Thursday, December 03, 2009

कविता रागो

रागो 1
रागाओं से प्रसिद्ध प्रदेष की
छान ली पांव से
घरों मंे खेतुल मंे घोटुल मंे
नहीं दिखाई दिए मुझे
रागाआंे के टंगे पिंजरे
एकाध ही नजर आए
इनमंे भी अजीब सी बेचैनी थी
स्पष्ट कहूॅं तो तडफडाहट थी
क्हां गए रागो ?
स्दा बतियाने वाले
घरों को हंसाने वाले
सदा ही उंगलियों के इषारों पर
नाचने वाले
सबको सकून देने वाले
कहां गए रागो ?
सुन्दर से पंख तराषे थे
पिंजरे में सब खाने को देते
कितने नियम बनाए
कितने संस्कार दिए



नजरों से कभी ओझल नहीं होने दिया
सुनने को नहीं मिल पाई
बचपन से रटी रटाई मीठी बातंे
बस बचे थे तो षिकारी के मुंह बाए
खाली टंगे पिंजरे
कभी बन्द रहते थे इनमंे
सुन्दर सुषील
सहनषील-आज्ञाकारी रागो
ठीक कहते थे बुजुर्ग हमारे
बेवफा होते हैं रागो
थोडा खुला छोडा नहीं
फुर से उड
जाते है।
रागो 2.
मैं साक्षात्कार हूं रागाओं से
उनके पाटा से ,डाका से
जीवन से संघर्ष से
घीरा हुआ पूछता हूं उनसे
कितने सुन्दर-कितने मजबूत थे
तुम्हारे पिंजरे?
कितनी पीढियों से कवायदषुरू थी
उन्हें मजबूती देने की ?
कैसे कतरे अकेली ताकत से पिंजरे ?
तैष मंे आ गई रागो
कल तलक हां कल तलक
मैनंे वही किया जो कहा गया
लोगों को गुदगुदाने की भाषा
मेरी नहीं थी
मेरे पंख कतरे गए थे
कैदी नहीं आजादी मेरी फितरत
पिंजरा नहीं नीलगगन मेरा बसेरा
अकेला नहीं समूह मेरा स्वभाव
रही बात ताकत की
सदियों से कैदी रहते
ज्वालामुखी बन गया था मेरा गुस्सा
आजादी की तडफडाहट मंे
कुछ ऐसे फडफडाए मेरे पंख
चीन्दी-चीन्दी उडी
उनके पिंजरों की ।
1़ पाटा -गीत
2़ डाका-नाच


रागो 3
रागो नहीं रही
बन्दी का प्रतीक
मुक्ति की चाहत मंे
बन्दिषों को तोडती
पुरूष प्रधानता से लड
घरों को छोडती
कन्धंे पर बन्दूक सजाए
समरभूमि मंे कूदती
हर विद्रोही स्त्री का
पहला नाम बन गया है ष्रागोश् ।


सामने हो मन्जिल तो,

कभी रास्ते ना मोड़ना !

जो मन में हो ख्वाब,

कभी उसे ना तोड़ना !

हर कदम पर मिलेगी,

कामयाबी आपको !

बस सितारे चुनने के लिए,

कभी भी जमीं ना छोड़ना !

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