Thursday, December 03, 2009



फ़िल्में दे रही हैं बढावा आत्मकेन्द्र्रियता को

फ़िल्में दे रही हैं बढावा आत्मकेन्द्र्रियता को’
समाज को गर्त की ओर ढकेलता बालीवुड
नरेन्द्र कौर हिसार

आमतौर पर कहा जाता है कि मीडिया या फ़िल्में समाज का आईना होती हैं । समाज में घटित होने वाली घटनाओं से प्रेरणा पाकर ही फ़िल्में की पटकथा लिखी जाती है, परंतु आज का सिनेमा किसी और ही दिषा की तरफ जा रहा है । अतीत मे समाज के बहुसंख्यक वर्ग को फिल्मंो मंे जगह मिलती थी लेकिन आज का सिनेमा 90 प्रतिषत आबादी के लिए मात्र स्वप्नलोक रह गया है पुरानी फिल्मांे मंे नायक को समाज से जुड़ा दिखाया जाता था । नायक गांव के साथ मिलकर दुश्मनों से लड़ पाते थे मगर आज के नायक को सर्वेसर्वा दिखाया जाता है ’मदर इंडिया’, मेरा गांव मंेरा देष , उपकार , क्लर्क जैसी फिल्मंे व्यक्ति समाज और देष के जुड़ाव को दिखाती थी परंतु आज के नायक को सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए काम करते हुए या फिर मौज मस्ती और केवल प्यार और कैरियर के लिए लड़ते दिखाया जा रहा है । आज का सिनेमा उपभोक्तावाद का गुणगान करते हुए साम्राज्यवादी संस्कष्ति का पोशण कर रहा है । जिसका असर समाज में प्रत्यक्ष रूप् से देखने को मिल जाता है । इसी उपभोक्तावादी नजरिये के कारण ही सिनेमा का दूसरा रूझान महिला विरोधी भी होता जा रहा है ’नो एंट्री ‘ जैसी फिल्मंे मनोरंजन और हंसी मजाक के नाम पर औरत को उपभेग की वस्तु व पुरूश द्वारा महिला षोशण को जायज ठहराने की कोशिश की जा रही है वैसे तो यह काम बहुत पहले ही षुरू हो चुका था उदाहरण के लिए यदि हम प्रसिद्ध फिल्म हीरा पन्ना की अगर बात करंे तो उस जमाने में अंग प्रदर्षन की वह उत्कृष्ट सीमा थी और यदि उस जमाने में हेलेन पर फिल्माए गए गानांे को देखंे तो यह बात सपष्ट हो जाती है कि सिनेमा केवल देश के दस प्रतिषत लोगांे के लिए ही बना है । और आज के दौर में सिनेमा उन्हीं दस प्रतिषत लोगांे को ही विभिन्न सुनहले रूपांे में पेश कर रहा है । आम आदमी पर तो कभी प्याज कभी गैस तो कभी बढता किराया और कभी मंहगी होती पढाई यही मुददे उसकी चालीस वर्षों की जिन्दगी के लिए बहुत हो जाते है लेकिन बालीवुड इस बहुसंख्या को भी उन दस प्रतिषत लोगांे की तरह जो सिर्फ अपने पेट को देखते हैं कि वह भरा है या नहीं पड.ोसी से क्या लेना देना का ही संदेष देता जा रहा है ।

कविता रागो

रागो 1
रागाओं से प्रसिद्ध प्रदेष की
छान ली पांव से
घरों मंे खेतुल मंे घोटुल मंे
नहीं दिखाई दिए मुझे
रागाआंे के टंगे पिंजरे
एकाध ही नजर आए
इनमंे भी अजीब सी बेचैनी थी
स्पष्ट कहूॅं तो तडफडाहट थी
क्हां गए रागो ?
स्दा बतियाने वाले
घरों को हंसाने वाले
सदा ही उंगलियों के इषारों पर
नाचने वाले
सबको सकून देने वाले
कहां गए रागो ?
सुन्दर से पंख तराषे थे
पिंजरे में सब खाने को देते
कितने नियम बनाए
कितने संस्कार दिए



नजरों से कभी ओझल नहीं होने दिया
सुनने को नहीं मिल पाई
बचपन से रटी रटाई मीठी बातंे
बस बचे थे तो षिकारी के मुंह बाए
खाली टंगे पिंजरे
कभी बन्द रहते थे इनमंे
सुन्दर सुषील
सहनषील-आज्ञाकारी रागो
ठीक कहते थे बुजुर्ग हमारे
बेवफा होते हैं रागो
थोडा खुला छोडा नहीं
फुर से उड
जाते है।
रागो 2.
मैं साक्षात्कार हूं रागाओं से
उनके पाटा से ,डाका से
जीवन से संघर्ष से
घीरा हुआ पूछता हूं उनसे
कितने सुन्दर-कितने मजबूत थे
तुम्हारे पिंजरे?
कितनी पीढियों से कवायदषुरू थी
उन्हें मजबूती देने की ?
कैसे कतरे अकेली ताकत से पिंजरे ?
तैष मंे आ गई रागो
कल तलक हां कल तलक
मैनंे वही किया जो कहा गया
लोगों को गुदगुदाने की भाषा
मेरी नहीं थी
मेरे पंख कतरे गए थे
कैदी नहीं आजादी मेरी फितरत
पिंजरा नहीं नीलगगन मेरा बसेरा
अकेला नहीं समूह मेरा स्वभाव
रही बात ताकत की
सदियों से कैदी रहते
ज्वालामुखी बन गया था मेरा गुस्सा
आजादी की तडफडाहट मंे
कुछ ऐसे फडफडाए मेरे पंख
चीन्दी-चीन्दी उडी
उनके पिंजरों की ।
1़ पाटा -गीत
2़ डाका-नाच


रागो 3
रागो नहीं रही
बन्दी का प्रतीक
मुक्ति की चाहत मंे
बन्दिषों को तोडती
पुरूष प्रधानता से लड
घरों को छोडती
कन्धंे पर बन्दूक सजाए
समरभूमि मंे कूदती
हर विद्रोही स्त्री का
पहला नाम बन गया है ष्रागोश् ।


सामने हो मन्जिल तो,

कभी रास्ते ना मोड़ना !

जो मन में हो ख्वाब,

कभी उसे ना तोड़ना !

हर कदम पर मिलेगी,

कामयाबी आपको !

बस सितारे चुनने के लिए,

कभी भी जमीं ना छोड़ना !

गाँव खाली नहीं करेंगे मर जाएंगे 52 साल बाद जागा पुरातत्व विभाग






गाँव खाली नहीं करेंगे मर जाएंगे
52 साल बाद जागा पुरातत्व विभाग
पूरा देश विस्थापन का दंश झेल रहा है कहीं सेज के नाम पर लोगों को उजाड़ा जा रहा है तो कहीं बांधों और नेषनल पार्कों के बहाने । विकास और सौन्र्दयकरण के नाम पर गांव के गांव खाली कराए जा रहे हैं । हमेषा से ही लम्बे व जुझारू संघर्षों से दूर रहे हरियाणा सरीखे राज्य मंे भी लोगों ने अपनी आवाज बुलंद करनी षुरू कर दी है। अपनी जमीन छुटने,आषियाने उजड़ने का भय अब विद्रोह की आग में तबदील होने लगा है। लोग अतीत से सबक ले रहे हैं। चूकिं अब तक किसी न किसी बहाने अपनी छत से बेदखल हुए लोगों को न तो कोई मुआवजा मिला और न ही पुनर्वास की सुविधा।
पिछले 11 सालों से कैथल जिले के गांव पोलड़, निवासी अपने विस्थापित होने के डर से सहमे हुए हैं कि प्रषासन कब अपनी फौज के साथ आ धमके, उन्हें बेघर करने । इस बीच प्रषासन और गांव वालों के बीच कई संघर्ष हो चुके हैं और अब तक पुरातत्व विभाग को बैरंग ही लौटना पड़ा है। लेकिन अब पुरातत्व विभाग प्रक्रिया मंे तेजी आई है, इसके साथ ही लोगों के संघर्ष की तैयारियां भी जोर पकड़ने लगी हैं । पर सवाल यह उठता है कि क्या पोलड़ की जनता अपने संघर्ष के जरिये गांव को बचा पाएगी, इसका जवाब जानने के लिए हम गांव पोलड़ पहुंचे। कैथल से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी पर बसा यह गांव 5000 की आबादी समेटे है। गांव की 90 प्रतिषत आबादी दलित व पिछड़े वर्ग से है। गांव को एकबारगी देखने से यह लगता है कि सब कुछ सामान्य है लेकिन अन्दर जो गहमागहमी और उथल-पुथल मची है उसका अन्दाजा लगाना मुष्किल है। बस स्टैण्ड पर ही एक बुर्जुग अर्जुन दास चाय की दुकान चलाते हैं।जब हमने उनसे पूछा कि पुरातत्व विभाग और गांव के बीच क्या विवाद चल रहा है ? जैसे वे अपना दुख सुनाने के लिए किसी सुनने वाले का ही इन्तजार कर रहे थे। उन्होनंे हमंे बताया कि 1954-55 मंे यहां एक बाढ़ आई थी जिसके चलते गांव सीवन से अधिकतर लोग इस जगह पर आ बसे क्योंकि यह जगह काफी उंची थी। उस वक्त न तो यहां कोई पुरातत्व विभाग का आदमी था न ही उसका कोई बोर्ड। तब आबाद होते इस गांव को किसी ने नहीं रोका और धीरे-धीरे यह गांव अच्छी आबादी ले गया और यही नहीं प्रषासन द्वारा यहां जलघर और गांव के लिए विभिन्न तरह की ग्रांट भी समय-समय पर गांव को मिलती रही है। यह गांव 2000 से पहले सीवन की पंचायत के अन्दर आता था लेकिन उसके बाद यहां की पंचायत को स्वतंत्र रूप दे दिया गया । किसी विभाग को इस ऐतिहासिक जगह की सुध नहीं आई और लोगो ने अपनी सारी उम्र की कमाई यहां मकान बनाने में लगा दी। यदि यह मान लिया जाए कि लोगों को इस बात की जानकारी नहीं थी लेकिन पुरातत्व विभाग और हरियाणा सरकार उस वक्त कहां थी। उपर से सरकार ने यहां सुलीहतें दे दी ,गांव में स्कूल से लेकर पानी की सप्लाई, बिजली,स्वास्थय और गली पक्की करने तक सभी सुविधाएं दी गई हैं । गांव के नाम पर राषन कार्ड और वोट कार्ड जारी किए हुए हैं। यदि गांव का निर्माण अवैध था तो हरियाणा सरकार और जिला प्रषासन यहां सालो तक क्यांे इतने रूप्ए खर्च करता रहा? क्या यह सब वोट बटोरने के लिए था? वास्तव मंे देखा जाए तो स्थिति विरोधाभासी है एक तरफ तो विभाग ग्रामीणांे को नए निर्माण करने को रोक रहा है जिसके लिए गांव मंे विभाग द्वारा एक व्यक्ति की नियुक्ति भी की गई है । दूसरी तरफ गांव मंे धड़ल्ले से ग्रांट भेजी जा रही है।
पुरातत्व विभाग की रिपोर्टांे और गांव की ऐेतिहासिक पृष्ठभूमि पर ध्यान दे तो अतीत में तो यहां दो बार खुदाई हो चुकी है। पहली बार खुदाई श्री मजूमदार के नेतृत्व मंे 1925 मंे हुई थी जिसमंे यहां मोहनजोदड़ो सभ्यता के अवषेष पाए गए। इसके बाद 25श्12श्1925 को 28875 न0़ नोटिफिकेषन तैयार किया गया । जिसे आधार बनाकर ए.एम.,ए.एस.आर. एक्ट 1958 के तहत इस गांव को पुरातत्व विभाग ने अपने दायरे मंे ले लिया और किसी भी तरह के निर्माण को यहां अवैध घोषित कर दिया गया। 1958 से लेकर 1997 तक पुरातत्व विभाग सोया रहा। नवम्बर 1995 मंे पहली बार निर्माण रोकने के लिए मुनियादी कराई गई। अब निमार्ण रोकने और गांव खाली करने के नोटिस बारश्बार भेजे जा रहे हैं तो लोगांे के दिलांे मंे भी आग सुलग रही है । लोग अपने आषियाने बचाने के लिए आंदोलन कीसी भी हद तक जाने को तैयार हैं । लाला अर्जुन दास कहते हैं कि जिस तरह गुर्जर आंदोलन ने अपनी बात सरकार से मनवाई है उसी तरह अगर प्रषासन नहीं माना तो हम भी ऐसी ही लडाई षुरू करंेगे । जब हमने गांव वालांे से यह पूछा कि आप सरकार से समझौता किन षर्तों पर करेगें तो सब लोगांे का यही जवाब था कि पहली बात हम अपनी जमीन छोडंेगे ही नहीं। यदि ऐसी नौबत आ भी गई तो सरकार हमंे उचित मुआवजा और जमीन मुहैया कराती है तो हम इस बारे मंे सोच सकते है।
जिस गांव की 90 प्रतिषत आबादी अनुसूचित जाति से सम्बन्ध्ति हो और जिनके पास अपनी पूरी जिन्दगी की कमाई के रूप मंे केवल एक मकान हो और वह भी सरकार किसी बहाने से उनसे छीनने का प्रयास करे तो स्वाभाविक ही है कि सरकार की यह मंषा सहज ही पूरी न हो पाए । लोग अपने जीवन की अन्तिम घड़ी तक लडें़। अब देखना ये है कि क्या पोलड़ की अपने गावं को बचा पाएगी या फिर वह हरियाणा के नक्षे से मिट जाएगा।






जाँच के नाम पर मानसिक उत्पीड़न

जाँच के नाम पर मानसिक उत्पीड़न
पुलिस ने छुड़वाई पत्रकार की नौकरी

हरियाणा पुलिस पिछले कुछ सालांे से माओवाद की आड़ मंे लोगांे को झूठे केसांे मंे फंसाकर, उनका तरह- तरह की जांच व पूछताछ के नाम पर मानसिक उत्पीड़न कर रही है । कभी पूछताछ के बहाने थाने बुलाना, कभी जिला हैडक्वार्टर ले जाना तो कभी घरवालांे ,रिष्तेदारांे को तंग करना आम बात हो गई है । अब तो जांच का दायरा इतना बढ गया है कि पुलिस दिहाड़ी-मजदूरी व नौकरी करने वालांे के कार्यस्थल पर जाकर सम्पादक पर प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष ढंग से हटाने के लिए दबाव बनाने लगी है जो अभियुक्त की आर्थिक रीड़ को तोड़ने के अलावा और कुछ नहीं है।
पुलिस की ऐसी कार्यवाही का षिकार हुआ गांव जाण्डली कलां निवासी सुनील। जिस पर प्राइवेट युनिवर्सटी बिल का विरोध करने के कारण पुलिस द्वारा देषद्रोह का मामला दर्ज किया गया था। छः महीने जेल मंे रहने के बाद जमानत पर रिहा हुए। सुनील ने फरीदाबाद से प्रकाषित एक मासिक पत्रिका मंे बतौर संवाददाता काम करना षुरू किया था कि हर दूसरे तीसरे दिन घर पर कभी आई.बी., कभी सी.आई.डी.वाले तो कभी सुरक्षा एजंेसी वाले आ धमकते,पूछताछ के नाम पर हर बार एक जैसे सवाल। जब इस तरह के तौर तरीके काम नहीं आए तो सुनील को यहां तक कहा गया कि वह फिर से उसी छात्र संगठन मंे उनका मुखबिर बनकर रहे । जब इससे इन्कार किया तो पुलिस वाले फरीदाबाद मंे पत्रिका ‘निष्पक्ष भारती’ जिसमंे वह काम करता था , के प्रबंधक व संपादक को धमकाया, उनसे उल्टे सीधे सवाल किए। नतीजा यह हुआ कि सुनील को नौकरी से निकाल दिया गया । यह घटना बडे़ नाटकीय ढंग से घटी। 19 जून को सुनील रोहतक पीजीआई मंे एक ‘कवर स्टोरी’ करने गया था। जब वह रोहतक से लौट रहा था तभी संपादक का फोन आया। उसने कहा कि पत्रिका से संबंधित सभी कागजात,रिपोर्टस नरवाना दे दो,अर्जेन्ट है अैार फोन काट दिया । सुनील को कुछ समझ नहीं आया। थोड़ी देर बाद फोन बजा अैार अबकि बार संपादक ने पूछा कि इस अंक में तुम्हारी कोई आपत्तिजनक सामग्री तो नहीं है यहां पुलिस आकर तुम्हारे बारे मंे छानबीन कर रही है। तभी सुनील को याद आया कि इस बार उसने जगतार नामक दलित युवक पर एक स्टोरी लिखी थी जिस पर पुलिस ने डकैती का झूठा केस लगाया अैार साबित करने के मिलए एक नोजपिन की बरामदगी दिखाई । सुनील ने पत्रिका मंे मुकददमंे के फर्जीवाडे़ को उजागर किया था चूकिं 10 महीने पहले भंी पुलिस ने जगतार पर देषद्रोह का मुकददमा दर्ज किया था पर कोर्ट ने उसे इस मुकददमंे से बरी कर दिया था, तभी से पुलिस जगतार को फसंाना चाह रही थी। इस पूरे मामले में यह सवाल उठता रहा कि क्या कोई सामाजिक कार्यकर्ता 200 रूपए की नोजपिन चोरी कर सकता है ।
इस पूरे मामले मंे हद तो उस वक्त पार हुई जब डर के मारे संपादक ने भी पुलिस को झूठ बोला कि सुनील तो विज्ञापन के मिल काम करता था अैार हमने उसकी छुटटी 2 जून को ही कर दी ।
सुनील एक 21-22 साल का नौजवान जो पढ़ाई के दौरान एक छात्र संगठन के संपर्क मंे आया अैार प्राईवेट यनिवर्सिटी बिल 2007 का विरोध करने के कारण जेल गया अैार अब भी यह मामला कोर्ट मंे विचाराधीन है। अब सवाल यह उठता है क्या किसी व्यक्ति पर यदि कोई केस दर्ज हो गया हो तो उसे अपनी आजीविका कमाने का भी कोई हक नहीं है? क्या दुनिया के सबसे बडे़ लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत देश में ऐसे ही पुलिस लोगों को मानसिक ओर शारीरिक यातनांए देती रहेगी? क्या ऐसे ही झूठे केसों में लोगों को फंसाकर उन्हें तंग करती रहेगी?