Sunday, January 17, 2010

फ़िल्में

बच्चों के लिए नहीं, बाज़ार के लिए बनती हैं फ़िल्में

फ़िल्म समीक्षक विनोद अनुपम बता रहे हैं कि भारत में बच्चों के लिए फ़िल्में क्यों नहीं बनायी जातीं.


ज बाल फिल्मों का स्वरूप बदल गया है. फिल्में अब कम बनने लगी हैं. इसके पीछे बहुत से कारण हैं, जिनकी वजह से बच्चे और उनकी फिल्में सिनेमा जगत से गायब होती जा रही हैं.
चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी जब बनी थी, तब उद्देश्य यह रखा गया था कि बच्चे जो देश के भविष्य होते हैं, उन्हें फिल्मों के माध्यम से आगे बढ़ाया जाये. इसमें उनके शैक्षिक उद्देश्य और नैतिकता को प्रमुखता दी गयी थी. लेकिन जिस उद्देश्य से चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी बनी, उस उद्देश्य से आज वह भटक गयी है. पहले यह सोसायटी नियमित रूप से एक साल में तीन-चार फिल्में बनाती थी, लेकिन आज इसमें काम कम और राजनीतिक गुटबाजी अधिक होने लगी है. कह सकते हैं कि पहले सरकार बच्चों के विकास को लेकर अधिक सक्रिय थी, लेकिन आज वह सक्रियता मंद पड़ गयी है.
इन बातों से ऐसा नहीं समझना चाहिए कि बाल फिल्में बननी बंद हो गयी हैं. वे अब सरकारी स्तर पर न बन कर व्यक्तिगत स्तर पर बन रही हैं. हाल ही में विशाल भारद्वाज ने बच्चों के लिए ब्लू अंब्रेला नामक बाल फिल्म बनायी है. लेकिन सरकारी और व्यक्तिगत फिल्म निर्माण में उद्देश्यों को लेकर अंतर आ जाता है. निश्चित रूप से व्यक्तिगत रूप से फिल्म बनेगी, तो उसका टारगेट बाजार ही होगा. बच्चों में कितना सामाजिक संदेश जाता है, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह हो जाता है कि इस बाल फिल्म ने मार्केट में कितना बिजनेस किया.
जहां तक हॉलीवुड और बॉलीवुड की बात करें तो बाल फिल्मों के निर्माण के कॉन्सेप्ट अलग हो जाते हैं. हॉलीवुड की फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी ही जाती है बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रख कर. वहां चिल्ड्रेन साइकोलॉजी पर काफी होमवर्क किया जाता है, तब जाकर बाल फिल्म तैयार होती है. भारत में तो ऐसी फिल्में लगभग नहीं के बराबर हैं, जो बच्चों को अपील कर सकें. बॉलीवुड की फिल्मों में मुश्किल यह है कि यहां बाल मनोविज्ञान पर होमवर्क बिलकुल नहीं किया जाता है. यहां जिस फिल्म में बच्चों को कास्ट कर लिया जाता है, उसे ही बाल फिल्मों की संज्ञा दे दी जाती है. जैसे अस्सी के दशक में एक फिल्म मासूम आयी थी, जिसे बाल फिल्म की श्रेणी में रखा गया. लेकिन मेरी नजर में वह फिल्म बड़ों के लिए थी.
आज बॉलीवुड की बाल फिल्मों में एनीमेशन फिल्मों ने अपना स्थान बना लिया है, इसके पीछे दो कारण हैं. पहला कारण है कि आज बच्चों का मूड बदल गया है. बच्चों में यह खासियत होती है कि उनकी मानसिकता बहुत चंचल होती है. वे बड़ों के समान धैर्यपूर्वक फिल्में नहीं देख सकते हैं. एनीमेशन फिल्मों में कट-टू-कट होता है और सब कुछ जल्दी-जल्दी घटित होता है. इसलिए बच्चे इसमें ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं. दूसरी बात यह है कि एनीमेशन फिल्में, जो बच्चों के लिए बन रही हैं, वे अधिकतर पौराणिक पटकथाओं पर आधारित होती हैं. जैसे बाल गणेश हो या हनुमान, ऐसी फिल्मों पर निर्माताओं को बाल मनोविज्ञान पर होमवर्क नहीं करना पड़ता है और फिल्म आसानी से बन जाती है. सबसे बड़ी बात है कि बाल फिल्मों का निर्माण बच्चों को ध्यान में रख कर नहीं बाजार को ध्यान में रख कर किया जा रहा है.
आज बाल फिल्मों के अभाव में बच्चे बड़ों की फिल्में देख रहे हैं. जैसे अधिकतर बच्चों की मनपसंद फिल्म कृष या धूम है. इसलिए जरूरी है कि बच्चों के लिए बाल मनोविज्ञान पर और बच्चों को ही कास्ट करके फिल्में बनायी जायें. बच्चों के बदलते मूड को ध्यान में रखते हुए भारतीय सिनेमा जगत को बाल मनोविज्ञान पर होमवर्क करने की जरूरत है, जिसके लिए यह तैयार नहीं दिखता है

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