Thursday, February 04, 2010

प्रेस क्लब में नक्सली समर्थक बुद्धिजीवियों की नो एंट्री

अजय प्रकाश

राजनीतिक व्यवस्था में सर्वाधिक लोकतांत्रिक मूल्यों की पैरोकार मीडिया में यह पहली घटना है जब रायपुर प्रेस क्लब ने नक्सली समर्थक बुद्धिजीवियों को क्लब में कार्यक्रम न करने देने का सर्वसम्मति से फैसला किया है। क्लब ने यह प्रतिबंध समान रूप से वैसे वकीलों पर भी लागू किया है जो क्लब समिति की निगाह में नक्सली समर्थक हैं।
नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडूम अभियान शुरू करने वाली छत्तीसगढ़ सरकार के पास ऐसे कई रिकार्ड हैं जो अलोकतांत्रिक कानूनों को लागू करने में उसे पहला स्थान देते हैं। लेकिन यह पहली बार है जब राज्य में प्रेस प्रतिनिधियों की एक संस्था जो कि गैर सरकारी है, वह सरकारी भाषा का वैसा ही इस्तेमाल कर रही है जैसा की सरकार पिछले कई वर्षों में लगातार करती रही है।
दंतेवाड़ा में वनवासी चेतना आश्रम में पांच जनवरी को हैदराबाद और मुंबई से आये चार लोगों और स्थानीय पत्रकारों के बीच हुई मारपीट के बाद प्रेस क्लब का यह फरमान आया। बाहर से आये चार लोगों में फिल्म निर्माता निशता जैन, लेखक-पत्रकार सत्येन बर्दलोइ, कानून के छात्र सुरेश कुमार और पत्रकार प्रियंका बोरपुजारी शामिल हैं, के खिलाफ स्थानीय पत्रकारों ने मारपीट और कैमरा छीन लिये जाने का मुकदमा स्थानीय थाने में दर्ज कराया है।

इस मामले में प्रियंका बोरपुजारी से बात हुई तो उन्होंने कहा कि ‘चूंकि हिमांशु कुमार आश्रम में नहीं थे और स्थितियां बहुत संदेहास्पद थीं, वैसे में आश्रम में आयीं चार आदिवासी महिलाओं को हम लोग अकेले छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। लेकिन पुलिस-एसपीओ के तीस जवान जो कई घंटों से आश्रम को घेरे हुए थे, उन्हें ले जाना चाहते थे। इसको लेकर हम लोगों और उनमें कई बार तु-तु, मैं-मैं भी हुई। शाम ढलने से पहले कुछ लोग हम लोगों का फोटो खींचने लगे, वीडियो बनाने लगे। हमने विरोध किया, उनसे उनकी पहचान पूछी। फिर क्या था, वह हम लोगों से भीड़ गये और लाख जूझने के बावजूद आखिरकार मेरे हाथ से वीडियो कैमरा छीन लिया और सत्येन बर्दलोइ और सुरेश कुमार को पीटा। लेकिन हम लोग जब इस मामले में थाने गये तो पुलिस ने मुकदमा दर्ज करने से इनकार कर दिया। जाहिर तौर पर मीडियाकर्मियों ने जो हमारे साथ सुलूक किया और स्थानीय मीडिया को लेकर हमारे जो अनुभव रहे उस आधार पर हमने उन्हें बिकाऊ कहा।’
इसके बाद प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर ने 17 जनवरी को क्लब प्रतिनिधियों की आपात बैठक में कहा कि ‘दंतेवाड़ा में स्थानीय मीडिया को बिकाऊ कहने वाले कथित बुद्धिजीवियों के खिलाफ प्रशासनिक कार्यवाही हो, नहीं तो हमारे विरोध का तरीका बदल जायेगा। साथ ही ऐसे लोगों और एनजीओ को प्रेस क्लब में किसी भी तरह के कार्यक्रम करने की अनुमति न दी जाये। इसी तरह नक्सलवाद को जाने-समझे बिना मीडिया पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले अधिवक्ता के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जायेगी।’ बाद में इस प्रस्ताव का प्रेस क्लब के सदस्यों ने समर्थन दिया। छत्तीसगढ़ वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन के प्रदेश अध्यक्ष नारायण शर्मा, धनवेंद्र जायसवाल, कौशल स्वर्णबेर ने भी इस मामले में ऐसे बुद्धिजीवियों के बयान की निंदा की और छत्तीसगढ़ आगमन पर कड़े विरोध की चेतावनी दी।
चेतावनी से आगे प्रेस क्लब अध्यक्ष ने इस बाबत और क्या कहा, जानने के लिए रायपुर से प्रकाशित हिंदी दैनिक ''हरिभूमि'' की कटिंग को यहां लगाया जा रहा है जिसे आप देख सकते हैं।

इस बारे में जन वेबसाइट सीजीनेट के माडरेटर और पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी से बातचीत हुई तो उनका कहना था, ‘प्रेस क्लब के पास ऐसा कौन सा पैमाना है जिससे किसी के नक्सल समर्थक होने को तौला जाना है। आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ बोलने वाला हर आदमी सरकार की निगाह में माओवादी है और चुप रहने वाला देशभक्त।’ कुछ इसी तरह की बात सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण भी कहते हैं, जिनके खिलाफ प्रेस क्लब ने टिप्पणी की है कि 'ऐसे वकीलों पर भी कानूनी कार्यवाही की जायेगी।'
पिछले दिनों रायपुर यात्रा के दौरान प्रशांत भूषण ने एक अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि ‘प्रदेश के डीजीपी विश्वरंजन राज्य में बढ़ती हिंसा और मानवाधिकारों के हनन के लिए व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदार हैं। अगर हालात यूं ही बदतर रहे तो कभी वह आदिवासियों के रिश्तेदारों या माओवादियों द्वारा मार दिये जायेंगे, नहीं तो जेल जायेंगे।’ रायपुर प्रेस क्लब के यह कहने पर कि वह प्रशांत भूषण जैसे वकीलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करेगा और मंच मुहैया नहीं करायेगा, के जवाब में प्रशांत भूषण ने कहा ‘यह गैर संवैधानिक और मूल अधिकारों का हनन है। प्रेस क्लब से पूछा जाना चाहिए कि क्या सरकार माओवादी समर्थकों को गिनने में सक्षम नहीं है, जो प्रेस क्लब यह काम अपने हाथों में ले रहा है।’ इस बारे में प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर कहते हैं- ‘प्रेस ने गलतबयानी की है।’ जबकि ''हरिभूमि'' में छपी खबर की तफ्शीश करने पर समाचार पत्र के रायपुर संपादक से पता चला कि ‘यह खबर सभी दैनिकों में छपी है, वह अब मुकर जायें तो बात दीगर है।’
सवाल यह है कि अगर मीडिया को कोई दलाल कहता है तो क्या उसे प्रेस क्लब में आने से रोक देना उचित है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग करने वाले मीडिया के जनतांत्रिक संस्थाओं के रहनुमा ही ऐसी ऊटपटांग बातें करेंगे तो सरकार के बाकी धड़ों से हम किस नैतिकता के बल पर पारदर्शी होने की मांग करेंगे? हाल-फिलहाल की बात करें तो बिकते मीडिया को लेकर सर्वाधिक चिंता मीडियाकर्मियों की ही रही है। हमारे बीच नहीं रहे पत्रकार प्रभाष जोशी इसके सबसे सटीक उदाहरण हैं, जिन्होंने जीवन के अंतिम समय तक मीडिया की दलाली पर तीखी टिप्पणी की। उन्हीं के द्वारा उठायी गयी आवाज का असर है कि एडिटर्स गिल्ड में इस मसले पर गंभीरता से विचार करने का सिलसिला शुरू हुआ है।
प्रेस क्लब के इस निर्णय पर अध्यक्ष अनिल पुसदकर से बातचीत-

एनजीओ, बुद्धिजीवियों और वकीलों के वह कौन से लक्षण हैं जिसके आधार पर आप प्रेस क्लब उनको मंच के तौर पर इस्तेमाल नहीं करने देंगे?

हमने ऐसा नहीं कहा। बाहर से आकर जो लोग सच्चाई जाने बगैर छत्तीसगढ़ की मीडिया को बिकाऊ और दलाल कह रहे हैं उन्हें प्रेस क्लब का मंच के तौर पर इस्तेमाल नहीं करने दिया जायेगा। कुछ ही दिन पहले संदीप पाण्डेय और मेधा पाटकर क्लब में कार्यक्रम करके गये हैं लेकिन हमने उन्हें नहीं रोका। जबकि प्रेस क्लब के बाहर लोग उनके खिलाफ धरना दे रहे थे।

लेकिन आपने ये कैसे तय किया कि मेधा पाटकर और संदीप पाण्डेय नक्सली बुद्धिजीवी हैं?

आप हमारी बात नहीं समझ रहे। मेरा कहना है कि अगर ऐसे बुद्धिजीवियों को आने से रोकने का हमारा निर्णय होता तो उन्हें हम क्यों आने देते। प्रेस क्लब सबका सम्मान करता है।

किस वकील पर कानूनी कार्यवाही की बात आपने की है?

सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण को ही लीजिए। वे पेशे से वकील हैं लेकिन जिस तरह वह यहां के बारे में बोलकर गये, क्या ठीक था।

प्रशांत भूषण ने प्रेस क्लब के बारे में कुछ कहा क्या?
छत्तीसगढ के डीजीपी विश्वरंजन के बारे में की गयी प्रशांत भूषण की टिप्पणी अपमानजनक थी। हम राज्य के लोग हैं और राज्य या यहां के किसी अधिकारी के बारे में अपमानजनक टिप्पणी कैसे सहन कर सकते हैं।

रायपुर के दैनिकों में जो आपके हवाले से इस बारे में छपा है वो क्या है?
हमने वैसा नहीं कहा, जैसा उन्होंने छापा।

प्रेस ने आपको लेकर जो गलतबयानी की है इस बारे में क्लब ने कोई शिकायत दर्ज की है?
कैसे दर्ज करायें, अभी बीमार हैं।

स्थानीय मीडिया को कोई दलाल या बिकाऊ बोलेगा तो उसे क्लब को मंच नहीं बनाने देंगे, ऐसा क्यों?
जैसे दंतेवाड़ा की घटना है तो वहां के स्थानीय मीडिया को कोई कुछ कहे तो बात समझ में आती है, लेकिन कोई पूरे छत्तीसगढ़ की मीडिया को दलाल बोले तो कोई पत्रकार कैसे सहन कर सकता है? दूसरा कि जो लोग बाहर से आये थे उन्होंने स्थानीय मीडियाकर्मियों से मारपीट की और कैमरा छीन लिया।

लेकिन पता तो यह चला है कि जब मेधा पाटकर और संदीप पाण्डेय आये थे तब उन लोगों का कैमरा पुलिस ने वापस किया?
इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है।

आपको अपने बयान पर खेद है?
हमने जब कहा ही नहीं तो खेद किस बात का। यह तो मीडिया की गलतबयानी है, जिसका मैं जवाब दे रहा हूं।

पाठशाला

बड़े सपनों की पाठशाला का नन्हा हेडमास्टर

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16 साल के बाबर अली का स्कूल बताता है कि बड़े काम बड़ी उम्र के मोहताज नहीं होते. सम्राट चक्रबर्ती की रिपोर्ट

स्कूल के सभी 9 शिक्षक हाईस्कूल के छात्र हैं. इनमें देबारिता सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे हैं. दरअसल, यहां का हर शिक्षक इस शिक्षा आंदोलन की अगुवाई कर रहा है और गहराई से इसका महत्व जानता है

प. बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में स्थित बेल्डांगा रेलवे क्रॉसिंग के आस-पास शायद ही ऐसा कुछ हो जो आपको खास लगे. लेकिन कोलकाता से हमारी पांच घंटे की बस यात्रा की मंजिल यहीं थी. मार्क्सवादी सपने दिखानेवाले और शादीशुदा दंपत्तियों की निजी समस्याओं के समाधान का दावा करते पोस्टरों से पटी पड़ी कंक्रीट की एक जीर्ण-शीर्ण इमारत. इसी इमारत के भीतर सीलन भरा एक छोटा-सा कमरा है जहां डेस्क के पीछे एक बेहद खास शख्स बैठता है और जिसका नाम ब्रिटेन की महारानी भी जानती हैं. हम भी इसी से मिलने आए हैं. दुबले-पतले और कुछ परेशान से दिख रहे इस 16 साल के लड़के का नाम है-बाबर अली. दुनिया में सबसे कम उम्र का स्कूल हेडमास्टर.

स्कूल के इस ऑफिस के पीछे ही जो घूरे का ढेर है उसके बगल में बाबर का घर है. यहीं अहाते में आमने-सामने मुंह करके आयताकार घेरों में बो बैठे हुए हैं. खुले आसमान के नीचे बैठे इन बच्चों में से कुछ अपनी किताबों में आंखें गड़ाए हैं तो कुछ इधर-उधर ताक रहे हैं. इन्हीं बच्चों के बीच में खाकी पैंट पहने खड़े हैं हेडमास्टर साहब जो लगातार जोर-जोर से बच्चों को निर्देश दे रहे हैं. हेडमास्टर की बात सारे बच्चों के मतलब की नहीं है इसलिए कुछ ही दूर टेढ़ी-मेढ़ी लाइनों में बैठे पहली कक्षा के बच्चों को आप हंसी-ठिठोली करते और धूल में खेलते हुए देख सकते हैं.

यह है बाबर अली का स्कूल-आनंद शिक्षा निकेतन. यदि आप यह जानना चाहते हैं कि भारत की इस नई लेकिन पिछड़ी पौध में शिक्षा की कितनी भूख है, तो आपका इस स्कूल में स्वागत है. यह स्कूल उन 800 बच्चों की पढ़ने-लिखने में मदद कर रहा है जो औपचारिक शिक्षा तंत्र से छिटक गए हैं. यहां बच्चे कई किलोमीटर दूर से पैदल चलकर सिर्फ इसलिए आते हैं ताकि ब्लैकबोर्ड पर चाक से बने आड़े-तिरछे निशानों को समझकर समझदार बन सकें. बाबर अली का यह आनंद शिक्षा निकेतन स्कूल खेल-खेल में बन गया था. जैसा कि वह बताता है, ‘हम स्कूल-स्कूल खेला करते थे. मेरे दोस्त कभी स्कूल नहीं गए थे. वे छात्र बनते थे और मैं हेडमास्टर. खेल-खेल में वे अंकगणित सीख गए.’ 2002 में बाबर ने इस खेल को कुछ गंभीरता से लिया और आठ विद्यार्थियों के साथ स्कूल शुरू कर दिया.

लेकिन सिर्फ विद्यार्थियों को जुटाने से स्कूल नहीं चलनेवाला था. पेन, कॉपी, पेंसिल की भी जरूरत थी. इसके लिए पहला निवेश किया बाबर के पिता नसीरुद्दीन शेख ने. कई मौकों पर नसीरुद्दीन अपने बेटे को 50 रुपए देते थे ताकि वह बच्चों के लिए चटाई, पेंसिल और कॉपियां खरीद सके. लेकिन बाद में जैसे-जैसे इस नन्हे हेडमास्टर और उसके स्कूल की खबर फैलती गई लोग मदद करने के लिए आगे आते गए. मदद करनेवालों में बाबर के स्कूल शिक्षकों, स्थानीय रामकृष्ण मिशन के संन्यासियों, आईएएस अधिकारियों से लेकर स्थानीय पुलिसकर्मी भी शामिल हो गए. बाबर ने अपने स्कूल में जब मध्याह्न भोजन की शुरुआत की तो पहले चावल उसके पिता के खेत से ही आया लेकिन अब स्थानीय प्रशासन में स्थित दोस्तों की मदद से अनाज सरकारी कोटे से आता है.

‘मैं घर पर बेटी की होमवर्क में मदद नहीं कर पाती थी, इसलिए मैंने फैसला किया कि अब मैं भी पढ़ूंगी.’

बाबर, प. बंगाल के गंगापुर गांव के भाप्टा इलाके में अपने तीन भाई-बहनों और माता-पिता के साथ रहता है. ईंटों से बने उसके इस टूटे-फूटे छोटे-से घर का आकार शहरी इलाकों के किचन के बराबर होगा. जूट बेचने का व्यवसाय करनेवाले बाबर के पिता नसीर खुद दूसरी कक्षा से आगे नहीं पढ़ पाए मगर उनका मानना है इनसान का सच्चा धर्म शिक्षा है. इस नन्हे हेडमास्टर का हर दिन सुबह सात बजे शुरू होता है जब वह पांच किमी पैदल चलकर बेल्डांगा के कासिम बाजार स्थित राज गोविंद सुंदरी विद्यापीठ में जाता है. यहां बाबर बारहवीं कक्षा का छात्र है. दोपहर एक बजे स्कूल खत्म होते ही वह अपनी दूसरी भूमिका के लिए तैयार हो जाता है. तब तक बाबर के छात्र घरों, खेतों और भैंसों के काम से निपटकर टुलु मौसी की घंटी बजने से पहले स्कूल जाने को तैयार रहते हैं. सफेद साड़ी पहननेवाली और स्कूल में एक हाथ में छड़ी रखकर घूमनेवालीं टुलु रानी हाजरा मछली बेचने का काम करती हैं और दोपहर के वक्त वे इस शिक्षा आंदोलन की सक्रिय सदस्य बन जाती हैं. दिलचस्प है कि टुलु को पढ़ना-लिखना नहीं आता. वे सुबह घूम-घूम कर मछली बेचने के दौरान उन लोगों से मिलती हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया है. अपने स्कूल के लिए नए छात्र जोड़ना भी उनका काम है. अब तक वे ऐसे 80 छात्रों को स्कूल की राह दिखा चुकी हैं.

स्कूल में छोटे बच्चों की तादाद काफी ज्यादा है, शायद इसलिए क्योंकि इन्हें स्कूल और शिक्षा से जोड़ना आसान काम होता है. यहां पहली और दूसरी कक्षा में फिलहाल 200 छात्र हैं, लेकिन आठवीं में सिर्फ 20. आठवीं के इन छात्रों को 10 विषय पढ़ाए जाते हैं. बड़ी कक्षा के इन छात्रों को बाबर और देबारिता भट्टाचार्य पढ़ाते हैं. भट्टाचार्य यहीं के एक और स्वयंसेवक हैं जो बहरामपुर कॉलेज में पढ़ते हैं. यह स्कूल सरकारी मान्यता के लिए जरूरी मानकों से काफी दूर है, लेकिन यहां के छात्रों को पं बंगाल बोर्ड का पाठ्यक्रम ही पढ़ाया जाता है. पहली से पांचवीं तक पाठ्य पुस्तकें यहां मुफ्त मिलती हैं लेकिन बाकी व्यवस्थाओं के लिए पैसा जुटाया जाता है. हर दिन आपको इस स्कूल में कम से कम 400 विद्यार्थी मिल ही जाएंगे. स्कूल सप्ताह में दोपहर 3 बजे से शाम 7 बजे तक चलता है, और इतवार को सुबह 11 बजे से 4 बजे तक. यहां सालाना खेल दिवस और सांस्कृतिक दिवस का भी आयोजन होता है.

स्कूल के सभी 9 शिक्षक हाईस्कूल के छात्र हैं. इनमें देबारिता सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे हैं. दरअसल, यहां का हर शिक्षक इस शिक्षा आंदोलन की अगुवाई कर रहा है और गहराई से इसका महत्व जानता है. दसवीं में पढ़नेवाले इम्तियाज शेख कहते हैं, ‘शिक्षा अंधियारा दूर करती है. यहां जिंदगी बेहतर बनाने का यही रास्ता है. मैं इसीलिए यहां पढ़ाता हूं.’ लेकिन क्या इन शिक्षकों की कम उम्र छात्रों को संभालने में आड़े नहीं आती? इस पर बाबर कहते हैं, ‘हमारे बीच उम्र का कम फासला इस हिसाब से फायदेमंद है कि हम छात्रों के साथ दोस्तों की तरह रह सकते हैं. मेरे स्कूल में छड़ी कोने में पड़ी रहती है.’

खेल-खेल में शुरू हुए इस स्कूल का चलना शुरू में खेल की तरह आसान नहीं था. बड़े-बुजुर्गो ने इस बारे में कई सवाल-जवाब किए थे; उन लोगों को पढ़ाने का क्या मतलब जिन्हें दो वक्त का खाना नसीब नहीं हो पाता? लड़कियां पढ़-लिख गईं तो उनकी शादी कैसे होगी? लेकिन बाबर के पिता, जो मानते हैं कि इस दुनिया में निरक्षर होना सबसे शर्मिदगी की बात है,ने न सिर्फ इन सवालों को हवा में उड़ा दिया, बल्कि अपनी बेटी और नौंवीं कक्षा की छात्रा अमीना को स्कूल भेजकर तय किया कि लड़कियों की पढ़ाई को लेकर लोगों की हिचकिचाहट दूर की जाएगी. इस छोटी-सी कोशिश ने आस-पास के दो-तीन किमी के दायरे में सारे मजदूरों और छोटे किसानों की बेटियों को बाबर के स्कूल पहुंचा दिया. मुमताज बेगम इन्हीं महिलाओं में शामिल हैं जो न सिर्फ अपनी बेटी मोनियारा खातून को स्कूल में पढ़ने के लिए भेजती हैं बल्कि अब खुद भी इसी स्कूल में पढ़ने लगी हैं. हर दिन 20 किमी दूर से स्कूल आनेवाली मुमताज सातवीं कक्षा की छात्रा हैं और मोनियारा तीसरी की. मुमताज कहती हैं, ‘मैं घर पर बेटी की होमवर्क में मदद नहीं कर पाती थी, इसलिए मैंने फैसला किया कि अब मैं भी पढ़ूंगी.’

इस नन्हे हेडमास्टर के काम को न सिर्फ भारत में बल्कि विश्व स्तर पर भी सराहा गया है. हाल ही में बाबर को प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संस्था टेक्नोलॉजी, एंटरटेनमेंट, डिजाइन (टेड) का फेलो चुना गया है. बाबर को संस्था ने विश्व स्तर पर एक महत्वपूर्ण सामाजिक-उद्यमी का दर्जा दिया है. पिछले साल फ्रांसीसी डॉक्युमेंटरी फिल्म निर्माताओं, दक्षिण कोरिया के पत्रकारों और बीबीसी सहित कई माध्यमों ने बाबर की कहानी को दुनिया भर में फैलाया था. दिलचस्प बात यह भी है कि बाबर ने फेसबुक नाम भी नहीं सुना लेकिन आपको इस सोशल नेटवर्किंग साइट पर उसके नाम से एक पृष्ठ मिल जाएगा. हालांकि उसने इंटरनेट पर चल रही इन खबरों के बारे में सुना जरूर है और वह कंप्यूटर के बारे में भी जानता है, लेकिन उसके बारे में क्या कहा जा रहा है यह उसे नहीं पता.

सपने देखनेवाले और उन्हें जमीन पर उतारनेवाले इस नन्हे हेडमास्टर का अगला सपना है- अपने स्कूल के लिए एक पक्की इमारत. और उसमें एक प्रयोगशाला, खेल का मैदान और हो सके तो एक ऑडिटोरियम भी. लेकिन ये फिलहाल बाद की बातें हैं.

यहां से लौटते हुए हम बार-बार सोच रहे थे कि क्या सच में बड़े कामों की बुनियाद सपनों में छिपी होती है? शायद हां, बाबर का स्कूल देखकर तो यही लगता है.