Thursday, February 04, 2010

पाठशाला

बड़े सपनों की पाठशाला का नन्हा हेडमास्टर

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16 साल के बाबर अली का स्कूल बताता है कि बड़े काम बड़ी उम्र के मोहताज नहीं होते. सम्राट चक्रबर्ती की रिपोर्ट

स्कूल के सभी 9 शिक्षक हाईस्कूल के छात्र हैं. इनमें देबारिता सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे हैं. दरअसल, यहां का हर शिक्षक इस शिक्षा आंदोलन की अगुवाई कर रहा है और गहराई से इसका महत्व जानता है

प. बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में स्थित बेल्डांगा रेलवे क्रॉसिंग के आस-पास शायद ही ऐसा कुछ हो जो आपको खास लगे. लेकिन कोलकाता से हमारी पांच घंटे की बस यात्रा की मंजिल यहीं थी. मार्क्सवादी सपने दिखानेवाले और शादीशुदा दंपत्तियों की निजी समस्याओं के समाधान का दावा करते पोस्टरों से पटी पड़ी कंक्रीट की एक जीर्ण-शीर्ण इमारत. इसी इमारत के भीतर सीलन भरा एक छोटा-सा कमरा है जहां डेस्क के पीछे एक बेहद खास शख्स बैठता है और जिसका नाम ब्रिटेन की महारानी भी जानती हैं. हम भी इसी से मिलने आए हैं. दुबले-पतले और कुछ परेशान से दिख रहे इस 16 साल के लड़के का नाम है-बाबर अली. दुनिया में सबसे कम उम्र का स्कूल हेडमास्टर.

स्कूल के इस ऑफिस के पीछे ही जो घूरे का ढेर है उसके बगल में बाबर का घर है. यहीं अहाते में आमने-सामने मुंह करके आयताकार घेरों में बो बैठे हुए हैं. खुले आसमान के नीचे बैठे इन बच्चों में से कुछ अपनी किताबों में आंखें गड़ाए हैं तो कुछ इधर-उधर ताक रहे हैं. इन्हीं बच्चों के बीच में खाकी पैंट पहने खड़े हैं हेडमास्टर साहब जो लगातार जोर-जोर से बच्चों को निर्देश दे रहे हैं. हेडमास्टर की बात सारे बच्चों के मतलब की नहीं है इसलिए कुछ ही दूर टेढ़ी-मेढ़ी लाइनों में बैठे पहली कक्षा के बच्चों को आप हंसी-ठिठोली करते और धूल में खेलते हुए देख सकते हैं.

यह है बाबर अली का स्कूल-आनंद शिक्षा निकेतन. यदि आप यह जानना चाहते हैं कि भारत की इस नई लेकिन पिछड़ी पौध में शिक्षा की कितनी भूख है, तो आपका इस स्कूल में स्वागत है. यह स्कूल उन 800 बच्चों की पढ़ने-लिखने में मदद कर रहा है जो औपचारिक शिक्षा तंत्र से छिटक गए हैं. यहां बच्चे कई किलोमीटर दूर से पैदल चलकर सिर्फ इसलिए आते हैं ताकि ब्लैकबोर्ड पर चाक से बने आड़े-तिरछे निशानों को समझकर समझदार बन सकें. बाबर अली का यह आनंद शिक्षा निकेतन स्कूल खेल-खेल में बन गया था. जैसा कि वह बताता है, ‘हम स्कूल-स्कूल खेला करते थे. मेरे दोस्त कभी स्कूल नहीं गए थे. वे छात्र बनते थे और मैं हेडमास्टर. खेल-खेल में वे अंकगणित सीख गए.’ 2002 में बाबर ने इस खेल को कुछ गंभीरता से लिया और आठ विद्यार्थियों के साथ स्कूल शुरू कर दिया.

लेकिन सिर्फ विद्यार्थियों को जुटाने से स्कूल नहीं चलनेवाला था. पेन, कॉपी, पेंसिल की भी जरूरत थी. इसके लिए पहला निवेश किया बाबर के पिता नसीरुद्दीन शेख ने. कई मौकों पर नसीरुद्दीन अपने बेटे को 50 रुपए देते थे ताकि वह बच्चों के लिए चटाई, पेंसिल और कॉपियां खरीद सके. लेकिन बाद में जैसे-जैसे इस नन्हे हेडमास्टर और उसके स्कूल की खबर फैलती गई लोग मदद करने के लिए आगे आते गए. मदद करनेवालों में बाबर के स्कूल शिक्षकों, स्थानीय रामकृष्ण मिशन के संन्यासियों, आईएएस अधिकारियों से लेकर स्थानीय पुलिसकर्मी भी शामिल हो गए. बाबर ने अपने स्कूल में जब मध्याह्न भोजन की शुरुआत की तो पहले चावल उसके पिता के खेत से ही आया लेकिन अब स्थानीय प्रशासन में स्थित दोस्तों की मदद से अनाज सरकारी कोटे से आता है.

‘मैं घर पर बेटी की होमवर्क में मदद नहीं कर पाती थी, इसलिए मैंने फैसला किया कि अब मैं भी पढ़ूंगी.’

बाबर, प. बंगाल के गंगापुर गांव के भाप्टा इलाके में अपने तीन भाई-बहनों और माता-पिता के साथ रहता है. ईंटों से बने उसके इस टूटे-फूटे छोटे-से घर का आकार शहरी इलाकों के किचन के बराबर होगा. जूट बेचने का व्यवसाय करनेवाले बाबर के पिता नसीर खुद दूसरी कक्षा से आगे नहीं पढ़ पाए मगर उनका मानना है इनसान का सच्चा धर्म शिक्षा है. इस नन्हे हेडमास्टर का हर दिन सुबह सात बजे शुरू होता है जब वह पांच किमी पैदल चलकर बेल्डांगा के कासिम बाजार स्थित राज गोविंद सुंदरी विद्यापीठ में जाता है. यहां बाबर बारहवीं कक्षा का छात्र है. दोपहर एक बजे स्कूल खत्म होते ही वह अपनी दूसरी भूमिका के लिए तैयार हो जाता है. तब तक बाबर के छात्र घरों, खेतों और भैंसों के काम से निपटकर टुलु मौसी की घंटी बजने से पहले स्कूल जाने को तैयार रहते हैं. सफेद साड़ी पहननेवाली और स्कूल में एक हाथ में छड़ी रखकर घूमनेवालीं टुलु रानी हाजरा मछली बेचने का काम करती हैं और दोपहर के वक्त वे इस शिक्षा आंदोलन की सक्रिय सदस्य बन जाती हैं. दिलचस्प है कि टुलु को पढ़ना-लिखना नहीं आता. वे सुबह घूम-घूम कर मछली बेचने के दौरान उन लोगों से मिलती हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया है. अपने स्कूल के लिए नए छात्र जोड़ना भी उनका काम है. अब तक वे ऐसे 80 छात्रों को स्कूल की राह दिखा चुकी हैं.

स्कूल में छोटे बच्चों की तादाद काफी ज्यादा है, शायद इसलिए क्योंकि इन्हें स्कूल और शिक्षा से जोड़ना आसान काम होता है. यहां पहली और दूसरी कक्षा में फिलहाल 200 छात्र हैं, लेकिन आठवीं में सिर्फ 20. आठवीं के इन छात्रों को 10 विषय पढ़ाए जाते हैं. बड़ी कक्षा के इन छात्रों को बाबर और देबारिता भट्टाचार्य पढ़ाते हैं. भट्टाचार्य यहीं के एक और स्वयंसेवक हैं जो बहरामपुर कॉलेज में पढ़ते हैं. यह स्कूल सरकारी मान्यता के लिए जरूरी मानकों से काफी दूर है, लेकिन यहां के छात्रों को पं बंगाल बोर्ड का पाठ्यक्रम ही पढ़ाया जाता है. पहली से पांचवीं तक पाठ्य पुस्तकें यहां मुफ्त मिलती हैं लेकिन बाकी व्यवस्थाओं के लिए पैसा जुटाया जाता है. हर दिन आपको इस स्कूल में कम से कम 400 विद्यार्थी मिल ही जाएंगे. स्कूल सप्ताह में दोपहर 3 बजे से शाम 7 बजे तक चलता है, और इतवार को सुबह 11 बजे से 4 बजे तक. यहां सालाना खेल दिवस और सांस्कृतिक दिवस का भी आयोजन होता है.

स्कूल के सभी 9 शिक्षक हाईस्कूल के छात्र हैं. इनमें देबारिता सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे हैं. दरअसल, यहां का हर शिक्षक इस शिक्षा आंदोलन की अगुवाई कर रहा है और गहराई से इसका महत्व जानता है. दसवीं में पढ़नेवाले इम्तियाज शेख कहते हैं, ‘शिक्षा अंधियारा दूर करती है. यहां जिंदगी बेहतर बनाने का यही रास्ता है. मैं इसीलिए यहां पढ़ाता हूं.’ लेकिन क्या इन शिक्षकों की कम उम्र छात्रों को संभालने में आड़े नहीं आती? इस पर बाबर कहते हैं, ‘हमारे बीच उम्र का कम फासला इस हिसाब से फायदेमंद है कि हम छात्रों के साथ दोस्तों की तरह रह सकते हैं. मेरे स्कूल में छड़ी कोने में पड़ी रहती है.’

खेल-खेल में शुरू हुए इस स्कूल का चलना शुरू में खेल की तरह आसान नहीं था. बड़े-बुजुर्गो ने इस बारे में कई सवाल-जवाब किए थे; उन लोगों को पढ़ाने का क्या मतलब जिन्हें दो वक्त का खाना नसीब नहीं हो पाता? लड़कियां पढ़-लिख गईं तो उनकी शादी कैसे होगी? लेकिन बाबर के पिता, जो मानते हैं कि इस दुनिया में निरक्षर होना सबसे शर्मिदगी की बात है,ने न सिर्फ इन सवालों को हवा में उड़ा दिया, बल्कि अपनी बेटी और नौंवीं कक्षा की छात्रा अमीना को स्कूल भेजकर तय किया कि लड़कियों की पढ़ाई को लेकर लोगों की हिचकिचाहट दूर की जाएगी. इस छोटी-सी कोशिश ने आस-पास के दो-तीन किमी के दायरे में सारे मजदूरों और छोटे किसानों की बेटियों को बाबर के स्कूल पहुंचा दिया. मुमताज बेगम इन्हीं महिलाओं में शामिल हैं जो न सिर्फ अपनी बेटी मोनियारा खातून को स्कूल में पढ़ने के लिए भेजती हैं बल्कि अब खुद भी इसी स्कूल में पढ़ने लगी हैं. हर दिन 20 किमी दूर से स्कूल आनेवाली मुमताज सातवीं कक्षा की छात्रा हैं और मोनियारा तीसरी की. मुमताज कहती हैं, ‘मैं घर पर बेटी की होमवर्क में मदद नहीं कर पाती थी, इसलिए मैंने फैसला किया कि अब मैं भी पढ़ूंगी.’

इस नन्हे हेडमास्टर के काम को न सिर्फ भारत में बल्कि विश्व स्तर पर भी सराहा गया है. हाल ही में बाबर को प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संस्था टेक्नोलॉजी, एंटरटेनमेंट, डिजाइन (टेड) का फेलो चुना गया है. बाबर को संस्था ने विश्व स्तर पर एक महत्वपूर्ण सामाजिक-उद्यमी का दर्जा दिया है. पिछले साल फ्रांसीसी डॉक्युमेंटरी फिल्म निर्माताओं, दक्षिण कोरिया के पत्रकारों और बीबीसी सहित कई माध्यमों ने बाबर की कहानी को दुनिया भर में फैलाया था. दिलचस्प बात यह भी है कि बाबर ने फेसबुक नाम भी नहीं सुना लेकिन आपको इस सोशल नेटवर्किंग साइट पर उसके नाम से एक पृष्ठ मिल जाएगा. हालांकि उसने इंटरनेट पर चल रही इन खबरों के बारे में सुना जरूर है और वह कंप्यूटर के बारे में भी जानता है, लेकिन उसके बारे में क्या कहा जा रहा है यह उसे नहीं पता.

सपने देखनेवाले और उन्हें जमीन पर उतारनेवाले इस नन्हे हेडमास्टर का अगला सपना है- अपने स्कूल के लिए एक पक्की इमारत. और उसमें एक प्रयोगशाला, खेल का मैदान और हो सके तो एक ऑडिटोरियम भी. लेकिन ये फिलहाल बाद की बातें हैं.

यहां से लौटते हुए हम बार-बार सोच रहे थे कि क्या सच में बड़े कामों की बुनियाद सपनों में छिपी होती है? शायद हां, बाबर का स्कूल देखकर तो यही लगता है.

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