Wednesday, November 04, 2009

कुम्हारिया न्यूक्लियर पावर प्लांट

कुम्हारिया न्यूक्लियर पावर प्लांट

भारत - अमेरिका परमाणु डील पर एक साल पहले हस्ताक्षर होने के साथ ही हरियाणा मंे 2800 मेगावाट के न्यूक्लियर पावर प्लांट लगने का रास्ता साफ हो गया था। लेकिन 26 सितंबर को इस प्लांट के प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री के हस्ताक्षर करके इसे पूर्ण तौर पर मंजूरी दे दी और लोगों का बचा संशय भी समाप्त हो गया। लेकिन इसके साथ ही लोगों में शुरू हो गई भययुक्त, और रहस्मयी चर्चा। जिसमें भय है घर उजड़ने का, स्वास्थ्य का और उन अनजान-अनगिनत समस्याओं का जो प्लांट के साथ ही उनकी जिन्दगी में आने वाली हैं। इसका एक मुख्य कारण ये भी है कि जब कोई परियोजना या कानून आता है कभी भी उसमें पारदर्षिता नहीं रखी जाती, लोगों को उसके दांव-पेच नहीं बताए जाते। परियोजनाओं के नाम पर लोगों को अन्धेरे में रखकर उनके प्राकृतिक संसाधनों जल,जंगल,जमीन की लूट की साजिश बड़ी कंपनियों के हित में रची जाती है। ऐसी ही अनेको साजिशें विकास का नाम देकर सेज ;विषेश आर्थिक जोन , पावर प्लांट व अन्य उद्योगों के लिए रची जा रही हैं। इनमंे से ही एक है ‘कुम्हारिया न्यूक्लियर पावर प्लांट’। 1000 हैक्टेयर भूमि के इस प्लांट का प्रस्ताव 25 साल पहले 1984 में ज्य सरकार द्वारा केन्द्र सरकार को भेजा गया था। उसके बाद यहां 2001 व 2007 में दो सर्वेक्षण हुए। अब यह प्लांट 12000 करोड़ 120 अरब से लगाया जाना है। इस प्लांट को दो चरणो में लगाने की योजना है । प्रथम चरण में 1400 मेगावाट की दो इकाईयां लगाई जाएंगी। परमाणु उर्जा निगम के प्रबंधक निर्देषक को भेजे पत्र के हवाले से इसमें यूरेनियम और प्रेशराइज्द हेवी वाटर रिएक्टर तकनीक का प्रयोग होगा। यानि यह प्लांट पूर्णतः पानी के प्रैशर पर ही काम करेगा।

सुनील कुमार

कुम्हारिया न्यूक्लियर पॉवर प्लांट

लोगों ने किया संघर्ष का ऐलान
गोरखपुर-कुम्हारिया और काजलहेड़ी के लोगों ने प्लांट के लिए जमीन न देने का फैसला किया है। परियोजना की घोशणा के बाद से ही लोग किसी न किसी रूप में इसका विरोध करते रहे हैं। सबसे पहले लोगों ने फतेहाबाद के जिला उपायुक्त को ज्ञापन सौंपकर अपना विरोध जताया। उसके बावजूद 19 अप्रैल गेहूं कटाई का सीजन होने के बावजूद लोगों ने बड़े पैमाने इकट्ठे होकर लगातार तीन घण्टे पर पूरे मामले पर चर्चा की और एक कमेटी का गठन किया। इस कार्यक्रम में लोगों के बीच दिल्ली से पीयूष पन्त नामक वक्ता ने अपनी बातचीत रखी और युरेनियम व रेडियोएक्टिव किरणों ;रेडियेषनद्ध के प्रभाव के बारे में विस्तृत रूप से बताया । 26 नवम्बर को परमाणु उर्जा प्लांट को प्रधानमंत्री की मंजूरी आते ही लोगों ने अपनी सक्रियता दिखाते हुए एक लिखित अपील के माध्यम से करीब 500 से ज्यादा लोगों ने राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को भेजकर अपना विरोध दर्ज किया। गावं के ही एक किसान दाना राम ने कहा कि वे जमीन सग्बन्धी किसी भी नोटिस को स्वीकार नहीं करेंगे और किसी कीमत पर भी इस मामले में सरकार को सहयोग नहीं करेंगे।

रतनगिरी में भी पड़ी एक ओर सिंगूर की नींव

रतनगिरी में भी पड़ी एक ओर सिंगूर की नींव
लोगों का न्यूक्लियर पावर प्लांट पर विरोध
‘‘हे भगवान! हमारी प्रार्थना स्वीकार करो और हमारे जीवित रहने के साधनों को बचाओ। हम यह परियोजना नहीं चाहते, कृप्या इये यहां से दूर ले जाओ।’’ इन षब्दों के साथ हिन्दुस्तान टाईम्स अंग्रेजी अखबार में छपी एक विषेश रिपोर्ट लोगों के विरोध की ही कहानी है । अखबार के अनुसार 2000 गांव वालों ने कुछ ऐसी प्रार्थना वहां के एक मन्दिर में भगवान से की। यह परमाणु प्लांट परियोजना रतनगिरि जिले के जैयतपुर गांव से 8 कि.मी. दूर लगने का प्रस्ताव है। सरकार द्वारा भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के बाद कुम्हरिया हरियाणा समेत ऐसे सात न्यूक्लियर प्लांट लगाए जाने की योजना है। वहां का अन्जनेष्वर मन्दिर एक मिटींग ग्राउण्ड में बदल गया है । जहां लोग वर्ग-जाति और धर्म को भूलकर एकसांझी समस्या के लिए इकटठा होते हैं। यहां लगभग 938 हैक्टेयर भूमि लगभग 5 गावों से अधिग्रहित की जाएगी जिसमें अच्छी खेती योग्य भूमि, आम के बागान और पशुओं चारागाह बने हैं इस प्लांट के लिए हैवी प्रैषराज़्ड वाटर रिएक्टर का प्रयोग किया जाएगा जो 2008 इण्डोफ्रेंच एग्रीमैंट के तहत फांस से आयात किए जांएगे। जिनकी 10000 मेगावाट बिजली उत्पादन होगा। गांव में एक पब्लिक मींटिंग मेंमीडिया के सामने वहां के सेवानिवृत हैडमास्टर ने कहा कि ‘ एक बात साफ है, कोई भी यहां का स्थाई निवासी यहां न्यूक्लियर प्लांट नहीं चाहता।

‘आतंक के खिलाफ यु़द्ध’ का नया भारतीय संस्करण:

‘आतंक के खिलाफ यु़द्ध’ का नया भारतीय संस्करण:
जनता पर युद्ध का सरकारी ऐलान तोता रटंत
बाजोंखून के प्यासे गिद्धों के झुंड एक बार
फिर गावों में आ रहे हैंऊषा काल और कोमल चित्त,
सावधानमेरे बच्चों मेरी आखों की पुतली सावधान
-चेरा बण्ड़ा राजु
9/11 की घटना को बहाना बनाकर अमेरिका के तत्कालिन राष्ट्रपति जार्ज बुश ने ‘आतंक के खिलाफ यु़द्ध’ की घोषणा की तथा पहले अफगानिस्तान पर और फिर इराक पर हमला किया। भारत के प्रधानमंत्री ने भी 26/11की घटना के बाद ‘आतंक’ के खिलाफ खुला युद्ध छेड़ने का ऐलान कर दिया और इस युद्ध की कमान सौंपी नवनियुक्त गृहमंत्री पी। चिदम्बरम को। पी। चिदम्बरम ने इस घटना की आड़ में देश की सुरक्षा के नाम पर वो दो दमनकारी कानून बनवा दिये जिन्हें बनवाने का राग प्रधानमंत्री 2008 के शुरू से ही अलाप रहे थे। पी। चिदम्बरम ने भी अमेरिका की तर्ज पर हमले की घोषणा कर दी परन्तु यह हमला होना था अपने ही देशवासियों पर, उन लोगों पर जो इस देश के सबसे निर्धन लोग हैं। अमेरिका ने तालिबानी फासीवाद से जनता को मुक्त कराने के नाम पर और सद्धाम द्वारा संग्रहित ‘व्यापक जन संहार के हथियारों का बहाना बना कर हमला किया था, जिसका वास्तविक मकसद विदेशी धरती के प्राकृतिक सम्पदा तेल पर कब्जा करना था। परन्तु मनमोहन और पी। चिदम्बरम ने तो भारत के प्राकृतिक संसाधनों व सम्पदा को विदेशी हाथों में पहुंचाने के लिए अपने ही देशवासियों पर सैन्य आक्रमण कर दिया, यहंा बहाना बनाया जा रहा है ‘माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में सरकारी तन्त्र को पूर्नस्थापित करना’। गौरतलब है कि भारत के कुल प्राकृतिक संसाधनों का 40 प्रतिशत झारखण्ड़, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के ही उन्हीं जिलों में हैं जहां पर सरकार द्वारा हमले की घोषणा की गई है और प्राकृतिक संसाधनों में भी कुंजीगत उद्योगों के लिए कच्चे माल के स्त्रोत जैसे कोयला का 87, लौह अयस्क का 52, करोमाइट का 90 और बाक्साइट का 75 प्रतिशत इन्ही राज्यों में पाया जाता है। चूंकि मनमोहन सिंह राजनीति में आने से पूर्व अमेरिका के प्रभुत्व वाले अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष में अर्थशास्त्री थे और पी। चिदम्बरम संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में वित्तमंत्री बनने से पूर्व ब्रिटेन की खनन कम्पनी वेदान्त के वकील थे और उससे पूर्व कुख्यात अमेरिकी बिजली कम्पनी एनरान के निदेशक बोर्ड़ में थे इसलिए ये दोनों ही इस खनन में विदेशी पूंजी निवेश के हिमायती हैं। भारत की ज्यादातर सम्पदा वाले इन जंगल जंगलात के क्षेत्र में ही देश के सबसे गरीब लोग खासतौर पर आदिवासी रहते है, जोकि आजीविका और जिन्दगी चलाने के लिए पूर्णतया यहां के जल जंगल और जमीन पर निर्भर हैं। इन्ही आदिवासियों को इन संसाधनों के क्षेत्र से हटाने के लिए यह अभियान चलाया जा रहा है। मनमोहन सरकार द्वारा अपने ही देशवासियों पर किये जा रहे इस सैन्य अभियान का फायदा भी अमेरिका सहित साम्राज्यवादी देशों को ही पहुंचाया जाएगा।सीमा रेखा है देश के अन्दर अमेरिका ने विदेशी जमीन कब्जाने के लिए अफगानिस्तान में एक लाख और इराक में ड़ेढ लाख फौजी भेजे थे परन्तु भारत सरकार ने अपने ही देश के केन्द्रीय हिस्से में सैन्य अभियान चलाने के लिए 75,000 फौजी भेज रही है। इस सरकार ने सीमा रेखा देश के भीतर ही खींच मान ली है। गृहमंत्री बार बार इस सैन्य अभियान में सेना दखलांदाजी से इन्कार कर रहे हैंैं। परन्तु वास्तविकता है कि इस सैन्य अभियान को रक्षा मंत्रालय और गृह मंत्रालय मिलकर चला रहे हैं। सेना के अधिकारीयों के नेतृत्व में ही अपने ही देश में सबसे बड़ा सैन्य अभियान चलाया जा रहा है। इस अभियान का खाखा आर्मी का एक बिग्रेड़ियर कर रहा है। आर्मी के ही बिग्रेड़ियर और कर्नल छत्तीसगढ़ में जंगल वारफेयर स्कूल को संचालित और प्रशिक्षित कर रहे हैं। इसके अलावा आर्मी का खुफिया तंत्र भी इस आपरेशन में सम्मिलित किया गया है। छत्तीसगढ़ में पहली बार सेना का बिग्रेड़ियर हैड़क्वार्टर बनाया जा रहा है जहां से इस सारे आपरेशन को संचालित किया जाएगा। साथ ही सेना की कमाण्ड़ में संचालित होने वाली दुर्दांत ‘राष्ट्रीय राइफल्स’ को भी काश्मीर से हटाकर इस सैन्य अभियान में शामिल किया जा रहा है। सीमा की रक्षा के लिए निर्मिम भारत तिब्बत सीमा बल और सीमा सुरक्षा बल के 27,000 फौजीयों को भी केन्द्र सरकार ने देश के केन्द्रीय हिस्से में सैन्य हमला करने के लिए प्रतिनियुक्त किया है। इस अभियान में राज्यों के अधिकार का अतिक्रमण करते हुए केन्द्र सरकार ने सातों राज्यों में चलाए जा रहे इस आपरेशन के तालमेल के लिए सी।आर।पी।एफ. में विशेष महा निदेशक की नियुक्ति भी कर दी है। इस अभियान मे वायुसेना के 6 हैलिकाप्टरों का प्रयोग किया जा रहा है जिसमें वायुसेना का हथियारबंद दस्ता ‘गरूड़’ का भी इस्तेमाल किया जा रहा है। सरकार जनता की खून पसीने की गाढ़ी कमाई का ही 7300 करोड़ रूपया जनता पर छेड़े जा रहे युद्ध में खर्च कर रही है। वैसे तो सरकारी मशीनरी बड़े औद्योगिक घरानों के पक्ष मंे जनता पर गोलियां चलाती रही है जिसमें सैंकड़ो लोगों की जान गई है। परन्तु सेना के नेतृत्व में सैन्य अभियान चलाने की हिमाकत शायद साम्राज्यवादियों के चहेते मनमोहन और पी. चिदम्बरम ही कर सकते हैं। साम्राज्यवादी हित पूर्ति के लिए वे देशवासियों के कत्लेआम पर उतारू हैं। एक राजपुरूष ने घोषणा की है उसके हाथों के साफ शालीन दस्तानों के नीचे वह अपने पंजें जिस दिशा मेें बढ़ाएगा दूर दूर तक कोई दुश्मन नजर नहीं आएगा।कारपोरेट जगत का फायदा है असली मकसद: सन 2001 से ही कारपोरेट जगत पर आर्थिक मंदी के बादल मंड़राने लगे थे। इस आर्थिक मंदी से पार पाने के लिए ज्यादातर कम्पनियों की गिद्ध निगाहें भारत जैसे तीसरी दूनिया के देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर लग गई। कारपोरेट जगत की मंशा को पूर्ण करने के लिए सभी बड़ी संसदीय राजनैतिक पार्टियों के नेता नतमस्तक हो गए और खनन, खनन आधारित उद्योग सहित लगभग सभी उद्योगों में विदेशी कम्पनियों के लिए भारत के दरवाजे खोल दिए गए। भारत में विदेशी टापू बनाने की अनुुमती देने वाले विशेष आर्थिक क्षेत्र जैसे कानून तक पास कर दिये गए। सभी राज्य सरकारों में विदेशी निवेशकों और उनके दलाल बड़े उद्योगपतियों से इकरारनामें करने की मानों होड़ सी लग गई। 21 वीं सदी की पहली सदी में झारखण्ड़ में खनन, स्टील उद्योग, एल्यूमिनियम प्लांट, पावर प्लांट, बाध आदि बनाने के लिए ही 100 से अधिक इकरारनामें मित्तल, जिन्दल, टाटा, रियोटिंटों जैसे बड़े कारपोरेट घरानों के साथ हस्ताक्षरित किये गए। उड़ीसा में भी वेदान्ता, पोस्को, हिंड़ाल्को, जिन्दल, मित्तल जैसी कारपोरेट हाउस की कुदृष्टि वहां के संसाधनों पर हैं। छत्तीसगढ़ में भी एस्सार, टाटा, रियोटिटो, निकों जैसे घरानों के साथ राज्य की भाजपा सरकार ने खनन, प्लांट लगाने और विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लिए समझौते किए हैंै। इन तीनों राज्यों में सितम्बर 2009 तक कुल 8,73,86 करोड़ रूपए की निवेश परियोजनाओं के लिए इकरार किए गए हैं।जल जंगल और जमीन के सहारे रोजी रोटी चलाने वाले किसानोें खासतौर पर आदिवासियों ने इन परियोजनाओं के लिए जमीन देने से इन्कार कर दिया और जबरन जमीन अधिग्रहण के विरूद्ध गोलबन्द हो गए। उन्होने जल जंगल जमीन पर जनता के अधिकार की लड़ाई जारी रखी जिससे उनका अधिकार ब्रिटिश काल में जंगल कानून बना कर छीन लिया गया था। शोषक शासक वर्ग के विरूद्ध व्यवस्था परिवर्तन और जन मुक्ति की लड़ाई लड़ रही भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने भी इन परियोजनाओं की खिलाफत की तथा इकरारनामों को रद्ध करवाने के लिए जनता को गोलबन्द करना शुरू किया। साथ ही साथ कई क्षेत्रों में जनता की सत्ता भी कायम हुई जिसने में जल जंगल जमीन और प्राकृतिक सम्पदा पर जनता का हक कायम किया। समझौताहीन संघर्ष के कारण इन क्षेत्रों में साम्राज्यवादी कारपोरेट लूट का पहिया रुक गया। वे मनचाही लूट न कर सके। 18 जून 2006 को संसद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बयान भी दिया कि ‘ यदि खनिज की प्राकृतिक सम्पदा वाले हिस्से में अगर वामपंथी अतिवाद अगर फलता फूलता रहा तो निवेश का वातावरण निश्चित रूप से प्रभावित होगा।’ इसलिए इन इकरारनामों के हस्ताक्षरित होने के तुरन्त बाद जनता खासतौर पर आदिवासियों पर हमलें शुरू हो गए थे। बस्तर में सलवा जुड़ुम के जरिए सैकड़ो लोगों का कत्लेआम किया गया, हजारों घरों को जला दिया गया, सैकड़ों गांव की जनता को उनके गावों से हटाकर पुलिस शिविरों में बसाया गया। अनेकों महिलाओं का ब्लात्कार किया, बच्चों के सिर काट कर पेड़ से लटका दिया गया। झारखण्ड़ के सिंहभूम क्षेत्र में, जहां कारपोरेट जगत ने सबसे ज्यादा निवेश का करार किया है, नागरिक सुरक्षा समिति के माध्यम से आतंक फैलाया गया। बालूमाथ में तो अभिजीत ग्रुप का पावर प्लांट लगाने के लिए तृतीय प्रस्तुति कमेटी का भी प्रयोग किया गया। उड़िसा में भी कम्पनी की भाड़े के गुण्ड़ों के अलावा शान्ति सेना बनाकर जनता पर हमले करवाए गए। परन्तू जल जंगल जमीन जनता का पर जनता का हक कायम करने के लिए प्रतिरोध आन्दोलन प्राइवेट मलिशिया और अर्ध सैन्य बलों का मुकाबला करते हुए आगे बढ़ता गया तो साम्राज्यवादी ताकतें खासतौर पर अमेरिका और उसकी तथाकथित ‘रणनीतिक सहयोगी’ भारत सरकार इन इलाकों में उसी तरह सैन्य कार्यवाही पर उतर आयी जिस तरह इराक और अफगानिस्तान पर तेल संसाधन लूटने के लिए किया गया था।‘आंतरिक सुरक्षा’ को खतरा किससे: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2006 से ही ‘माओवादी आन्दोलन आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है’ का राग अलापना शुरू कर दिया था। यही वह वर्ष था जब उन्होने भारत को अमेरिका के ‘रणनीतिक सहयोगी’ का दर्जा दिलाया था। दबे शब्दों में वे जनता की बुनियादी समस्याओं को हल न कर पाने में शासकीय प्रशासकीय विफलता को इस आन्दोलन के उभार के मुख्य कारण के रूप में स्वीकार करते हैं। तथाति जनता के हक हकूक के पक्ष में कोई ठोस कदम नहीं उठाते। जमीन पर बोने वाले का हक, जंगल और वनोपज पर जनता का अधिकार, खेती के विकास के लिए सिंचाई का प्रबन्ध, शिक्षा स्वास्थय जैसी बुनियादी सुविधाओं का प्रबन्ध, रोजगार का प्रबन्ध की योजनाओं के बारे में मात्र जुबानी जमा खर्च किया जाता हैं। अगर योजना बनती भी है तो कागजों तक सिमट जाती है या शासकीय प्रशासकीय भ्रष्टाचार का शिकार हो जाती है। दरअसल मनमोहन अर्थव्यवस्था के एजेण्ड़े और दायरे में इन समस्याओं का निदान और जनविकास शामिल ही नहीं हो पाता। बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों और साम्राज्यवादी देशों का फायदा और विकास ही उनके एजेण्ड़े में आता है जो जनता के बचे खुचे जीवन निर्वाह के साधनों को भी छिन लेता है। भारत को महाशक्ति बनाने के उनके पैमाने में जनता का जीवन स्तर उच्च करने की बजाए कम्पनीयों, बड़े बड़े घरानों और सी.इ.ओ. की धन सम्पदा बढ़ाना ही आता है जोकि जनता की धन, सम्पत्ती और श्रम का दोहन करके ही बढ़ सकता है। इसलिए ही विश्व की उभरती महाशक्ति के 77 प्रतिशत निवासियों को रोजाना मात्र 20 रूपये ही उपलब्ध हो पाते हैं जबकि भारत के चार सी.ई.ओ. फोब्र्स पत्रिका की सूची में विश्व के सबसे सम्पन्न दस सी.इ.ओ में स्थान पा जाते हैं। विश्व के 20 शीर्ष देशों की बैठक जी-20 में बैठने का हक पाने को उपलब्धि के रूप में गिनवान वाली भारत सरकार शायद यह नजरअंदाज कर जाती है कि मानव विकास सुचकांक में भारत 182देशों में 134 वें नम्बर पर है। केन्द्रीय मंत्री के अनुसार रोजगार की बहुप्रचारित नरेगा योजना के तहत मात्र 15 लाख लोगों को 50 दिन से भी कम का रोजगार दिया गया, जिसमें से ज्यादातर कागजों में ही दिया गया है, जबकि योजना का लक्ष्य 15 करोड़ लोगों को रोजगार देना रखा गया था। सरकारी जन विरोधी नीतियों के कारण पिछले 10 सालों में ड़ेढ़ लाख किसान अपना ही गला घोटने पर मजबूर हुए हैं। वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ के वैश्विक भूख सूचकांक के अनुसार 30 करोड़ भारतीयों को रोजाना भूखा सोना पड़ता है।इसमें से अधिकतर उसी इलाके के हैं जहां पर सरकार सैन्य हमले कर रही है। खासतौर पर 1991 में मनमोहन कृत नई आर्थिक नीतियों को अपनाने के बाद से लाखों लोग राज्य प्रयोजित ढ़ाचागत हिंसा का शिकार बने हैं। इस हिंसा के खिलाफ जब लोग आन्दोलन करते हैं तो उन्हे सरकार आन्तरिक सुरक्षा के लिए खतरा घोषित करती है जबकि सरकार खुद ब खुद देशवासियों का गला घोट रही है ताकि अपने को सही तौर पर अमेरिका का ‘रणनीतिक सहयोगी’ साबित कर उससे महाशक्ति का तमगा पा सके।अमेरिका है सैन्य हमले का सूत्रधार: सितम्बर माह में के पूवार्द्ध में गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने चार दिन का अमेरिका का दौरा किया था। वहां पर चिदम्बरम ने कुख्यात खुफिया एजेण्सी फेड़रल ब्यूरो आफ इन्वेशटिगेशन के उच्चाधिकारियों से मिलकर भारत अमेरिका के आतंकवाद विरोधी आपरेशन, तकनीकी सहायता, दक्षिण एशिया में सुरक्षा समिति के मूल्यांकन आदि पर चर्चा की। वहां से लौटते ही छत्तीसगढ़ में बस्तर के उत्तर, पश्चिम और दक्षिणी हिस्से में ‘आपरेशन ग्रीन हंट’ चलाया गया। इस आपरेशन में 19 ग्रामिणों की बर्बर तरीके से हत्या कर दी गई। आज अमेरिकी निर्देश आर्थिक मामलों से आगे बढ़कर सैन्य मामलों तक पहुंच गए हैं। गौरतलब है कि अमेरिकी फेड़रल ब्यूरो आफ इन्वेशटिगेशन का एक आधिकारिक कार्यालय भारत में पहले ही खोला जा चुका है। इस आपरेशन में भी यह खुफियागिरी में भारत सरकार की मदद करेगी।चंूकि सभी आपरेशन खुफिया जानकारी के आधार पर चलाया जाता है इसलिए ये एजेन्सी अमेरिकी हितों के मुताबिक आपरेशन चलवाएगी। अमेरिका के सैटलाइट भी इस हमले में प्रयोग में लाए जाएंगे। लालगढ़ जोकि गृह सचिव कृष्ण पिल्लै के अनुसार ‘संयुक्त सैन्य अभियान की प्रयोगशाला’ है, में भी अमेरिका के खुफिया सैटेलाइट ने वेरोपेलिया, रामगढ़, कांटापहाड़ी आदि इलाकों में खोजबीन की थी। साथ ही भारत सरकार उन अमेरिकी सैन्य अधिकारियों से निरन्तर सलाह ले रही है जोकि उत्तर पश्चिम पाकिस्तान और अफगानिस्तान में जेहादियों और तालिबानियों पर आक्रमण में शामिल हैं। इसके अलावा अमेरिका के अधिकारी निरन्तर छत्तीसगढ़ का खासतौर पर जंगल वार फेयर स्कूल का दौरा कर रहे हैं। कांकेर के जंगल वारफेयर स्कूल का प्रशिक्षक ने तो अमेरिकी सेना के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास भी किया है।हथियारों की आपूर्ति तो निर्बाध गति से अमेरिका से जारी ही है। अमेरिकी स्टेट नेवल एकेड़मी के लेफटिनेन्ट कमाण्ड़र हारनेटिएक्स ने जून 2008 में ही अपनी रिपार्ट ‘ द रियर्जंस आफ नक्सलिज्म’ में साफ साफ लिखा है कि ‘नक्सलवाद दक्षिण एशिया में अमेरिकी हितों के चुनौती हैं। अमेरिका को माओवादी विद्रोह को कुचलने अमेरिका का हित है।’ अमेरिका के रणनीतिक और आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए भारतीय शोषक शासक वर्ग अपने ही देश की जनता पर हमले पर उतारू है। वो अमेरिका की तर्ज पर ही इस सैन्य हमले को जायज ठहराने के लिए झूठे प्रचार में जुट गया है। दुष्प्रचार युद्ध का ही एक हथियार है: भारत के गृह मंत्रालय ने सैन्य हमले के लिए माहौल बनाने हेतू ‘नक्सल विरोधी विज्ञापनों की बाढ़’ ला दी है। वे माओवादी नेतृत्व में चलने वाले आन्दोलनों को ‘बहशी कातिल’, ‘दरिन्दे’, ‘लूटेरे’, ‘ड़कैत’, ‘यौन शोषक’ ‘विकास विरोधी आन्दोलन के रूप में प्रचारित कर सैन्य हमले को जायज ठहराना चाहते हैं। जबकि सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगी गई कि माओवादियों ने सामाजिक विकास में लगे आंगनवाड़ी वर्कर, अध्यापकों जैसे कितने लोगों को मारा है तो जवाब शून्य था। ब्रिटिश काल में भी अपने हक हकूक के लिए लड़ने वाले आदिवासियों को ‘आपराधिक कबिले’ घोषित कर उनका दमन किया गया था और उन्हे अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। तथाकथित ‘तटस्थ’ कारपोरेट मीड़िया भी कारपारेट का सगा सम्बन्धी होने के कारण सरकारी भोंपू मात्र बन कर रह गया है। यहां तक कि वह सरकारी दुष्प्रचार मशीनरी से भी चार चन्दे आगे बढ़कर उन्हे तालिबानी, राष्ट्रविरोधी ठहराने में लगा है। सजग, प्रहरी और आन्दोलन का दम्भ भरने वाला मीड़िया सरकार और कारपोरेट जगत की समझ के अनुसार ही खबरों को तोड़-मरोड़ कर और बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है। सरकारी कारगुजारियों को या तो छिपा लिया जाता है या बहूत ही हल्के ढ़ंग से पेश किया जाता है। कारपोरेट मीड़िया ने नहीं बताया कि लातेहर के बड़निया में सी.आर.पी.एफ. द्वारा झूठी मुठभेड़ में मार ड़ाले गए पांच ग्रामिणों में से एक को बहुत नजदीक से मोर्टार चलाया गया था, कलिंग नगर में भूमि अधिग्रहण का विरोध करने वाले आदिवासियों को बमबलास्ट कर उड़ाया गया था याकि आंध्र प्रदेश में ग्रेहाउन्ड़स ने सांस्कृतिककर्मी बेल्ली ललिता के 17 टूकड़े कर बोरी में बन्द कर के फैंक दिया था। अनेको सरकारी रिपार्ट में हवाला दिया गया है कि सरकार द्वारा जनता की इच्छा और आकांक्षाओं को पूरा न करने के कारण जनता माओवादी आन्दोलन के साथ जुड़ी है।माओवादियों ने जनता के विस्थापन के मुद्दे सहित बांस कटाई, तेन्दू पत्ता तुड़ाई के रेट बढ़वाने हेतू, जंगल की वनोउपज पर आदिवासियों का अधिकार सुनिश्चित करते हुए बाजार में उनका दाम बढ़वाने हेतू संघर्ष किया है। साथ ही त्वरित और सही न्याय की व्यवस्था की है। भूमिहीन किसानों खासतौर पर दलित जातियों के जातिय उत्पीड़न के खिलाफ लड़ते हुए जमीनों पर उनके अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी है। आन्दोलन की इस पृष्ठभूमि के बावजूद कारपोरेट मीड़िया सरकारी लय में लय मिलाते हुए इस आन्दोलन को तालिबानी, राष्ट्रविरोधी कह रहा है तथा जनता पर सरकारी सैन्य अभियान के लिए माहौल तैयार करने में जुटा हुआ है। मीड़िया लेन्स की यह उक्ति बिल्कुल ठीक है कि ‘मीड़िया की ‘तटस्थता’ एक ऐसा छलावा है जो प्रायः व्यवस्था के कारपोरेट पक्षीय रूख को छिपाने के काम आता है।’ कारपोरेट जगत के भारत की प्राकृतिक सम्पदा और संसाधनों पर कब्जा करने के लिए चलाए जा रहे सैन्य अभियान के पक्ष में जनमत बनाने की कोशिशों में ही मीड़िया जुटा है।संसदीय राजनैतिक पार्टियों का जन विरोधी चेहरा: साम्राज्यवादी कारपारेट विकास माड़ल पर तमाम संसदीय राजनैतिक पार्टियों की एकराय है। वो सभी कारपोरेट द्वारा संसाधनों की लूट को आसान बनाने के लिए कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार द्वारा भारत की जनता खासतौर पर आदिवासियों पर सैन्य हमले की नीति का कमोवेश समर्थन कर रही हैं। गुजरात में हजारों मुस्लिमों की कातिल भारतीय जनता पार्टी तो खुलेआम और नंगेतौर पर इस अभियान की समर्थक है और भाजपा शासित राज्यों में इसे तेजी से लागू करने में लगी है साथ ही अभियान को और ज्यादा सख्ती से चलाने की वकालत कर रही है। भाजपा नीत राज्य सरकारों ने ही मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों को तेजी से लागू करते हुए झारखण्ड़ और छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा इकरारनामें किए थे। सी.पी.एम. के कर्णधार माओवादियों से वैचारिक और राजनैतिक रूप से लड़ने की दोगली बातें कर रही हैं। परन्तु माक्र्सवाद के नकाब में शासक वर्ग का हित पोषित करने वाली सी.पी.एम. ही लालगढ़ को इस ‘संयुक्त सैन्य अभियान की प्रयोगशाला’ बनाने में केन्द्र सरकार के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही है। उसने सी.पी.आई. माओवादी के वैचारिक राजनैतिक पक्ष को रखने वाले प्रवक्ता तक को एक न्यूज चैनल के दफतर से उठा कर जेल में ड़ाल दिया। बीजू जनता दल के नवीन पटनायक खुले रूप में कारपोरेट जगत के साथ है।पोस्को, कलिंगनगर, काशीपुर में उन्होनें खुले तौर पर कारपोरेट घरानों का साथ देते हुए जनता पर फायरिंग करवाई थी और जनता के विरोध के बावजूद सैन्य अभियान के लिए कोबरा बटालियन को जमीन मुहैया करवा रहे हैं। सी.पी.आई. ने इस हमलें में सैन्य ताकतों के इस्तेमाल का विरोध किया है परन्तू आपरेशन को रद्द करने की मांग पर वो साफ तौर पर कोई विरोध नहीं जता रहे हैं।और तृणमुल कांग्रेस नेत्री के तेवर केन्द्रीय मंत्री की कुर्सी पर बैठते ही नरम पड़ गए हैं। एक आध ब्यान के अलावा दमन नीति के विरोध का कोई ठोस कार्यक्रम तृणमुल काग्रेस नहीं ले रही है।उसका मकसद मात्र 2011 में चुनावी सफलता प्राप्त करने तक सीमीत है। लगभग तमाम बड़ी संसदीय पार्टियां अपने जनविरोधी चरित्र के अनुरूप प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस सैन्य अभियान से नीतिगत तौर पर समर्थन कर रही हैं।लोकसत्ता स्थापना ही एकमात्र रास्ता: जल जंगल जमीन पर जनता के अधिकार की लड़ाई तभी से जारी है जबसे जंगल कानून के तहत सारे जंगल जंगलात को सरकारह कलम और बन्दूक के दम पर ब्रिटिश ने अपने अधिकार में ले लिया था। झारखण्ड़ की धरती से बिरसा मुंड़ा के नेतृत्व मे आदिवासियों ने उलगुलान की हुंकार भरी थी और मुड़ाराज की स्थापना के लिए संघर्ष छेड़ा था। बस्तर में गुण्ड़ाधर के नेतृत्व में भूमकाल विद्रोह कर माड़िया राज की स्थापना की गई थीं। उड़िसा में घुमेश्वर का विद्रोह भी जल जंगल जमीन पर जनता का अधिकार स्थापित करने के लिए हुआ था। नक्सलबाड़ी में भी जनता ने जमीन पर जनता का अधिकार कायम करने के लिए और जनसत्ता स्थापना के लिए संघर्ष किया था। इन संघर्षों की बदौलत देश की जनता के पक्ष में कुछ कानून बनाने का ढोंग भी रचाया गया। परन्तु जमीन हदबंदी कानून, नया जंगल कानुन, सूदखोरी उन्मूलन कानून, बेगार के विरूद्ध कानूनों में जनता के हित के प्रावधानों को अनदेखा कर दिया गया। आज जब जनता इस शोषण उत्पीड़न के खिलाफ उठ रही है तो सरकार उन्हे कातिल, जनसंहारक, हिंसक कह रही है और उन्हे हिंसा का रास्ता छोड़कर शांति का उपदेश दिया जा रही है। दुसरी तरफ दमनकारी प्रशासनिक मशीनरी का इस्तेमाल करते हुए लाखों लाख सैन्य और पूलिस बल के साथ जनता पर हमला कर रही है। शोषक शासक वर्ग की लूट और दमन के खिलाफ भारत की जनता खासतौर पर आदिवासियों ने सदैव ही समझौताहीन संघर्ष चलाया है और लूटेरों को नाकोें चने चबवाएं हैं। आज भी छत्तीसगढ़, झारखण्ड़, उड़िसा, पश्चिम बंगाल सहित समस्त देश में जनता का समझौताहीन जुझारू संघर्ष जारी है जो तमाम तरह के दमनकारी आपरेशनों का मुकाबला करते हुए निरन्तर आगे बढ़ रहा है चाहे वो आपरेशन सिद्धार्थ हो या जनजागरण अभियान, ग्राम रक्षा दल हो या सलवा जुड़ुम या फिर आपरेशन ग्रीन हंट, वो राज्य संरक्षित रणबीर सेना हो, ब्लैक हण्डेªडस या सनलाइट सेना, कम्पनियों के दलाल हों या कोबरा। संघर्षरत जनता ने हमेशा इन दमनकारी ताकतों को मुंह तोड़ जवाब दिया है। सरकार को जनता पर छेड़े गए युद्ध को तत्काल बन्द करना चाहिए और सारी सैन्य, अर्ध सैन्य और पुलिस बलों को हटाना चाहिए। बड़े बड़े उद्योगपतियों और बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों के साथ किये गए तमाम इकरारनामों कों रद्ध कर अधिग्रहित की गई समस्त जमीन जनता को वापिस करनी चाहिए।साथ ही जनता के जल जंगल जमीन और प्राकृतिक सम्पदा पर जनता के हक हकूक को वाजिब मानना चाहिए। वरना अपने ही देश की जनता पर छेड़े गए वर्तमान केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा संचालित सैन्य अभियान के खिलाफ देश की सारी जनता खड़ी होगी ताकि जल जंगल जमीन और प्राकृतिक संसाधनो पर जनता के अधिकार को कायम किया जा सके तथा एक शोषण विहिन सही लोकतंात्रिक भारत का निर्माण किया जा सके जिसका सपना हमारे भगत सिंह जैसे शहीदों ने देखा था।याद रखो इस अंधेरे का रंगजितना ज्यादा काला होगा समझ लो सुबह उतनी ही करीब है तुम्हारी।
-अजय