध हो जाओ. असल में स्वयं कोशिश किये बिना कुछ भी न मिल सकेगा. (Those who would be free must themselves strike the blow) स्वतंत्रता के लिए स्वाधीनता चाहनेवालों को यत्न करना चाहिए. इनसान की धीरे-धीरे कुछ ऐसी आदतें हो गयी हैं कि वह अपने लिए तो अधिक अधिकार चाहता है, लेकिन जो उनके मातहत हैं उन्हें वह अपनी जूती के नीचे ही दबाये रखना चाहते हैं. कहावत है, 'लातों के भूत बातों से नहीं मानते`. अर्थात संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो. तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इनकार करने की जुर्रत न कर सकेगा. तुम दूसरों की खुराक मत बनो. दूसरों के मुंह की ओर न ताको. लेकिन ध्यान रहे, नौकरशाही के झांसे में मत फंसना. यह तुम्हारी कोई सहायता नहीं करना चाहती, बल्कि तुम्हें अपना मोहरा बनाना चाहती है. यही पूंजीवादी नौकरशाही तुम्हारी गुलामी और गरीबी का असली कारण है. इसलिए तुम उसके साथ कभी न मिलना. उसकी चालों से बचना. तब सब कुछ ठीक हो जायेगा. तुम असली सर्वहारा हो.संगठनबद्ध हो जाओ. तुम्हारी कुछ भी हानि न होगी. बस गुलामी की जंजीरें कट जायेंगी. उठो और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दो. धीरे-धीरे होनेवाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा. सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो. तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो, सोये हुए शेरो उठो और बगावत खड़ी कर दो.


फ़िल्में

बच्चों के लिए नहीं, बाज़ार के लिए बनती हैं फ़िल्में

फ़िल्म समीक्षक विनोद अनुपम बता रहे हैं कि भारत में बच्चों के लिए फ़िल्में क्यों नहीं बनायी जातीं.


ज बाल फिल्मों का स्वरूप बदल गया है. फिल्में अब कम बनने लगी हैं. इसके पीछे बहुत से कारण हैं, जिनकी वजह से बच्चे और उनकी फिल्में सिनेमा जगत से गायब होती जा रही हैं.
चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी जब बनी थी, तब उद्देश्य यह रखा गया था कि बच्चे जो देश के भविष्य होते हैं, उन्हें फिल्मों के माध्यम से आगे बढ़ाया जाये. इसमें उनके शैक्षिक उद्देश्य और नैतिकता को प्रमुखता दी गयी थी. लेकिन जिस उद्देश्य से चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी बनी, उस उद्देश्य से आज वह भटक गयी है. पहले यह सोसायटी नियमित रूप से एक साल में तीन-चार फिल्में बनाती थी, लेकिन आज इसमें काम कम और राजनीतिक गुटबाजी अधिक होने लगी है. कह सकते हैं कि पहले सरकार बच्चों के विकास को लेकर अधिक सक्रिय थी, लेकिन आज वह सक्रियता मंद पड़ गयी है.
इन बातों से ऐसा नहीं समझना चाहिए कि बाल फिल्में बननी बंद हो गयी हैं. वे अब सरकारी स्तर पर न बन कर व्यक्तिगत स्तर पर बन रही हैं. हाल ही में विशाल भारद्वाज ने बच्चों के लिए ब्लू अंब्रेला नामक बाल फिल्म बनायी है. लेकिन सरकारी और व्यक्तिगत फिल्म निर्माण में उद्देश्यों को लेकर अंतर आ जाता है. निश्चित रूप से व्यक्तिगत रूप से फिल्म बनेगी, तो उसका टारगेट बाजार ही होगा. बच्चों में कितना सामाजिक संदेश जाता है, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह हो जाता है कि इस बाल फिल्म ने मार्केट में कितना बिजनेस किया.
जहां तक हॉलीवुड और बॉलीवुड की बात करें तो बाल फिल्मों के निर्माण के कॉन्सेप्ट अलग हो जाते हैं. हॉलीवुड की फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी ही जाती है बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रख कर. वहां चिल्ड्रेन साइकोलॉजी पर काफी होमवर्क किया जाता है, तब जाकर बाल फिल्म तैयार होती है. भारत में तो ऐसी फिल्में लगभग नहीं के बराबर हैं, जो बच्चों को अपील कर सकें. बॉलीवुड की फिल्मों में मुश्किल यह है कि यहां बाल मनोविज्ञान पर होमवर्क बिलकुल नहीं किया जाता है. यहां जिस फिल्म में बच्चों को कास्ट कर लिया जाता है, उसे ही बाल फिल्मों की संज्ञा दे दी जाती है. जैसे अस्सी के दशक में एक फिल्म मासूम आयी थी, जिसे बाल फिल्म की श्रेणी में रखा गया. लेकिन मेरी नजर में वह फिल्म बड़ों के लिए थी.
आज बॉलीवुड की बाल फिल्मों में एनीमेशन फिल्मों ने अपना स्थान बना लिया है, इसके पीछे दो कारण हैं. पहला कारण है कि आज बच्चों का मूड बदल गया है. बच्चों में यह खासियत होती है कि उनकी मानसिकता बहुत चंचल होती है. वे बड़ों के समान धैर्यपूर्वक फिल्में नहीं देख सकते हैं. एनीमेशन फिल्मों में कट-टू-कट होता है और सब कुछ जल्दी-जल्दी घटित होता है. इसलिए बच्चे इसमें ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं. दूसरी बात यह है कि एनीमेशन फिल्में, जो बच्चों के लिए बन रही हैं, वे अधिकतर पौराणिक पटकथाओं पर आधारित होती हैं. जैसे बाल गणेश हो या हनुमान, ऐसी फिल्मों पर निर्माताओं को बाल मनोविज्ञान पर होमवर्क नहीं करना पड़ता है और फिल्म आसानी से बन जाती है. सबसे बड़ी बात है कि बाल फिल्मों का निर्माण बच्चों को ध्यान में रख कर नहीं बाजार को ध्यान में रख कर किया जा रहा है.
आज बाल फिल्मों के अभाव में बच्चे बड़ों की फिल्में देख रहे हैं. जैसे अधिकतर बच्चों की मनपसंद फिल्म कृष या धूम है. इसलिए जरूरी है कि बच्चों के लिए बाल मनोविज्ञान पर और बच्चों को ही कास्ट करके फिल्में बनायी जायें. बच्चों के बदलते मूड को ध्यान में रखते हुए भारतीय सिनेमा जगत को बाल मनोविज्ञान पर होमवर्क करने की जरूरत है, जिसके लिए यह तैयार नहीं दिखता है

इरोम शर्मिला की कहानी

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‘यह उन सब मांओं के दूध का कर्ज चुका रही है’

इरोम शर्मिला असीम हिंसा का उत्तर असीम शांति से दे रही है. अगर उसकी कहानी हमें रुककर कुछ सोचने को मजबूर नहीं करती तो हम इतने पत्थरदिल हो चुके हैं कि हमें अब कोई चीज नहीं पिघला सकेगी. शोमा चौधरी की रिपोर्ट

कभी-कभी हमें अपने जिद्दी और अड़ियल वर्तमान को ठीक से जानने के लिए अतीत में लौटना पड़ता है. इसलिए पहले एक फ्लैशबैक.

वह कोई बड़ा राजनीतिक आंदोलन नहीं चला रही और अगर आप करिश्माई भाषणों और जोशीले नायकत्व की उम्मीद कर रहे हैं तो लेटी हुई यह शांत महिला आपको निराश ही करेगी

यह 2006 है. नवंबर में दिल्ली की एक आम-सी शाम. तभी एक रुक-रुककर आती धीमी आवाज आपकी चेतना को चीरती हुई चली जाती है. ‘मैं कैसे समझाऊं? यह सजा नहीं, मेरा कर्तव्य है.. अपने दर्द के कारण धीमी मगर फिर भी अपनी नैतिकता में डूबी हुई ऐसी जादुई आवाज और ऐसे शब्द, जिन्हें आप कभी नहीं भूल सकते. ‘मेरा कर्तव्य.’ आर्थिक प्रगति के उत्साह में गले तक डूबे भारत में ‘कर्तव्य’ का भला क्या मतलब होगा? आप कहीं दूर चले जाना चाहते हैं. आप व्यस्त हैं और उस आवाज में हिंसा का कोई संकेत भी नहीं है. लेकिन तभी एक चित्र बनने लगता है. अस्पताल के एक बिस्तर पर गोरे रंग की एक कमजोर औरत, बिखरे हुए काले बालोंवाला सिर, नाक में प्लास्टिक की एक ट्यूब, दुबले और साफ हाथ, दृढ़ और बादामी आंखें और रुक-रुक कर आती, कांपती आवाज, जो कर्तव्य की बात करती है.

उसी क्षण इरोम शर्मिला की पूरी कहानी रिसना शुरू होती है. आप किसी ऐतिहासिक इनसान के आस-पास हैं. ऐसा कोई, जिसका राजनीतिक विरोधों के इतिहास में पूरी दुनिया में कोई सानी नहीं है. फिर भी आप उसे भूल गए हैं. आपके पास सैकड़ों टीवी चैनल और मीडिया का अपूर्व गौरवशाली दौर है, मगर फिर भी आप उसे भूल गए हैं. 2006 में इरोम शर्मिला ने पिछले छह साल से न ही कुछ खाया था और न ही पानी की एक बूंद तक पी थी. भारत सरकार उसकी नाक में एक ड्रिप लगाकर उसे जबर्दस्ती जीवित रख रही थी. छह साल से कोई ठोस पदार्थ उसके शरीर में नहीं गया था और पानी की एक भी बूंद ने उसके होठों को नहीं छुआ था. उसने बालों में कंघी करना तक बन्द कर रखा था. वह अपने दांतों को रुई से और होंठों को सूखी स्पिरिट से साफ करती थी, जिससे उसका उपवास न टूटे. उसका शरीर अंदर से खत्म होता जा रहा था. उसके मासिक चक्र बंद हो गए थे, परंतु उसका संकल्प नहीं टूटा था. जब भी उसका बस चलता था, वह नाक से ट्यूब निकाल फेंकती थी. वह कहती थी कि अपनी आवाज को ‘उचित और शांत ढंग’ से सुनाने के लिए यही उसका नैतिक कर्तव्य है.

फिर भी भारत सरकार और भारत के लोग उसके प्रति बेपरवाह थे. वह तीन साल पहले था. बीते साल 5 नवंबर को इरोम शर्मिला ने अपने इस अभूतपूर्व उपवास के दसवें साल में प्रवेश किया, जो मणिपुर और अधिकांश पूर्वोत्तर पर 1980 से थोपे गए अफ्स्पा (सशस्त्न बल विशेष अधिकार अधिनियम) के विरोध में था. सिर्फ इस संदेह के आधार पर कि कोई व्यक्ति अपराध करने वाला है या कर चुका है, यह एक्ट सेना को बलप्रयोग, गिरफ्तारी और गोली मारने तक की छूट देता है. यह एक्ट सेना के किसी भी व्यक्ति के विरु द्ध केंद्र सरकार की अनुमति के बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया की अनुमति भी नहीं देता.

शब्दों में क्रूर दिखनेवाला यह कानून इरादों में और भी क्रूर है. आधिकारिक तौर पर इसके लागू किए जाने के बाद से सुरक्षा बलों ने मणिपुर में हजारों लोग मारे हैं. (2009 में ही सरकारी आंकड़ों में यह संख्या 265 है, जो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मुताबिक 300 से ऊपर है, जिसका अर्थ है- प्रतिदिन एक या दो ग़ैर कानूनी हत्याएं) विद्रोही संगठनों पर लगाम कसने के बजाय इस एक्ट ने आम आदमी में उबलता हुआ आक्रोश ही पैदा किया है और उससे नए उग्रवादी पनपे हैं. 1980 में जब यह कानून लागू हुआ, मणिपुर में केवल 4 विद्रोही संगठन थे. आज उनकी संख्या 40 है और मणिपुर मौत की घाटी जैसा बन गया है, जहां बेतहाशा भ्रष्टाचार है और उसके दस्ताने के अंदर पुलिस, उग्रवादियों और राजनीतिज्ञों के हाथ एक साथ हैं और निर्दोष नागरिक उस दस्ताने की गिरफ्त में हैं.

डाक्टर आपको बताएंगे कि शर्मिला का उपवास एक चमत्कार है. उसकी स्थिति का अनुमान लगाना ही आपको डरा देता है. लेकिन शर्मिला कभी किसी शारीरिक कष्ट की बात स्वीकार नहीं करती

कुछ साल पहले एक सीडी सभ्य समाज के गलियारों तक पहुंची. इसमें सेना की अपमानजनक क्रूरता और जनता के रोष की फुटेज थीं. छोटे बच्चों, छात्रों, कामकाजी वर्ग की औरतों की तसवीरें थीं, जो सड़कों पर आ गए थे और आंसू गैस या गोलियों का निशाना बन रहे थे. ऐसी तसवीरें थीं, जिनमें आदमियों को नीचे जमीन पर लिटा दिया गया था और फौज उनके सिरों से बस कुछ इंच ऊपर गोलियां दाग रही थी. हर गुजरते दिन के साथ आते किस्से ग़ुस्सा बढ़ाते जा रहे थे. लड़के गायब हो रहे थे, औरतों के साथ बलात्कार किए जा रहे थे. मनुष्य की सबसे जरूरी चीज, उसके आत्मसम्मान को छील-छील कर उतारा जा रहा था.

युवा इरोम शर्मिला के लिए ये सब चीजें 2 नवंबर, 2000 को स्पष्ट हुईं. एक दिन पहले एक विद्रोही संगठन ने असम राइफल्स के एक दस्ते पर बम फेंका था, क्रोधित बटालियन ने मालोम बस स्टैंड पर दस बेकसूर लोगों को मार डाला. उन शवों की दिल दहला देनेवाली तसवीरें अगले दिन के स्थानीय अखबारों में छपीं, जिनमें एक 62 साल की औरत लिसेंगबम इबेतोमी और 18 साल की सिनम चंद्रमणि भी थी, जो 1988 में राष्ट्रपति से वीरता पुरस्कार ले चुकी थी. असामान्य रूप से बेचैन 28 साल की शर्मिला ने 4 नवंबर को अपना सत्याग्रह शुरू किया.

तीन साल पहले की नवंबर की उस सर्द शाम में हॉस्पिटल के एक बर्फ से सफेद गलियारे में पसर कर बैठे हुए शर्मिला के 48 वर्षीय भाई सिंहजीत ने कुछ हंस कर कहा था, ‘हम यहां कैसे पहुंचे?’ उस उदास प्रश्न की अनुगूंज में ही शर्मिला और उनके अद्भुत सफर की कहानी छिपी थी. उस कहानी के बड़े हिस्से को अपने अंदर झांक कर जानने की जरूरत है. ऐसा तनाव, तीव्रता और लगभग असंभव कल्पना का काम इतनी आसानी से नहीं दिखता. यह इंफाल की एक सुदूर झोंपड़ी में शुरू हुआ. राजधानी और राज्य की सारी शक्तियां उनके विरुद्ध लामबंद हो गईं. अस्पताल के उसके छोटे-से कमरे में उसके साथ बंद नर्स थी और बाहर भाई था, जिसके पास कपड़ों के अलावा कुछ भी नहीं था और जो न हिंदी बोल पाता था, न अंग्रेजी. दरवाजे पर तैनात पुलिसवाले भी थे.

‘मेंघाओबी’ अर्थात गोरी लड़की, जिस नाम से मणिपुर के लोग उसे पुकारते हैं, इंफाल के पशु चिकित्सालय में काम करनेवाले एक अनपढ़ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की सबसे छोटी बेटी थी. वह हमेशा से अकेले रहना पसंद करती थी, क्लास में सबसे पीछे बैठती थी और अच्छी श्रोता थी. उससे बड़े आठ भाई-बहन और थे. जब उसका जन्म हुआ, उसकी 44 वर्षीया मां इरोम सखी का दूध सूख चुका था. जब शाम ढलती थी और मणिपुर अंधेरे में डूबने लगता था, शर्मिला रोना शुरू कर देती थी. उसके सामने से हटने के लिए मां को पास की किराने की दुकान पर जाना पड़ता था, ताकि सिंहजीत अपनी छोटी बहन को गोद में लेकर पड़ोस की किसी मां के पास दूध पिलाने ले जा सके. ‘इसकी इच्छाशक्ति हमेशा से असाधारण रही है. शायद इसीलिए वह सबसे अलग भी है,’ सिंहजीत कहते हैं, ‘शायद इस तरह यह उन सब मांओं के दूध का कर्ज चुका रही है.’ बगल में बैठे इस समझदार गंवई व्यक्ति की कहानी में एक तीखा-सा दर्द था- इस जंग को अपनी अदृश्य सांसें देता हुआ वफादार योद्धा, एक अधेड़ भाई, जिसने बाहर दरवाजे पर रह कर बहन की देखभाल करने के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी, वह आदमी जो बुनाई से प्रतिदिन 120 रू कमानेवाली अपनी पत्नी पर निर्भर है, ताकि वह दृढ़ता से अपनी बहन के साथ खड़ा रह सके.

डेढ़ महीने पहले वह अपने दो साथियों बबलू लोइतेंगबम और कांग्लेपाल की मदद से शर्मिला को किसी तरह मणिपुर से बाहर निकाल लाने में सफल हो गया था. पिछले छह साल से वह पुलिस की निगरानी में इंफाल के जेएन हास्पिटल के एक छोटे-से कमरे में बंद थी. जब भी उसे रिहा किया जाता, वह अपनी नाक से ट्यूब निकाल फेंकती और अपना अनशन जारी रखती. तीन दिन बाद मरणासन्न हालत में उसे ‘आत्महत्या के प्रयास के आरोप में फिर से गिरफ्तार कर लिया जाता और यह सिलसिला बार- बार दोहराया जाता. मगर मणिपुर में अनशन, गिरफ्तारी और उस ट्यूब के छह साल थोड़ा काम ही कर पाए थे. लड़ाई को दिल्ली में लाना ही था. 3 अक्तूबर, 2006 को दिल्ली पहुंच कर दोनों भाई-बहनों ने भारतीय लोकतंत्र की आशाओं से भरी वेदी जंतर-मंतर पर डेरा डाला. मीडिया को उनमें कोई रुचि नहीं थी. फिर एक रात पुलिस ने आकर उसे आत्महत्या के प्रयास के आरोप में गिरफ्तार कर लिया और उसे एम्स में फेंक दिया गया. उसने प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और गृहमंत्री को तीन भावुक चिट्ठियां लिखीं, लेकिन कोई जवाब नहीं आया. यदि उसने यह करने के बजाय किसी विमान का अपहरण कर लिया होता तो शायद उसकी बात कुछ जल्दी सुनी जाती.

यह सच है कि आज मणिपुर टूटा हुआ और हिंसक समाज है. मगर उसका हल दृढ़ और प्रेरक नेतृत्व में ही खोजा जा सकता है, जिसे निभाने की जिम्मेदारी अब सरकार की है. बाकी दर्शन छोड़कर नैतिकता का कानून लागू कीजिए. बाकी सब अपने आप सुलझ जाएगा

सिंहजीत ने उस हास्पिटल के गलियारे में कहा था, ‘हम अपनी लड़ाई के बीच में हैं. परेशानियां तो आएंगी ही मगर फिर भी हम आखिर तक लड़ेंगे, चाहे इसमें मेरी बहन की जान ही क्यों न चली जाये. लेकिन अगर उसने यह अनशन शुरू करने से पहले मुझे बता दिया होता तो मैं उसे खुद के साथ यह कभी न करने देता. पहले हमें बहुत सारी चीजें सीखनी चाहिए थीं. बात कैसे करनी है, समझौता कैसे करना है, पर हमें कुछ भी नहीं पता था. हम गरीब थे और कुछ भी नहीं जानते थे.’ लेकिन एक तरह से देखा जाए तो शर्मिला की कहानी की विनम्र कर देनेवाली शक्ति का मूल उसकी उसी बिना मार्गदर्शनवाली शुरुआत में है. वह कोई बड़ा राजनीतिक आंदोलन नहीं चला रही और अगर आप करिश्माई भाषणों और जोशीले नायकत्व की उम्मीद कर रहे हैं तो लेटी हुई यह शांत महिला आपको निराश ही करेगी. उस 34 वर्षीया स्त्री का सत्याग्रह कोई वैचारिक उपज नहीं था. अपने आस-पास मृत्यु और हिंसा के चक्र की प्रतिक्रिया में यह उसका नितांत मानवीय उत्तर था, अंदर से एक आध्यात्मिक संदेश जैसा.

शर्मिला ने अपनी कांपती लेकिन स्पष्ट आवाज में कहा था, ‘पहले पन्ने पर मालोम के शव को देख कर मैं स्तब्ध थी. मैं एक शांति रैली में हिस्सा लेने जानेवाली थी, मगर मुझे लगा कि इस तरह सेना की हिंसा नहीं रोकी जा सकती. इसलिए मैंने अनशन पर बैठने का निश्चय किया.’ 4 नवंबर, 2000 को शर्मिला की मां सखी ने उसे आशीर्वाद दिया था, ‘तुम अपनी मंजिल पाओगी’ और फिर वे तटस्थ भाव से पलट कर चली गई थीं.

उसके बाद चाहे शर्मिला इंफाल में अपनी मां से पैदल पहुंचने की दूरी पर ही कैद थी, वे कभी नहीं मिलीं. दिल्ली की एक फिल्म-निर्मात्री कविता जोशी द्वारा बनाई गई एक फिल्म में सखी रोते हुए कहती हैं, ‘क्या फायदा है? मेरा दिल बहुत कमजोर है. मैं उसे देखते ही रो पड़ूंगी. इसीलिए मैंने तय किया है कि जब तक उसकी बातें नहीं मानी जातीं, मैं उससे नहीं मिलूंगी, क्योंकि इससे उसका संकल्प कमजोर पड़ जाएगा. हमें खाना नहीं मिलता तो हम किस तरह बिस्तर पर करवटें बदलते रहते हैं और सो भी नहीं पाते. वे जो थोड़ा-सा द्रव उसके शरीर में डालते हैं, वह उसके सहारे किस तरह अपने दिन और रातें बिताती होगी. अगर पांच दिन के लिए भी यह कानून हटा लिया जाए तो मैं अपने हाथों से उसे एक-एक चम्मच करके चावल खिलाऊंगी. उसके बाद वह मर भी जाती है, तो भी हमें संतुष्टि रहेगी कि मेरी शर्मिला की इच्छा पूरी हुई.’

शर्मिला के लिए यह साहसी, निरक्षर औरत ही भगवान है. यही वह मंदिर है, जिससे शर्मिला को शक्ति मिलती है. यह पूछने पर कि मां से न मिल पाना उसके लिए कितना कष्टकारक है, वह उत्तर देती है, ‘ज्यादा नहीं’, और थोड़ा रुकती है, ‘क्योंकि... मुझे नहीं पता कि मैं यह कैसे समझाऊं. पर हम सब यहां एक खास काम करने आए हैं और उसके लिए हम अकेले ही यहां आए हैं.’ अपने शरीर और दिमाग में संतुलन बनाए रखने के लिए वह दिन में चार-पांच घंटे योग करती है, जो उसने खुद से ही सीखा है. डाक्टर आपको बताएंगे कि शर्मिला का उपवास एक चमत्कार है. उसकी स्थिति का अनुमान लगाना ही आपको डरा देता है. लेकिन शर्मिला कभी किसी शारीरिक कष्ट की बात स्वीकार नहीं करती. वह मुस्कुरा कर कहती है, ‘मैं ठीक हूं, मैं ठीक हूं. मैं अपने ऊपर कोई अत्याचार नहीं कर रही. यह सजा नहीं है, यह तो मेरा फर्ज है. मुझे नहीं पता कि भविष्य में मेरे साथ क्या होनेवाला है. वह तो ईश्वर की मर्जी है. मैंने अपने अनुभव से यही सीखा है कि नियमितता, अनुशासन और बहुत सारे उत्साह के साथ आप कुछ भी पा सकते हैं.’ आप इन बातों को सुनी-सुनाई नीरस बातें कहकर खारिज कर सकते हैं, लेकिन जब वह बोल रही होती है तो यही बातें नायकत्व का चोला पहन लेती हैं.

उसके बाद तीन साल से कुछ नहीं बदला है. दिल्ली आने का भी कोई फायदा नहीं हुआ. अपने उपवास के दसवें साल में भी वह इंफाल हास्पिटल के एक गंदे से कमरे में किसी अदने अपराधी की तरह बंद है. यद्यपि इसका कोई कानूनी आधार नहीं है, फिर भी कभी-कभी अपने भाई के अलावा उसे किसी से भी मिलने की इजाजत नहीं है. यहां तक कि कुछ महीने पहले महाश्वेता देवी को भी उससे मिलने नहीं दिया गया. वह किसी के साथ और गांधी और मंडेला की जीवनियों लिए तरसती रहती है. उसका भाईचारे का भ्रम तथा महान और लगभग अमानवीय आशा का खजाना कभी उसका साथ नहीं छोड़ता.

लेकिन भाई की हताशा उतनी ही प्रबल है. शर्मिला के इस ऐतिहासिक सत्याग्रह की कद्र करने में देश की असफलता उस बेकद्री की एक झलक दिखाती है, जिसके चलते पूरा उत्तर-पूर्व नष्ट हो रहा है. जब 32 साल की मनोरमा देवी को पीपुल्स लिबरेशन आर्मी से संबंध रखने के आरोप में असम राइफल्स ने गिरफ्तार किया, तब अफ्स्पा के विरुद्ध शर्मिला के अनशन को चार साल हो चुके थे. एक दिन बाद इंफाल में मनोरमा का शव मिला था, जिस पर यातना और बलात्कार के भयानक निशान थे. मणिपुर उबल पड़ा था. पांच दिन बाद, 15 जुलाई, 2004 को मानवीय अभिव्यक्ति की सब सीमाएं लांघते हुए 30 आम महिलाओं ने असम राइफल्स के मुख्यालय कांग्ला फोर्ट पर नग्न होकर प्रदर्शन किया था. जो बुरा होना बचा था, उसे पूरा करती आम मांएं और दादियां चिल्ला रही थीं, ‘भारतीय सेना, हमारा बलात्कार करो.’ उन सबको तीन महीने के लिए जेल के अंदर डाल दिया गया.

उसके बाद सरकार द्वारा गठित किए गए हर आयोग ने घावों को बढ़ाने का काम ही किया है. मनोरमा हत्याकांड के बाद गठित किए गए जस्टिस उपेंद्र आयोग की रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं की गई. नवंबर, 2004 में प्रधानमंत्नी मनमोहन सिंह ने अफ्स्पा की समीक्षा के लिए जस्टिस जीवन रेड्डी समिति गठित की. उस समिति ने अफ्स्पा को खत्म करने की सिफारिश की और साथ ही उसकी सबसे क्रूर शक्तियों को ग़ैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) एक्ट में स्थानांतरित करने की सलाह दी. इस निष्कर्ष पर हर आधिकारिक प्रतिक्रिया इसे ग़लत ही ठहराती है. तब के रक्षा मंत्नी प्रणब मुखर्जी ने अफ्स्पा को वापस लेने या उसकी शक्तियों को कम करने की बात इस आधार पर खरिज कर दी थी कि ‘अशांत इलाकों’ में ऐसी शक्तियों के बिना सेना ठीक से काम नहीं कर सकती.

रोचक बात यह है कि शर्मिला के मुद्दे को रोशनी में आने के लिए शांति के लिए नोबल पुरस्कार विजेता, ईरान की शिरीन एबादी की 2006 की भारत यात्ना का इंतजार करना पड़ा. पत्रकारों के बीच वे उबलते हुए बोली थीं, ‘यदि शर्मिला मरती है तो संसद इसकी सीधे तौर पर जिम्मेदार है. वह मरती है तो कार्यपालिका, प्रधानमंत्नी और राष्ट्रपति भी जिम्मेदार हैं, क्योंकि उन्होंने कुछ नहीं किया...अगर वह मरती है तो आप सब पत्रकार भी जिम्मेदार हैं, क्योंकि आपने अपना फर्ज नहीं निभाया...’

फिर भी पिछले तीन साल में कुछ नहीं बदला है. ‘मनोरमा मदर्स’ के असीमित आक्रोश के बाद इंफाल के कुछ जिलों से अफ्स्पा हटाया गया, लेकिन वायरस ने अपनी जगह बदल ली. जहां आर्मी ने छोड़ा, वहां मणिपुर पुलिस के कमांडो आ गए. अफ्स्पा के अत्याचार शासन की संस्कृति में ही घुल गए हैं. इसे आप ‘दंडविहीन संस्कृति’ भी कह सकते हैं, जहां मानवाधिकारों के हनन पर कोई सजा नहीं है. इस साल 23 जुलाई को एक पूर्व विद्रोही नवयुवक संजीत को पुलिस ने इंफाल के व्यस्ततम बाजार में भीड़ के सामने दिन-दहाड़े गोली मार दी. पास खड़ी एक निर्दोष महिला राबिना देवी, जिसे पांच महीने का गर्भ था, के सिर में भी एक गोली लगी और वह भी वहीं मारी गई. उसके साथ उसका दो साल का बेटा रसेल भी था. कई लोग घायल हुए. इस पूरे हत्याकांड की तसवीरें लेनेवाले अज्ञात फोटोग्राफर के लिए ये महज संख्याएं बनकर रह जातीं: पिछले साल हुई 265 हत्याओं में से सिर्फ दो, मगर इस बार तहलका में छपी ये तसवीरें सबूत थीं. मणिपुर फिर से उबल पड़ा.

चार महीने बाद भी लोगों का गुस्सा ठंडा नहीं हुआ. लोगों की भावनाओं से बेपरवाह मुख्यमंत्नी इबोबी सिंह ने पहले तो बेशर्मी से बच निकलने की कोशिश की. संजित की हत्या के दिन उन्होंने विधानसभा में दावा किया कि उनकी पुलिस ने मुठभेड़ में एक उग्रवादी मारा है. बाद में तहलका के आलेख के सामने आने पर वे बोले कि उन्हें उनके अधिकारियों ने गुमराह किया है और अब वे न्यायिक जांच करवाने के लिए मजबूर थे. हालांकि मुख्यमंत्री और मणिपुर के डीजीपी जॉय कुमार, दोनों तहलका पर घटना को तोड़ने-मरोड़ने का आरोप लगाते हैं.

अब भी थोड़ी-सी उम्मीद बाकी है. पिछले कुछ महीनों में राज्य में विरोध बढ़ा है और दर्जनों सामाजिक अधिकार कार्यकर्ताओं को निरंकुश राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत बहुत ओछे ढंग से गिरफ्तार किया गया है. इनमें एक प्रतिष्ठित पर्यावरण कार्यकर्ता जितेन युमनाम भी थे. 23 नवंबर को एक स्वतंत्न ‘सिटिजंस फैक्ट फाइंडिंग टीम’ ने ‘लोकतंत्र से मुठभेड़: मणिपुर में अधिकारों का हनन’ नाम की रिपोर्ट जारी की और गृह मंत्रालय को एक प्रेजेंटेशन दी. एक दिन बाद गृह सचिव गोपाल पिल्लै ने भूतपूर्व आइपीएस अधिकारी और फैक्ट फाइंडिंग टीम के सदस्य के.एस. सुब्रह्मण्यम को बताया कि मंत्रालय ने जितेन और दस अन्य लोगों का रासुका के तहत कारावास रद्द कर दिया है. एक और छोटी-सी आशा का संकेत यह है कि तहलका से एक साक्षात्कार में गृहमंत्नी पी चिदंबरम ने अफ्स्पा को अधिक मानवीय और जवाबदेह बनाने के लिए कुछ सुधारों की सिफारिश किए जाने के बारे में कहा है. इन सुधारों को अभी कैबिनेट का मंजूरी का इंतजार है.

उलझी हुई इस दुनिया में अक्सर किसी समस्या का समाधान एक अटल और प्रेरणादायक नेतृत्व में मिलता है. ऐसा नेतृत्व, जो अपने सामने आते प्रश्नों की नैतिकता को जगा सके और बिना किसी शर्त के उसे सही दिशा में सोचने को प्रेरित कर सके. शर्मिला का महान सत्याग्रह भी ऐसा ही एक नेतृत्व है. यह एक सच्चे और सभ्य समाज के विचार को फिर से आधार देता है. यह मृत्युपरक और संवेदनहीन क्रूरता के चेहरे पर क्रूरता का तमाचा मारने से इनकार कर देता है. उसकी याचना सीधी-सी है-सशस्त्न बल विशेष अधिकार अधिनियम को वापस लिया जाए. यह भारतीय गणराज्य के उस विचार में तो कहीं नहीं था, जिसे इसके संस्थापकों ने हमें वसीयत में दिया है. यह अमानवीय है.

यह सच है कि आज मणिपुर टूटा हुआ और हिंसक समाज है. मगर उसका हल दृढ़ और प्रेरक नेतृत्व में ही खोजा जा सकता है, जिसे निभाने की जिम्मेदारी अब सरकार की है. बाकी दर्शन छोड़कर नैतिकता का कानून लागू कीजिए. बाकी सब अपने आप सुलझ जाएगा. लेकिन दुर्भाग्यवश, जब हम हिंसा की भयानक तारीख 26/11 की बरसी मनाना याद रखते हैं, हम उस औरत को भूल जाते हैं, जिसने असीम हिंसा का उत्तर असीम शांति से दिया.

यह हमारे समय का एक दृष्टांत है. यदि हमें रुक कर कुछ सोचने पर मजबूर नहीं करती तो कोई भी चीज ऐसा नहीं कर सकेगी. यह असाधारण होने की कहानी है. असाधारण इच्छाशक्ति, असाधारण सादगी और असाधारण उम्मीदों की. सूचनाओं से भरे हुए इस व्यस्त समय में अपनी बात किसी को सुनवाना असंभव ही है, मगर यदि इरोम शर्मिला की कहानी सुन कर हम नहीं ठिठकते तो हम कभी नहीं ठिठकेंगे.’