Thursday, December 03, 2009



फ़िल्में दे रही हैं बढावा आत्मकेन्द्र्रियता को

फ़िल्में दे रही हैं बढावा आत्मकेन्द्र्रियता को’
समाज को गर्त की ओर ढकेलता बालीवुड
नरेन्द्र कौर हिसार

आमतौर पर कहा जाता है कि मीडिया या फ़िल्में समाज का आईना होती हैं । समाज में घटित होने वाली घटनाओं से प्रेरणा पाकर ही फ़िल्में की पटकथा लिखी जाती है, परंतु आज का सिनेमा किसी और ही दिषा की तरफ जा रहा है । अतीत मे समाज के बहुसंख्यक वर्ग को फिल्मंो मंे जगह मिलती थी लेकिन आज का सिनेमा 90 प्रतिषत आबादी के लिए मात्र स्वप्नलोक रह गया है पुरानी फिल्मांे मंे नायक को समाज से जुड़ा दिखाया जाता था । नायक गांव के साथ मिलकर दुश्मनों से लड़ पाते थे मगर आज के नायक को सर्वेसर्वा दिखाया जाता है ’मदर इंडिया’, मेरा गांव मंेरा देष , उपकार , क्लर्क जैसी फिल्मंे व्यक्ति समाज और देष के जुड़ाव को दिखाती थी परंतु आज के नायक को सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए काम करते हुए या फिर मौज मस्ती और केवल प्यार और कैरियर के लिए लड़ते दिखाया जा रहा है । आज का सिनेमा उपभोक्तावाद का गुणगान करते हुए साम्राज्यवादी संस्कष्ति का पोशण कर रहा है । जिसका असर समाज में प्रत्यक्ष रूप् से देखने को मिल जाता है । इसी उपभोक्तावादी नजरिये के कारण ही सिनेमा का दूसरा रूझान महिला विरोधी भी होता जा रहा है ’नो एंट्री ‘ जैसी फिल्मंे मनोरंजन और हंसी मजाक के नाम पर औरत को उपभेग की वस्तु व पुरूश द्वारा महिला षोशण को जायज ठहराने की कोशिश की जा रही है वैसे तो यह काम बहुत पहले ही षुरू हो चुका था उदाहरण के लिए यदि हम प्रसिद्ध फिल्म हीरा पन्ना की अगर बात करंे तो उस जमाने में अंग प्रदर्षन की वह उत्कृष्ट सीमा थी और यदि उस जमाने में हेलेन पर फिल्माए गए गानांे को देखंे तो यह बात सपष्ट हो जाती है कि सिनेमा केवल देश के दस प्रतिषत लोगांे के लिए ही बना है । और आज के दौर में सिनेमा उन्हीं दस प्रतिषत लोगांे को ही विभिन्न सुनहले रूपांे में पेश कर रहा है । आम आदमी पर तो कभी प्याज कभी गैस तो कभी बढता किराया और कभी मंहगी होती पढाई यही मुददे उसकी चालीस वर्षों की जिन्दगी के लिए बहुत हो जाते है लेकिन बालीवुड इस बहुसंख्या को भी उन दस प्रतिषत लोगांे की तरह जो सिर्फ अपने पेट को देखते हैं कि वह भरा है या नहीं पड.ोसी से क्या लेना देना का ही संदेष देता जा रहा है ।

कविता रागो

रागो 1
रागाओं से प्रसिद्ध प्रदेष की
छान ली पांव से
घरों मंे खेतुल मंे घोटुल मंे
नहीं दिखाई दिए मुझे
रागाआंे के टंगे पिंजरे
एकाध ही नजर आए
इनमंे भी अजीब सी बेचैनी थी
स्पष्ट कहूॅं तो तडफडाहट थी
क्हां गए रागो ?
स्दा बतियाने वाले
घरों को हंसाने वाले
सदा ही उंगलियों के इषारों पर
नाचने वाले
सबको सकून देने वाले
कहां गए रागो ?
सुन्दर से पंख तराषे थे
पिंजरे में सब खाने को देते
कितने नियम बनाए
कितने संस्कार दिए



नजरों से कभी ओझल नहीं होने दिया
सुनने को नहीं मिल पाई
बचपन से रटी रटाई मीठी बातंे
बस बचे थे तो षिकारी के मुंह बाए
खाली टंगे पिंजरे
कभी बन्द रहते थे इनमंे
सुन्दर सुषील
सहनषील-आज्ञाकारी रागो
ठीक कहते थे बुजुर्ग हमारे
बेवफा होते हैं रागो
थोडा खुला छोडा नहीं
फुर से उड
जाते है।
रागो 2.
मैं साक्षात्कार हूं रागाओं से
उनके पाटा से ,डाका से
जीवन से संघर्ष से
घीरा हुआ पूछता हूं उनसे
कितने सुन्दर-कितने मजबूत थे
तुम्हारे पिंजरे?
कितनी पीढियों से कवायदषुरू थी
उन्हें मजबूती देने की ?
कैसे कतरे अकेली ताकत से पिंजरे ?
तैष मंे आ गई रागो
कल तलक हां कल तलक
मैनंे वही किया जो कहा गया
लोगों को गुदगुदाने की भाषा
मेरी नहीं थी
मेरे पंख कतरे गए थे
कैदी नहीं आजादी मेरी फितरत
पिंजरा नहीं नीलगगन मेरा बसेरा
अकेला नहीं समूह मेरा स्वभाव
रही बात ताकत की
सदियों से कैदी रहते
ज्वालामुखी बन गया था मेरा गुस्सा
आजादी की तडफडाहट मंे
कुछ ऐसे फडफडाए मेरे पंख
चीन्दी-चीन्दी उडी
उनके पिंजरों की ।
1़ पाटा -गीत
2़ डाका-नाच


रागो 3
रागो नहीं रही
बन्दी का प्रतीक
मुक्ति की चाहत मंे
बन्दिषों को तोडती
पुरूष प्रधानता से लड
घरों को छोडती
कन्धंे पर बन्दूक सजाए
समरभूमि मंे कूदती
हर विद्रोही स्त्री का
पहला नाम बन गया है ष्रागोश् ।


सामने हो मन्जिल तो,

कभी रास्ते ना मोड़ना !

जो मन में हो ख्वाब,

कभी उसे ना तोड़ना !

हर कदम पर मिलेगी,

कामयाबी आपको !

बस सितारे चुनने के लिए,

कभी भी जमीं ना छोड़ना !

गाँव खाली नहीं करेंगे मर जाएंगे 52 साल बाद जागा पुरातत्व विभाग






गाँव खाली नहीं करेंगे मर जाएंगे
52 साल बाद जागा पुरातत्व विभाग
पूरा देश विस्थापन का दंश झेल रहा है कहीं सेज के नाम पर लोगों को उजाड़ा जा रहा है तो कहीं बांधों और नेषनल पार्कों के बहाने । विकास और सौन्र्दयकरण के नाम पर गांव के गांव खाली कराए जा रहे हैं । हमेषा से ही लम्बे व जुझारू संघर्षों से दूर रहे हरियाणा सरीखे राज्य मंे भी लोगों ने अपनी आवाज बुलंद करनी षुरू कर दी है। अपनी जमीन छुटने,आषियाने उजड़ने का भय अब विद्रोह की आग में तबदील होने लगा है। लोग अतीत से सबक ले रहे हैं। चूकिं अब तक किसी न किसी बहाने अपनी छत से बेदखल हुए लोगों को न तो कोई मुआवजा मिला और न ही पुनर्वास की सुविधा।
पिछले 11 सालों से कैथल जिले के गांव पोलड़, निवासी अपने विस्थापित होने के डर से सहमे हुए हैं कि प्रषासन कब अपनी फौज के साथ आ धमके, उन्हें बेघर करने । इस बीच प्रषासन और गांव वालों के बीच कई संघर्ष हो चुके हैं और अब तक पुरातत्व विभाग को बैरंग ही लौटना पड़ा है। लेकिन अब पुरातत्व विभाग प्रक्रिया मंे तेजी आई है, इसके साथ ही लोगों के संघर्ष की तैयारियां भी जोर पकड़ने लगी हैं । पर सवाल यह उठता है कि क्या पोलड़ की जनता अपने संघर्ष के जरिये गांव को बचा पाएगी, इसका जवाब जानने के लिए हम गांव पोलड़ पहुंचे। कैथल से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी पर बसा यह गांव 5000 की आबादी समेटे है। गांव की 90 प्रतिषत आबादी दलित व पिछड़े वर्ग से है। गांव को एकबारगी देखने से यह लगता है कि सब कुछ सामान्य है लेकिन अन्दर जो गहमागहमी और उथल-पुथल मची है उसका अन्दाजा लगाना मुष्किल है। बस स्टैण्ड पर ही एक बुर्जुग अर्जुन दास चाय की दुकान चलाते हैं।जब हमने उनसे पूछा कि पुरातत्व विभाग और गांव के बीच क्या विवाद चल रहा है ? जैसे वे अपना दुख सुनाने के लिए किसी सुनने वाले का ही इन्तजार कर रहे थे। उन्होनंे हमंे बताया कि 1954-55 मंे यहां एक बाढ़ आई थी जिसके चलते गांव सीवन से अधिकतर लोग इस जगह पर आ बसे क्योंकि यह जगह काफी उंची थी। उस वक्त न तो यहां कोई पुरातत्व विभाग का आदमी था न ही उसका कोई बोर्ड। तब आबाद होते इस गांव को किसी ने नहीं रोका और धीरे-धीरे यह गांव अच्छी आबादी ले गया और यही नहीं प्रषासन द्वारा यहां जलघर और गांव के लिए विभिन्न तरह की ग्रांट भी समय-समय पर गांव को मिलती रही है। यह गांव 2000 से पहले सीवन की पंचायत के अन्दर आता था लेकिन उसके बाद यहां की पंचायत को स्वतंत्र रूप दे दिया गया । किसी विभाग को इस ऐतिहासिक जगह की सुध नहीं आई और लोगो ने अपनी सारी उम्र की कमाई यहां मकान बनाने में लगा दी। यदि यह मान लिया जाए कि लोगों को इस बात की जानकारी नहीं थी लेकिन पुरातत्व विभाग और हरियाणा सरकार उस वक्त कहां थी। उपर से सरकार ने यहां सुलीहतें दे दी ,गांव में स्कूल से लेकर पानी की सप्लाई, बिजली,स्वास्थय और गली पक्की करने तक सभी सुविधाएं दी गई हैं । गांव के नाम पर राषन कार्ड और वोट कार्ड जारी किए हुए हैं। यदि गांव का निर्माण अवैध था तो हरियाणा सरकार और जिला प्रषासन यहां सालो तक क्यांे इतने रूप्ए खर्च करता रहा? क्या यह सब वोट बटोरने के लिए था? वास्तव मंे देखा जाए तो स्थिति विरोधाभासी है एक तरफ तो विभाग ग्रामीणांे को नए निर्माण करने को रोक रहा है जिसके लिए गांव मंे विभाग द्वारा एक व्यक्ति की नियुक्ति भी की गई है । दूसरी तरफ गांव मंे धड़ल्ले से ग्रांट भेजी जा रही है।
पुरातत्व विभाग की रिपोर्टांे और गांव की ऐेतिहासिक पृष्ठभूमि पर ध्यान दे तो अतीत में तो यहां दो बार खुदाई हो चुकी है। पहली बार खुदाई श्री मजूमदार के नेतृत्व मंे 1925 मंे हुई थी जिसमंे यहां मोहनजोदड़ो सभ्यता के अवषेष पाए गए। इसके बाद 25श्12श्1925 को 28875 न0़ नोटिफिकेषन तैयार किया गया । जिसे आधार बनाकर ए.एम.,ए.एस.आर. एक्ट 1958 के तहत इस गांव को पुरातत्व विभाग ने अपने दायरे मंे ले लिया और किसी भी तरह के निर्माण को यहां अवैध घोषित कर दिया गया। 1958 से लेकर 1997 तक पुरातत्व विभाग सोया रहा। नवम्बर 1995 मंे पहली बार निर्माण रोकने के लिए मुनियादी कराई गई। अब निमार्ण रोकने और गांव खाली करने के नोटिस बारश्बार भेजे जा रहे हैं तो लोगांे के दिलांे मंे भी आग सुलग रही है । लोग अपने आषियाने बचाने के लिए आंदोलन कीसी भी हद तक जाने को तैयार हैं । लाला अर्जुन दास कहते हैं कि जिस तरह गुर्जर आंदोलन ने अपनी बात सरकार से मनवाई है उसी तरह अगर प्रषासन नहीं माना तो हम भी ऐसी ही लडाई षुरू करंेगे । जब हमने गांव वालांे से यह पूछा कि आप सरकार से समझौता किन षर्तों पर करेगें तो सब लोगांे का यही जवाब था कि पहली बात हम अपनी जमीन छोडंेगे ही नहीं। यदि ऐसी नौबत आ भी गई तो सरकार हमंे उचित मुआवजा और जमीन मुहैया कराती है तो हम इस बारे मंे सोच सकते है।
जिस गांव की 90 प्रतिषत आबादी अनुसूचित जाति से सम्बन्ध्ति हो और जिनके पास अपनी पूरी जिन्दगी की कमाई के रूप मंे केवल एक मकान हो और वह भी सरकार किसी बहाने से उनसे छीनने का प्रयास करे तो स्वाभाविक ही है कि सरकार की यह मंषा सहज ही पूरी न हो पाए । लोग अपने जीवन की अन्तिम घड़ी तक लडें़। अब देखना ये है कि क्या पोलड़ की अपने गावं को बचा पाएगी या फिर वह हरियाणा के नक्षे से मिट जाएगा।






जाँच के नाम पर मानसिक उत्पीड़न

जाँच के नाम पर मानसिक उत्पीड़न
पुलिस ने छुड़वाई पत्रकार की नौकरी

हरियाणा पुलिस पिछले कुछ सालांे से माओवाद की आड़ मंे लोगांे को झूठे केसांे मंे फंसाकर, उनका तरह- तरह की जांच व पूछताछ के नाम पर मानसिक उत्पीड़न कर रही है । कभी पूछताछ के बहाने थाने बुलाना, कभी जिला हैडक्वार्टर ले जाना तो कभी घरवालांे ,रिष्तेदारांे को तंग करना आम बात हो गई है । अब तो जांच का दायरा इतना बढ गया है कि पुलिस दिहाड़ी-मजदूरी व नौकरी करने वालांे के कार्यस्थल पर जाकर सम्पादक पर प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष ढंग से हटाने के लिए दबाव बनाने लगी है जो अभियुक्त की आर्थिक रीड़ को तोड़ने के अलावा और कुछ नहीं है।
पुलिस की ऐसी कार्यवाही का षिकार हुआ गांव जाण्डली कलां निवासी सुनील। जिस पर प्राइवेट युनिवर्सटी बिल का विरोध करने के कारण पुलिस द्वारा देषद्रोह का मामला दर्ज किया गया था। छः महीने जेल मंे रहने के बाद जमानत पर रिहा हुए। सुनील ने फरीदाबाद से प्रकाषित एक मासिक पत्रिका मंे बतौर संवाददाता काम करना षुरू किया था कि हर दूसरे तीसरे दिन घर पर कभी आई.बी., कभी सी.आई.डी.वाले तो कभी सुरक्षा एजंेसी वाले आ धमकते,पूछताछ के नाम पर हर बार एक जैसे सवाल। जब इस तरह के तौर तरीके काम नहीं आए तो सुनील को यहां तक कहा गया कि वह फिर से उसी छात्र संगठन मंे उनका मुखबिर बनकर रहे । जब इससे इन्कार किया तो पुलिस वाले फरीदाबाद मंे पत्रिका ‘निष्पक्ष भारती’ जिसमंे वह काम करता था , के प्रबंधक व संपादक को धमकाया, उनसे उल्टे सीधे सवाल किए। नतीजा यह हुआ कि सुनील को नौकरी से निकाल दिया गया । यह घटना बडे़ नाटकीय ढंग से घटी। 19 जून को सुनील रोहतक पीजीआई मंे एक ‘कवर स्टोरी’ करने गया था। जब वह रोहतक से लौट रहा था तभी संपादक का फोन आया। उसने कहा कि पत्रिका से संबंधित सभी कागजात,रिपोर्टस नरवाना दे दो,अर्जेन्ट है अैार फोन काट दिया । सुनील को कुछ समझ नहीं आया। थोड़ी देर बाद फोन बजा अैार अबकि बार संपादक ने पूछा कि इस अंक में तुम्हारी कोई आपत्तिजनक सामग्री तो नहीं है यहां पुलिस आकर तुम्हारे बारे मंे छानबीन कर रही है। तभी सुनील को याद आया कि इस बार उसने जगतार नामक दलित युवक पर एक स्टोरी लिखी थी जिस पर पुलिस ने डकैती का झूठा केस लगाया अैार साबित करने के मिलए एक नोजपिन की बरामदगी दिखाई । सुनील ने पत्रिका मंे मुकददमंे के फर्जीवाडे़ को उजागर किया था चूकिं 10 महीने पहले भंी पुलिस ने जगतार पर देषद्रोह का मुकददमा दर्ज किया था पर कोर्ट ने उसे इस मुकददमंे से बरी कर दिया था, तभी से पुलिस जगतार को फसंाना चाह रही थी। इस पूरे मामले में यह सवाल उठता रहा कि क्या कोई सामाजिक कार्यकर्ता 200 रूपए की नोजपिन चोरी कर सकता है ।
इस पूरे मामले मंे हद तो उस वक्त पार हुई जब डर के मारे संपादक ने भी पुलिस को झूठ बोला कि सुनील तो विज्ञापन के मिल काम करता था अैार हमने उसकी छुटटी 2 जून को ही कर दी ।
सुनील एक 21-22 साल का नौजवान जो पढ़ाई के दौरान एक छात्र संगठन के संपर्क मंे आया अैार प्राईवेट यनिवर्सिटी बिल 2007 का विरोध करने के कारण जेल गया अैार अब भी यह मामला कोर्ट मंे विचाराधीन है। अब सवाल यह उठता है क्या किसी व्यक्ति पर यदि कोई केस दर्ज हो गया हो तो उसे अपनी आजीविका कमाने का भी कोई हक नहीं है? क्या दुनिया के सबसे बडे़ लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत देश में ऐसे ही पुलिस लोगों को मानसिक ओर शारीरिक यातनांए देती रहेगी? क्या ऐसे ही झूठे केसों में लोगों को फंसाकर उन्हें तंग करती रहेगी?

Saturday, November 14, 2009

प्रेस रिलीज

कहीं हरियाणा में कोई सिंगूर या नंदीग्राम तो नहीं बन जाएगा। कुम्हारिया न्यूक्लियर पॉवर प्लांट के विरोध में उठते स्वर!
आज यहां कुम्हारिया - गोरखपुर -काजलहेड़ी व इलाके के अन्य लोगों ने संयुक्त रुप से जारी एक प्रैस ब्यान में कहा कि हम यहां न्यूक्लियर प्लांट नहीं चाहते, जमीन हमारे जीवनयापन का साधान है उसे हम हरगिज़ किसी भी हाल में नहीं देंगे। ज्ञात रहे कि भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के बाद केन्द्र सरकार द्वारा 7 न्यूक्लियर पॉवर प्लांट को हरी झंडी मिल चुकी है जिसमें हरियाणा में फतेहाबाद जिले का कुम्हारिया परमाणु उर्जा प्लांट भी शामिल है। इसके अलावा एक प्लांट महाराष्ट्र के रतनगिरी जिले में भी प्रस्तावित है जहां पहले से ही इसका पुरजोर विरोध चल रहा है। हरियाणा के लोग भी अपने आन्दोलन का बिगुल फूॅंक चुके हैं। 19 अप्रैल को लोगों ने एक बड़ी बैठक कर अपने आन्दोलन की घोषणा की भी जिसमें दिल्ली से एक बुद्धिजीवी पीयूष पंत (लोकसंवाद पत्रिका के संपादक) व पब्लिक एजेण्डा से एक पत्रकार अजय प्रकाश बतौर वक्ता शामिल हुए थे। पीयूष पंत के अनुसार यूरेनियम से बिजली बनाना केवल खतरनाक ही नहीं बल्कि अन्य साधनों से कहीं ज्यादा मंहगा भी है। उन्होंने लोगों को बताया कि यूरेनियम कचरा जो प्लांट से निकलेगा रेडियेषन पैदा करता है जिसे किसी भी वैज्ञानिक तरीके से नष्ट नहीं किया जा सकता। इसलिए उस कचरे को भूमि के नीचे दबा दिया जाता है इसके बाद भी वह 10,।000 साल से भी अधिक समय तक रेडियेशन के रुप में अपना प्रभाव छोड़ता रहता है। श्री पंत की बात पर गौर किया जाए तो वे बताते हैं कि तारापुर (राजस्थान) और जादूगोड़ा (झारखण्ड) की यूरेनियम खदानों पर हुए सर्वेक्षण में यह पाया गया कि यदि अन्य इलाकों में 10 लोग कैंसर से प्रभावित हैं तो यूरेनियम प्रभावित इलाके में ढाई गुणा यानि 25 केस पाए जाते हैं। इसके अलावा इससे चर्मरोग व टयूमर की गाॅंठंे और अन्य बिमारियाॅं बड़ी मात्रा में फैलती हैं। इलाके में महिलाओं को गर्भपात की समस्या व जन्मजात विकलांगता की दर भी ऐसे इलाकों में अन्य के मुकाबले कहीं ज्यादा है। इसके अतिरिक्त यह प्लांट में हैवीवाॅटर प्रैषराईज़्ड रिएक्टर इस्तेमाल किए जाएंगे जो पूर्णतः पानी के दबाव पर आधारित है। ऐसी स्थिति में पानी और जमीन दोनों के संक्रमित होने का भय बना रहता है। चूंकि वही पानी बाद में खेतों की सिंचाई में प्रयोग होगा। साथ ही घास-फूस व फसलों की उत्पादकता में कमी आएगी और गुणवत्ता पर बुरा असर पड़ेगा। गांव के लोगों दानाराम, हंसराज आदि का कहना है कि यदि सरकार अधिग्रहण प्रक्रिया षुरु करती है तो हम इसका पुरजोर विरोध करेंगे। लोगों ने इस पूरे मामले को लेकर राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री, ग्रहमंत्री व मुख्यमंत्री सहित हरियाणा विधानसभा के सभी विधायकों को 500 से ज्यादा लोगों ने संयुक्त अपील पर हस्ताक्षर करके इस परियोजना को रोकने की मांग की है। इस अपली की प्रतियां सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट व मानवाधिकार आयोग को भी भेजी गई हैं। जिसमें इस बात का हवाला देकर की यहां की जमीन और पानी दोनां पर उनका संवैधानिक अधिकार है और यह उनकी आजीविका का साधन है। लोगों ने इस मामले में कोर्ट व मानवाधिकार आयोग को हस्तक्षेप करने की व परियोजना को रुकवाने की मांग की है। इसके अलावा ऐसी ही अपील माननीय राज्यपाल हरियाणा को भेजी गई है। विधायकों से विषेष तौर पर सवाल किया गया है कि यदि वे जनसेवक व जनहितैषी हैं तो विधानसभा में मामले को उठांए और हमार साथ दें। लोगों ने कहा कि हम सभी राजनैतिक पार्टियों , जनसंगठनों, धार्मिक संस्थाओं , गैर सरकारी संगठनों, छात्र संगठनों व अन्य संघर्षषील लोगों, जनवाद पसन्द बुद्धिजीवियों से सहयोग व समर्थन की मांग करते हैं। यह प्रैस बयान दानाराम, जोधाराम , कृष्ण कुमार, जोधा राम, हंसराज, सुनील, बलबीर सिहं आदि ने सयुंक्त रुप से जारी की।

Wednesday, November 04, 2009

कुम्हारिया न्यूक्लियर पावर प्लांट

कुम्हारिया न्यूक्लियर पावर प्लांट

भारत - अमेरिका परमाणु डील पर एक साल पहले हस्ताक्षर होने के साथ ही हरियाणा मंे 2800 मेगावाट के न्यूक्लियर पावर प्लांट लगने का रास्ता साफ हो गया था। लेकिन 26 सितंबर को इस प्लांट के प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री के हस्ताक्षर करके इसे पूर्ण तौर पर मंजूरी दे दी और लोगों का बचा संशय भी समाप्त हो गया। लेकिन इसके साथ ही लोगों में शुरू हो गई भययुक्त, और रहस्मयी चर्चा। जिसमें भय है घर उजड़ने का, स्वास्थ्य का और उन अनजान-अनगिनत समस्याओं का जो प्लांट के साथ ही उनकी जिन्दगी में आने वाली हैं। इसका एक मुख्य कारण ये भी है कि जब कोई परियोजना या कानून आता है कभी भी उसमें पारदर्षिता नहीं रखी जाती, लोगों को उसके दांव-पेच नहीं बताए जाते। परियोजनाओं के नाम पर लोगों को अन्धेरे में रखकर उनके प्राकृतिक संसाधनों जल,जंगल,जमीन की लूट की साजिश बड़ी कंपनियों के हित में रची जाती है। ऐसी ही अनेको साजिशें विकास का नाम देकर सेज ;विषेश आर्थिक जोन , पावर प्लांट व अन्य उद्योगों के लिए रची जा रही हैं। इनमंे से ही एक है ‘कुम्हारिया न्यूक्लियर पावर प्लांट’। 1000 हैक्टेयर भूमि के इस प्लांट का प्रस्ताव 25 साल पहले 1984 में ज्य सरकार द्वारा केन्द्र सरकार को भेजा गया था। उसके बाद यहां 2001 व 2007 में दो सर्वेक्षण हुए। अब यह प्लांट 12000 करोड़ 120 अरब से लगाया जाना है। इस प्लांट को दो चरणो में लगाने की योजना है । प्रथम चरण में 1400 मेगावाट की दो इकाईयां लगाई जाएंगी। परमाणु उर्जा निगम के प्रबंधक निर्देषक को भेजे पत्र के हवाले से इसमें यूरेनियम और प्रेशराइज्द हेवी वाटर रिएक्टर तकनीक का प्रयोग होगा। यानि यह प्लांट पूर्णतः पानी के प्रैशर पर ही काम करेगा।

सुनील कुमार

कुम्हारिया न्यूक्लियर पॉवर प्लांट

लोगों ने किया संघर्ष का ऐलान
गोरखपुर-कुम्हारिया और काजलहेड़ी के लोगों ने प्लांट के लिए जमीन न देने का फैसला किया है। परियोजना की घोशणा के बाद से ही लोग किसी न किसी रूप में इसका विरोध करते रहे हैं। सबसे पहले लोगों ने फतेहाबाद के जिला उपायुक्त को ज्ञापन सौंपकर अपना विरोध जताया। उसके बावजूद 19 अप्रैल गेहूं कटाई का सीजन होने के बावजूद लोगों ने बड़े पैमाने इकट्ठे होकर लगातार तीन घण्टे पर पूरे मामले पर चर्चा की और एक कमेटी का गठन किया। इस कार्यक्रम में लोगों के बीच दिल्ली से पीयूष पन्त नामक वक्ता ने अपनी बातचीत रखी और युरेनियम व रेडियोएक्टिव किरणों ;रेडियेषनद्ध के प्रभाव के बारे में विस्तृत रूप से बताया । 26 नवम्बर को परमाणु उर्जा प्लांट को प्रधानमंत्री की मंजूरी आते ही लोगों ने अपनी सक्रियता दिखाते हुए एक लिखित अपील के माध्यम से करीब 500 से ज्यादा लोगों ने राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को भेजकर अपना विरोध दर्ज किया। गावं के ही एक किसान दाना राम ने कहा कि वे जमीन सग्बन्धी किसी भी नोटिस को स्वीकार नहीं करेंगे और किसी कीमत पर भी इस मामले में सरकार को सहयोग नहीं करेंगे।

रतनगिरी में भी पड़ी एक ओर सिंगूर की नींव

रतनगिरी में भी पड़ी एक ओर सिंगूर की नींव
लोगों का न्यूक्लियर पावर प्लांट पर विरोध
‘‘हे भगवान! हमारी प्रार्थना स्वीकार करो और हमारे जीवित रहने के साधनों को बचाओ। हम यह परियोजना नहीं चाहते, कृप्या इये यहां से दूर ले जाओ।’’ इन षब्दों के साथ हिन्दुस्तान टाईम्स अंग्रेजी अखबार में छपी एक विषेश रिपोर्ट लोगों के विरोध की ही कहानी है । अखबार के अनुसार 2000 गांव वालों ने कुछ ऐसी प्रार्थना वहां के एक मन्दिर में भगवान से की। यह परमाणु प्लांट परियोजना रतनगिरि जिले के जैयतपुर गांव से 8 कि.मी. दूर लगने का प्रस्ताव है। सरकार द्वारा भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के बाद कुम्हरिया हरियाणा समेत ऐसे सात न्यूक्लियर प्लांट लगाए जाने की योजना है। वहां का अन्जनेष्वर मन्दिर एक मिटींग ग्राउण्ड में बदल गया है । जहां लोग वर्ग-जाति और धर्म को भूलकर एकसांझी समस्या के लिए इकटठा होते हैं। यहां लगभग 938 हैक्टेयर भूमि लगभग 5 गावों से अधिग्रहित की जाएगी जिसमें अच्छी खेती योग्य भूमि, आम के बागान और पशुओं चारागाह बने हैं इस प्लांट के लिए हैवी प्रैषराज़्ड वाटर रिएक्टर का प्रयोग किया जाएगा जो 2008 इण्डोफ्रेंच एग्रीमैंट के तहत फांस से आयात किए जांएगे। जिनकी 10000 मेगावाट बिजली उत्पादन होगा। गांव में एक पब्लिक मींटिंग मेंमीडिया के सामने वहां के सेवानिवृत हैडमास्टर ने कहा कि ‘ एक बात साफ है, कोई भी यहां का स्थाई निवासी यहां न्यूक्लियर प्लांट नहीं चाहता।

‘आतंक के खिलाफ यु़द्ध’ का नया भारतीय संस्करण:

‘आतंक के खिलाफ यु़द्ध’ का नया भारतीय संस्करण:
जनता पर युद्ध का सरकारी ऐलान तोता रटंत
बाजोंखून के प्यासे गिद्धों के झुंड एक बार
फिर गावों में आ रहे हैंऊषा काल और कोमल चित्त,
सावधानमेरे बच्चों मेरी आखों की पुतली सावधान
-चेरा बण्ड़ा राजु
9/11 की घटना को बहाना बनाकर अमेरिका के तत्कालिन राष्ट्रपति जार्ज बुश ने ‘आतंक के खिलाफ यु़द्ध’ की घोषणा की तथा पहले अफगानिस्तान पर और फिर इराक पर हमला किया। भारत के प्रधानमंत्री ने भी 26/11की घटना के बाद ‘आतंक’ के खिलाफ खुला युद्ध छेड़ने का ऐलान कर दिया और इस युद्ध की कमान सौंपी नवनियुक्त गृहमंत्री पी। चिदम्बरम को। पी। चिदम्बरम ने इस घटना की आड़ में देश की सुरक्षा के नाम पर वो दो दमनकारी कानून बनवा दिये जिन्हें बनवाने का राग प्रधानमंत्री 2008 के शुरू से ही अलाप रहे थे। पी। चिदम्बरम ने भी अमेरिका की तर्ज पर हमले की घोषणा कर दी परन्तु यह हमला होना था अपने ही देशवासियों पर, उन लोगों पर जो इस देश के सबसे निर्धन लोग हैं। अमेरिका ने तालिबानी फासीवाद से जनता को मुक्त कराने के नाम पर और सद्धाम द्वारा संग्रहित ‘व्यापक जन संहार के हथियारों का बहाना बना कर हमला किया था, जिसका वास्तविक मकसद विदेशी धरती के प्राकृतिक सम्पदा तेल पर कब्जा करना था। परन्तु मनमोहन और पी। चिदम्बरम ने तो भारत के प्राकृतिक संसाधनों व सम्पदा को विदेशी हाथों में पहुंचाने के लिए अपने ही देशवासियों पर सैन्य आक्रमण कर दिया, यहंा बहाना बनाया जा रहा है ‘माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में सरकारी तन्त्र को पूर्नस्थापित करना’। गौरतलब है कि भारत के कुल प्राकृतिक संसाधनों का 40 प्रतिशत झारखण्ड़, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के ही उन्हीं जिलों में हैं जहां पर सरकार द्वारा हमले की घोषणा की गई है और प्राकृतिक संसाधनों में भी कुंजीगत उद्योगों के लिए कच्चे माल के स्त्रोत जैसे कोयला का 87, लौह अयस्क का 52, करोमाइट का 90 और बाक्साइट का 75 प्रतिशत इन्ही राज्यों में पाया जाता है। चूंकि मनमोहन सिंह राजनीति में आने से पूर्व अमेरिका के प्रभुत्व वाले अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष में अर्थशास्त्री थे और पी। चिदम्बरम संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में वित्तमंत्री बनने से पूर्व ब्रिटेन की खनन कम्पनी वेदान्त के वकील थे और उससे पूर्व कुख्यात अमेरिकी बिजली कम्पनी एनरान के निदेशक बोर्ड़ में थे इसलिए ये दोनों ही इस खनन में विदेशी पूंजी निवेश के हिमायती हैं। भारत की ज्यादातर सम्पदा वाले इन जंगल जंगलात के क्षेत्र में ही देश के सबसे गरीब लोग खासतौर पर आदिवासी रहते है, जोकि आजीविका और जिन्दगी चलाने के लिए पूर्णतया यहां के जल जंगल और जमीन पर निर्भर हैं। इन्ही आदिवासियों को इन संसाधनों के क्षेत्र से हटाने के लिए यह अभियान चलाया जा रहा है। मनमोहन सरकार द्वारा अपने ही देशवासियों पर किये जा रहे इस सैन्य अभियान का फायदा भी अमेरिका सहित साम्राज्यवादी देशों को ही पहुंचाया जाएगा।सीमा रेखा है देश के अन्दर अमेरिका ने विदेशी जमीन कब्जाने के लिए अफगानिस्तान में एक लाख और इराक में ड़ेढ लाख फौजी भेजे थे परन्तु भारत सरकार ने अपने ही देश के केन्द्रीय हिस्से में सैन्य अभियान चलाने के लिए 75,000 फौजी भेज रही है। इस सरकार ने सीमा रेखा देश के भीतर ही खींच मान ली है। गृहमंत्री बार बार इस सैन्य अभियान में सेना दखलांदाजी से इन्कार कर रहे हैंैं। परन्तु वास्तविकता है कि इस सैन्य अभियान को रक्षा मंत्रालय और गृह मंत्रालय मिलकर चला रहे हैं। सेना के अधिकारीयों के नेतृत्व में ही अपने ही देश में सबसे बड़ा सैन्य अभियान चलाया जा रहा है। इस अभियान का खाखा आर्मी का एक बिग्रेड़ियर कर रहा है। आर्मी के ही बिग्रेड़ियर और कर्नल छत्तीसगढ़ में जंगल वारफेयर स्कूल को संचालित और प्रशिक्षित कर रहे हैं। इसके अलावा आर्मी का खुफिया तंत्र भी इस आपरेशन में सम्मिलित किया गया है। छत्तीसगढ़ में पहली बार सेना का बिग्रेड़ियर हैड़क्वार्टर बनाया जा रहा है जहां से इस सारे आपरेशन को संचालित किया जाएगा। साथ ही सेना की कमाण्ड़ में संचालित होने वाली दुर्दांत ‘राष्ट्रीय राइफल्स’ को भी काश्मीर से हटाकर इस सैन्य अभियान में शामिल किया जा रहा है। सीमा की रक्षा के लिए निर्मिम भारत तिब्बत सीमा बल और सीमा सुरक्षा बल के 27,000 फौजीयों को भी केन्द्र सरकार ने देश के केन्द्रीय हिस्से में सैन्य हमला करने के लिए प्रतिनियुक्त किया है। इस अभियान में राज्यों के अधिकार का अतिक्रमण करते हुए केन्द्र सरकार ने सातों राज्यों में चलाए जा रहे इस आपरेशन के तालमेल के लिए सी।आर।पी।एफ. में विशेष महा निदेशक की नियुक्ति भी कर दी है। इस अभियान मे वायुसेना के 6 हैलिकाप्टरों का प्रयोग किया जा रहा है जिसमें वायुसेना का हथियारबंद दस्ता ‘गरूड़’ का भी इस्तेमाल किया जा रहा है। सरकार जनता की खून पसीने की गाढ़ी कमाई का ही 7300 करोड़ रूपया जनता पर छेड़े जा रहे युद्ध में खर्च कर रही है। वैसे तो सरकारी मशीनरी बड़े औद्योगिक घरानों के पक्ष मंे जनता पर गोलियां चलाती रही है जिसमें सैंकड़ो लोगों की जान गई है। परन्तु सेना के नेतृत्व में सैन्य अभियान चलाने की हिमाकत शायद साम्राज्यवादियों के चहेते मनमोहन और पी. चिदम्बरम ही कर सकते हैं। साम्राज्यवादी हित पूर्ति के लिए वे देशवासियों के कत्लेआम पर उतारू हैं। एक राजपुरूष ने घोषणा की है उसके हाथों के साफ शालीन दस्तानों के नीचे वह अपने पंजें जिस दिशा मेें बढ़ाएगा दूर दूर तक कोई दुश्मन नजर नहीं आएगा।कारपोरेट जगत का फायदा है असली मकसद: सन 2001 से ही कारपोरेट जगत पर आर्थिक मंदी के बादल मंड़राने लगे थे। इस आर्थिक मंदी से पार पाने के लिए ज्यादातर कम्पनियों की गिद्ध निगाहें भारत जैसे तीसरी दूनिया के देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर लग गई। कारपोरेट जगत की मंशा को पूर्ण करने के लिए सभी बड़ी संसदीय राजनैतिक पार्टियों के नेता नतमस्तक हो गए और खनन, खनन आधारित उद्योग सहित लगभग सभी उद्योगों में विदेशी कम्पनियों के लिए भारत के दरवाजे खोल दिए गए। भारत में विदेशी टापू बनाने की अनुुमती देने वाले विशेष आर्थिक क्षेत्र जैसे कानून तक पास कर दिये गए। सभी राज्य सरकारों में विदेशी निवेशकों और उनके दलाल बड़े उद्योगपतियों से इकरारनामें करने की मानों होड़ सी लग गई। 21 वीं सदी की पहली सदी में झारखण्ड़ में खनन, स्टील उद्योग, एल्यूमिनियम प्लांट, पावर प्लांट, बाध आदि बनाने के लिए ही 100 से अधिक इकरारनामें मित्तल, जिन्दल, टाटा, रियोटिंटों जैसे बड़े कारपोरेट घरानों के साथ हस्ताक्षरित किये गए। उड़ीसा में भी वेदान्ता, पोस्को, हिंड़ाल्को, जिन्दल, मित्तल जैसी कारपोरेट हाउस की कुदृष्टि वहां के संसाधनों पर हैं। छत्तीसगढ़ में भी एस्सार, टाटा, रियोटिटो, निकों जैसे घरानों के साथ राज्य की भाजपा सरकार ने खनन, प्लांट लगाने और विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लिए समझौते किए हैंै। इन तीनों राज्यों में सितम्बर 2009 तक कुल 8,73,86 करोड़ रूपए की निवेश परियोजनाओं के लिए इकरार किए गए हैं।जल जंगल और जमीन के सहारे रोजी रोटी चलाने वाले किसानोें खासतौर पर आदिवासियों ने इन परियोजनाओं के लिए जमीन देने से इन्कार कर दिया और जबरन जमीन अधिग्रहण के विरूद्ध गोलबन्द हो गए। उन्होने जल जंगल जमीन पर जनता के अधिकार की लड़ाई जारी रखी जिससे उनका अधिकार ब्रिटिश काल में जंगल कानून बना कर छीन लिया गया था। शोषक शासक वर्ग के विरूद्ध व्यवस्था परिवर्तन और जन मुक्ति की लड़ाई लड़ रही भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने भी इन परियोजनाओं की खिलाफत की तथा इकरारनामों को रद्ध करवाने के लिए जनता को गोलबन्द करना शुरू किया। साथ ही साथ कई क्षेत्रों में जनता की सत्ता भी कायम हुई जिसने में जल जंगल जमीन और प्राकृतिक सम्पदा पर जनता का हक कायम किया। समझौताहीन संघर्ष के कारण इन क्षेत्रों में साम्राज्यवादी कारपोरेट लूट का पहिया रुक गया। वे मनचाही लूट न कर सके। 18 जून 2006 को संसद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बयान भी दिया कि ‘ यदि खनिज की प्राकृतिक सम्पदा वाले हिस्से में अगर वामपंथी अतिवाद अगर फलता फूलता रहा तो निवेश का वातावरण निश्चित रूप से प्रभावित होगा।’ इसलिए इन इकरारनामों के हस्ताक्षरित होने के तुरन्त बाद जनता खासतौर पर आदिवासियों पर हमलें शुरू हो गए थे। बस्तर में सलवा जुड़ुम के जरिए सैकड़ो लोगों का कत्लेआम किया गया, हजारों घरों को जला दिया गया, सैकड़ों गांव की जनता को उनके गावों से हटाकर पुलिस शिविरों में बसाया गया। अनेकों महिलाओं का ब्लात्कार किया, बच्चों के सिर काट कर पेड़ से लटका दिया गया। झारखण्ड़ के सिंहभूम क्षेत्र में, जहां कारपोरेट जगत ने सबसे ज्यादा निवेश का करार किया है, नागरिक सुरक्षा समिति के माध्यम से आतंक फैलाया गया। बालूमाथ में तो अभिजीत ग्रुप का पावर प्लांट लगाने के लिए तृतीय प्रस्तुति कमेटी का भी प्रयोग किया गया। उड़िसा में भी कम्पनी की भाड़े के गुण्ड़ों के अलावा शान्ति सेना बनाकर जनता पर हमले करवाए गए। परन्तू जल जंगल जमीन जनता का पर जनता का हक कायम करने के लिए प्रतिरोध आन्दोलन प्राइवेट मलिशिया और अर्ध सैन्य बलों का मुकाबला करते हुए आगे बढ़ता गया तो साम्राज्यवादी ताकतें खासतौर पर अमेरिका और उसकी तथाकथित ‘रणनीतिक सहयोगी’ भारत सरकार इन इलाकों में उसी तरह सैन्य कार्यवाही पर उतर आयी जिस तरह इराक और अफगानिस्तान पर तेल संसाधन लूटने के लिए किया गया था।‘आंतरिक सुरक्षा’ को खतरा किससे: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2006 से ही ‘माओवादी आन्दोलन आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है’ का राग अलापना शुरू कर दिया था। यही वह वर्ष था जब उन्होने भारत को अमेरिका के ‘रणनीतिक सहयोगी’ का दर्जा दिलाया था। दबे शब्दों में वे जनता की बुनियादी समस्याओं को हल न कर पाने में शासकीय प्रशासकीय विफलता को इस आन्दोलन के उभार के मुख्य कारण के रूप में स्वीकार करते हैं। तथाति जनता के हक हकूक के पक्ष में कोई ठोस कदम नहीं उठाते। जमीन पर बोने वाले का हक, जंगल और वनोपज पर जनता का अधिकार, खेती के विकास के लिए सिंचाई का प्रबन्ध, शिक्षा स्वास्थय जैसी बुनियादी सुविधाओं का प्रबन्ध, रोजगार का प्रबन्ध की योजनाओं के बारे में मात्र जुबानी जमा खर्च किया जाता हैं। अगर योजना बनती भी है तो कागजों तक सिमट जाती है या शासकीय प्रशासकीय भ्रष्टाचार का शिकार हो जाती है। दरअसल मनमोहन अर्थव्यवस्था के एजेण्ड़े और दायरे में इन समस्याओं का निदान और जनविकास शामिल ही नहीं हो पाता। बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों और साम्राज्यवादी देशों का फायदा और विकास ही उनके एजेण्ड़े में आता है जो जनता के बचे खुचे जीवन निर्वाह के साधनों को भी छिन लेता है। भारत को महाशक्ति बनाने के उनके पैमाने में जनता का जीवन स्तर उच्च करने की बजाए कम्पनीयों, बड़े बड़े घरानों और सी.इ.ओ. की धन सम्पदा बढ़ाना ही आता है जोकि जनता की धन, सम्पत्ती और श्रम का दोहन करके ही बढ़ सकता है। इसलिए ही विश्व की उभरती महाशक्ति के 77 प्रतिशत निवासियों को रोजाना मात्र 20 रूपये ही उपलब्ध हो पाते हैं जबकि भारत के चार सी.ई.ओ. फोब्र्स पत्रिका की सूची में विश्व के सबसे सम्पन्न दस सी.इ.ओ में स्थान पा जाते हैं। विश्व के 20 शीर्ष देशों की बैठक जी-20 में बैठने का हक पाने को उपलब्धि के रूप में गिनवान वाली भारत सरकार शायद यह नजरअंदाज कर जाती है कि मानव विकास सुचकांक में भारत 182देशों में 134 वें नम्बर पर है। केन्द्रीय मंत्री के अनुसार रोजगार की बहुप्रचारित नरेगा योजना के तहत मात्र 15 लाख लोगों को 50 दिन से भी कम का रोजगार दिया गया, जिसमें से ज्यादातर कागजों में ही दिया गया है, जबकि योजना का लक्ष्य 15 करोड़ लोगों को रोजगार देना रखा गया था। सरकारी जन विरोधी नीतियों के कारण पिछले 10 सालों में ड़ेढ़ लाख किसान अपना ही गला घोटने पर मजबूर हुए हैं। वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ के वैश्विक भूख सूचकांक के अनुसार 30 करोड़ भारतीयों को रोजाना भूखा सोना पड़ता है।इसमें से अधिकतर उसी इलाके के हैं जहां पर सरकार सैन्य हमले कर रही है। खासतौर पर 1991 में मनमोहन कृत नई आर्थिक नीतियों को अपनाने के बाद से लाखों लोग राज्य प्रयोजित ढ़ाचागत हिंसा का शिकार बने हैं। इस हिंसा के खिलाफ जब लोग आन्दोलन करते हैं तो उन्हे सरकार आन्तरिक सुरक्षा के लिए खतरा घोषित करती है जबकि सरकार खुद ब खुद देशवासियों का गला घोट रही है ताकि अपने को सही तौर पर अमेरिका का ‘रणनीतिक सहयोगी’ साबित कर उससे महाशक्ति का तमगा पा सके।अमेरिका है सैन्य हमले का सूत्रधार: सितम्बर माह में के पूवार्द्ध में गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने चार दिन का अमेरिका का दौरा किया था। वहां पर चिदम्बरम ने कुख्यात खुफिया एजेण्सी फेड़रल ब्यूरो आफ इन्वेशटिगेशन के उच्चाधिकारियों से मिलकर भारत अमेरिका के आतंकवाद विरोधी आपरेशन, तकनीकी सहायता, दक्षिण एशिया में सुरक्षा समिति के मूल्यांकन आदि पर चर्चा की। वहां से लौटते ही छत्तीसगढ़ में बस्तर के उत्तर, पश्चिम और दक्षिणी हिस्से में ‘आपरेशन ग्रीन हंट’ चलाया गया। इस आपरेशन में 19 ग्रामिणों की बर्बर तरीके से हत्या कर दी गई। आज अमेरिकी निर्देश आर्थिक मामलों से आगे बढ़कर सैन्य मामलों तक पहुंच गए हैं। गौरतलब है कि अमेरिकी फेड़रल ब्यूरो आफ इन्वेशटिगेशन का एक आधिकारिक कार्यालय भारत में पहले ही खोला जा चुका है। इस आपरेशन में भी यह खुफियागिरी में भारत सरकार की मदद करेगी।चंूकि सभी आपरेशन खुफिया जानकारी के आधार पर चलाया जाता है इसलिए ये एजेन्सी अमेरिकी हितों के मुताबिक आपरेशन चलवाएगी। अमेरिका के सैटलाइट भी इस हमले में प्रयोग में लाए जाएंगे। लालगढ़ जोकि गृह सचिव कृष्ण पिल्लै के अनुसार ‘संयुक्त सैन्य अभियान की प्रयोगशाला’ है, में भी अमेरिका के खुफिया सैटेलाइट ने वेरोपेलिया, रामगढ़, कांटापहाड़ी आदि इलाकों में खोजबीन की थी। साथ ही भारत सरकार उन अमेरिकी सैन्य अधिकारियों से निरन्तर सलाह ले रही है जोकि उत्तर पश्चिम पाकिस्तान और अफगानिस्तान में जेहादियों और तालिबानियों पर आक्रमण में शामिल हैं। इसके अलावा अमेरिका के अधिकारी निरन्तर छत्तीसगढ़ का खासतौर पर जंगल वार फेयर स्कूल का दौरा कर रहे हैं। कांकेर के जंगल वारफेयर स्कूल का प्रशिक्षक ने तो अमेरिकी सेना के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास भी किया है।हथियारों की आपूर्ति तो निर्बाध गति से अमेरिका से जारी ही है। अमेरिकी स्टेट नेवल एकेड़मी के लेफटिनेन्ट कमाण्ड़र हारनेटिएक्स ने जून 2008 में ही अपनी रिपार्ट ‘ द रियर्जंस आफ नक्सलिज्म’ में साफ साफ लिखा है कि ‘नक्सलवाद दक्षिण एशिया में अमेरिकी हितों के चुनौती हैं। अमेरिका को माओवादी विद्रोह को कुचलने अमेरिका का हित है।’ अमेरिका के रणनीतिक और आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए भारतीय शोषक शासक वर्ग अपने ही देश की जनता पर हमले पर उतारू है। वो अमेरिका की तर्ज पर ही इस सैन्य हमले को जायज ठहराने के लिए झूठे प्रचार में जुट गया है। दुष्प्रचार युद्ध का ही एक हथियार है: भारत के गृह मंत्रालय ने सैन्य हमले के लिए माहौल बनाने हेतू ‘नक्सल विरोधी विज्ञापनों की बाढ़’ ला दी है। वे माओवादी नेतृत्व में चलने वाले आन्दोलनों को ‘बहशी कातिल’, ‘दरिन्दे’, ‘लूटेरे’, ‘ड़कैत’, ‘यौन शोषक’ ‘विकास विरोधी आन्दोलन के रूप में प्रचारित कर सैन्य हमले को जायज ठहराना चाहते हैं। जबकि सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगी गई कि माओवादियों ने सामाजिक विकास में लगे आंगनवाड़ी वर्कर, अध्यापकों जैसे कितने लोगों को मारा है तो जवाब शून्य था। ब्रिटिश काल में भी अपने हक हकूक के लिए लड़ने वाले आदिवासियों को ‘आपराधिक कबिले’ घोषित कर उनका दमन किया गया था और उन्हे अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। तथाकथित ‘तटस्थ’ कारपोरेट मीड़िया भी कारपारेट का सगा सम्बन्धी होने के कारण सरकारी भोंपू मात्र बन कर रह गया है। यहां तक कि वह सरकारी दुष्प्रचार मशीनरी से भी चार चन्दे आगे बढ़कर उन्हे तालिबानी, राष्ट्रविरोधी ठहराने में लगा है। सजग, प्रहरी और आन्दोलन का दम्भ भरने वाला मीड़िया सरकार और कारपोरेट जगत की समझ के अनुसार ही खबरों को तोड़-मरोड़ कर और बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है। सरकारी कारगुजारियों को या तो छिपा लिया जाता है या बहूत ही हल्के ढ़ंग से पेश किया जाता है। कारपोरेट मीड़िया ने नहीं बताया कि लातेहर के बड़निया में सी.आर.पी.एफ. द्वारा झूठी मुठभेड़ में मार ड़ाले गए पांच ग्रामिणों में से एक को बहुत नजदीक से मोर्टार चलाया गया था, कलिंग नगर में भूमि अधिग्रहण का विरोध करने वाले आदिवासियों को बमबलास्ट कर उड़ाया गया था याकि आंध्र प्रदेश में ग्रेहाउन्ड़स ने सांस्कृतिककर्मी बेल्ली ललिता के 17 टूकड़े कर बोरी में बन्द कर के फैंक दिया था। अनेको सरकारी रिपार्ट में हवाला दिया गया है कि सरकार द्वारा जनता की इच्छा और आकांक्षाओं को पूरा न करने के कारण जनता माओवादी आन्दोलन के साथ जुड़ी है।माओवादियों ने जनता के विस्थापन के मुद्दे सहित बांस कटाई, तेन्दू पत्ता तुड़ाई के रेट बढ़वाने हेतू, जंगल की वनोउपज पर आदिवासियों का अधिकार सुनिश्चित करते हुए बाजार में उनका दाम बढ़वाने हेतू संघर्ष किया है। साथ ही त्वरित और सही न्याय की व्यवस्था की है। भूमिहीन किसानों खासतौर पर दलित जातियों के जातिय उत्पीड़न के खिलाफ लड़ते हुए जमीनों पर उनके अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी है। आन्दोलन की इस पृष्ठभूमि के बावजूद कारपोरेट मीड़िया सरकारी लय में लय मिलाते हुए इस आन्दोलन को तालिबानी, राष्ट्रविरोधी कह रहा है तथा जनता पर सरकारी सैन्य अभियान के लिए माहौल तैयार करने में जुटा हुआ है। मीड़िया लेन्स की यह उक्ति बिल्कुल ठीक है कि ‘मीड़िया की ‘तटस्थता’ एक ऐसा छलावा है जो प्रायः व्यवस्था के कारपोरेट पक्षीय रूख को छिपाने के काम आता है।’ कारपोरेट जगत के भारत की प्राकृतिक सम्पदा और संसाधनों पर कब्जा करने के लिए चलाए जा रहे सैन्य अभियान के पक्ष में जनमत बनाने की कोशिशों में ही मीड़िया जुटा है।संसदीय राजनैतिक पार्टियों का जन विरोधी चेहरा: साम्राज्यवादी कारपारेट विकास माड़ल पर तमाम संसदीय राजनैतिक पार्टियों की एकराय है। वो सभी कारपोरेट द्वारा संसाधनों की लूट को आसान बनाने के लिए कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार द्वारा भारत की जनता खासतौर पर आदिवासियों पर सैन्य हमले की नीति का कमोवेश समर्थन कर रही हैं। गुजरात में हजारों मुस्लिमों की कातिल भारतीय जनता पार्टी तो खुलेआम और नंगेतौर पर इस अभियान की समर्थक है और भाजपा शासित राज्यों में इसे तेजी से लागू करने में लगी है साथ ही अभियान को और ज्यादा सख्ती से चलाने की वकालत कर रही है। भाजपा नीत राज्य सरकारों ने ही मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों को तेजी से लागू करते हुए झारखण्ड़ और छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा इकरारनामें किए थे। सी.पी.एम. के कर्णधार माओवादियों से वैचारिक और राजनैतिक रूप से लड़ने की दोगली बातें कर रही हैं। परन्तु माक्र्सवाद के नकाब में शासक वर्ग का हित पोषित करने वाली सी.पी.एम. ही लालगढ़ को इस ‘संयुक्त सैन्य अभियान की प्रयोगशाला’ बनाने में केन्द्र सरकार के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही है। उसने सी.पी.आई. माओवादी के वैचारिक राजनैतिक पक्ष को रखने वाले प्रवक्ता तक को एक न्यूज चैनल के दफतर से उठा कर जेल में ड़ाल दिया। बीजू जनता दल के नवीन पटनायक खुले रूप में कारपोरेट जगत के साथ है।पोस्को, कलिंगनगर, काशीपुर में उन्होनें खुले तौर पर कारपोरेट घरानों का साथ देते हुए जनता पर फायरिंग करवाई थी और जनता के विरोध के बावजूद सैन्य अभियान के लिए कोबरा बटालियन को जमीन मुहैया करवा रहे हैं। सी.पी.आई. ने इस हमलें में सैन्य ताकतों के इस्तेमाल का विरोध किया है परन्तू आपरेशन को रद्द करने की मांग पर वो साफ तौर पर कोई विरोध नहीं जता रहे हैं।और तृणमुल कांग्रेस नेत्री के तेवर केन्द्रीय मंत्री की कुर्सी पर बैठते ही नरम पड़ गए हैं। एक आध ब्यान के अलावा दमन नीति के विरोध का कोई ठोस कार्यक्रम तृणमुल काग्रेस नहीं ले रही है।उसका मकसद मात्र 2011 में चुनावी सफलता प्राप्त करने तक सीमीत है। लगभग तमाम बड़ी संसदीय पार्टियां अपने जनविरोधी चरित्र के अनुरूप प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस सैन्य अभियान से नीतिगत तौर पर समर्थन कर रही हैं।लोकसत्ता स्थापना ही एकमात्र रास्ता: जल जंगल जमीन पर जनता के अधिकार की लड़ाई तभी से जारी है जबसे जंगल कानून के तहत सारे जंगल जंगलात को सरकारह कलम और बन्दूक के दम पर ब्रिटिश ने अपने अधिकार में ले लिया था। झारखण्ड़ की धरती से बिरसा मुंड़ा के नेतृत्व मे आदिवासियों ने उलगुलान की हुंकार भरी थी और मुड़ाराज की स्थापना के लिए संघर्ष छेड़ा था। बस्तर में गुण्ड़ाधर के नेतृत्व में भूमकाल विद्रोह कर माड़िया राज की स्थापना की गई थीं। उड़िसा में घुमेश्वर का विद्रोह भी जल जंगल जमीन पर जनता का अधिकार स्थापित करने के लिए हुआ था। नक्सलबाड़ी में भी जनता ने जमीन पर जनता का अधिकार कायम करने के लिए और जनसत्ता स्थापना के लिए संघर्ष किया था। इन संघर्षों की बदौलत देश की जनता के पक्ष में कुछ कानून बनाने का ढोंग भी रचाया गया। परन्तु जमीन हदबंदी कानून, नया जंगल कानुन, सूदखोरी उन्मूलन कानून, बेगार के विरूद्ध कानूनों में जनता के हित के प्रावधानों को अनदेखा कर दिया गया। आज जब जनता इस शोषण उत्पीड़न के खिलाफ उठ रही है तो सरकार उन्हे कातिल, जनसंहारक, हिंसक कह रही है और उन्हे हिंसा का रास्ता छोड़कर शांति का उपदेश दिया जा रही है। दुसरी तरफ दमनकारी प्रशासनिक मशीनरी का इस्तेमाल करते हुए लाखों लाख सैन्य और पूलिस बल के साथ जनता पर हमला कर रही है। शोषक शासक वर्ग की लूट और दमन के खिलाफ भारत की जनता खासतौर पर आदिवासियों ने सदैव ही समझौताहीन संघर्ष चलाया है और लूटेरों को नाकोें चने चबवाएं हैं। आज भी छत्तीसगढ़, झारखण्ड़, उड़िसा, पश्चिम बंगाल सहित समस्त देश में जनता का समझौताहीन जुझारू संघर्ष जारी है जो तमाम तरह के दमनकारी आपरेशनों का मुकाबला करते हुए निरन्तर आगे बढ़ रहा है चाहे वो आपरेशन सिद्धार्थ हो या जनजागरण अभियान, ग्राम रक्षा दल हो या सलवा जुड़ुम या फिर आपरेशन ग्रीन हंट, वो राज्य संरक्षित रणबीर सेना हो, ब्लैक हण्डेªडस या सनलाइट सेना, कम्पनियों के दलाल हों या कोबरा। संघर्षरत जनता ने हमेशा इन दमनकारी ताकतों को मुंह तोड़ जवाब दिया है। सरकार को जनता पर छेड़े गए युद्ध को तत्काल बन्द करना चाहिए और सारी सैन्य, अर्ध सैन्य और पुलिस बलों को हटाना चाहिए। बड़े बड़े उद्योगपतियों और बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों के साथ किये गए तमाम इकरारनामों कों रद्ध कर अधिग्रहित की गई समस्त जमीन जनता को वापिस करनी चाहिए।साथ ही जनता के जल जंगल जमीन और प्राकृतिक सम्पदा पर जनता के हक हकूक को वाजिब मानना चाहिए। वरना अपने ही देश की जनता पर छेड़े गए वर्तमान केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा संचालित सैन्य अभियान के खिलाफ देश की सारी जनता खड़ी होगी ताकि जल जंगल जमीन और प्राकृतिक संसाधनो पर जनता के अधिकार को कायम किया जा सके तथा एक शोषण विहिन सही लोकतंात्रिक भारत का निर्माण किया जा सके जिसका सपना हमारे भगत सिंह जैसे शहीदों ने देखा था।याद रखो इस अंधेरे का रंगजितना ज्यादा काला होगा समझ लो सुबह उतनी ही करीब है तुम्हारी।
-अजय

Saturday, September 26, 2009

भगत सिंह के जीवन के एतिहासिक फोटो

27 सितम्बर भगत सिंह के जन्म दिवस पर विशेष








Sunday, September 20, 2009

तथाकथित भारतीय लोकतंत्र

तथाकथित भारतीय लोकतंत्र
इतिहास हर चीज का गवाह है। वास्तव अंग्रेजों के यहाँ से चले जाने से न तो भारत मंे न तो लोकतंत्र की स्थापना हुई , न साम्राज्यवाद का आधिपत्य हटा। ब्रिटिश सरकार जिस कांग्रेस के सहयोग से यहाॅं प्रत्यक्ष राज करती थी, अन्त मंे ब्रिटिश संसद द्वारा उन्हीं के हाथांे मंे शासन सुपुर्द कर दिया गया, जो सदा ऐसे विधानांे से बंधा रहे जिससे साम्राज्यवाद का आर्थिक एवं राजनैतिक नियंत्रण कायम रहें यानि ‘‘15 अगस्त 1947 को झूठी आजादी के नाम पर साम्राज्यवाद भारत से ऐसे हटा कि यहीं बना रहा’’ 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश संसद द्वारा 1935 ई0 में पारित भारत सरकार अधिनियम के अधीन अंग्रेज वायसराय माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री के रूप मंे अंग्रेजांे द्वारा निर्धारित संविधान रक्षा की शपथ दिलाई।जिसका निर्वाह भारतीय संसद आज भी बखूबी कर रहा है। 26 नवम्बर, 1949 को जिस भारतीय संविधान की घोषणा की गई , वह लोकतंत्र का कोई नया संविधान नहीं बना। मूल रूप मंे 1935 के ब्रिटिश सरकार द्वारा स्वीकृत संवैधानिक शर्तों को आधार मानकर संविधान सभा ने अनेक देशांे के बुर्जआ संविधान के प्रावधानांे को संकलित करते हुए दोषपूर्ण संवैधानिक मिश्रण तैयार कर उसे भारत के संविधान का रूप दे दिया। जिसे 26 जनवरी,1950 से लागू मानकर लोकतंत्र के संविधान की संज्ञा दे दी गई।
परन्तु इसमंे न तो ‘लोक’ की सर्वोच्चता का कोई स्थान है, न जनता की सम्प्रभुता का कहीं ‘समावेश’ हो पाया है। यह शीशे की तरह साफ है कि 15 अगस्त, 1947 के सत्ता हस्तातन्तरण को भारत की आजादी मान लेना तथा 26 जनवरी 1950 के घोषित संविधान को लोकतांत्रिक भारत का स्वतंत्र संविधान मान लेना न केवल अपने-आपको धोखा देना है ।
बल्कि देश और समाज के लिए एक राजनीतिक अपराध है। अपने इतिहास को टटोलें, काल के गर्भ मंे आंखें गड़ाकर देखें, भारतीय जनता को अभी आजादी नहीं मिली है। देश और समाज को जकड़े सामन्ती -साम्राज्यवादी गुलामी की जंजीरंे अभी अटूट हैं। दुनिया के अन्य पूंजीवादी देशांे की तरह यहां की जनता को बुर्जुआ जनवाद भी नसीब नहीं है। वस्तुतः लोकतंत्र के नाम पर देश के सामन्तांे, जमीन्दारांे, दलाल नौकरशाहांे पूंजीपतियांे और साम्राज्यवाद द्वारा राजतंत्र के सदृश्य गढ़ा गया यह संसदीय तंत्र राजवादी निरंकुशता का ही एक आधुनिक रूप है।बहुसंख्य जनता की कमाई को मुफ्त मंे हड़पने का राजवाद का तरीका ही इस संसदीय संविधान और कानून का दस्तूर है। घोर तानाशाही शासन के अधीन वोटिंग मशीनंे चालू कर इसे लोकतंत्र और जनवाद का नाम दे दिया गया है। ऐसा लोकतंत्र जहां जनता को किसी भी तरह से सामाजिक व राजनैतिक आजादी नहीं है बल्कि अपनी समस्या के समाधान के लिए मुॅंह भी नहीं खोल सकती । टाडा, पोटा जैसे दमनात्मक कानून पास करके और हड़तालांे पर प्रतिबन्ध लगाकर सरकारों द्वारा जनता के मुॅंह पर ताले जड़े जा रहे है। महिलाएं भेदभाव, शोषण और उत्पीड़न की शिकार हंै। गांॅवांे मंे अभिजात वर्ग की दादागिरी के कारण दलितांे का उत्पीड़न चरम पर है। नौकरशाही भ्रष्टाचार के गर्त मंे आकंठ डूबी हुई है और जनजीवन के प्रति उनकी कोई जवाबदेही नहीं है। पुलिस अपने-आप को सबसे बड़ा माफिया समझती है जो आम लोगांे को प्रताड़ित करना, अपमानित करना और भय पैदा करना अपना अधिकार समझती है। सभी संसदीय दल के नेता अपनी स्वार्थ पूर्ति की होड़ मंे साम्राज्यवाद के तलुए चाटने के लिए अफरा-तफरी मचाये रहते हैं। प्राकृतिक संसाधनांे के उळपर से जनता के नैसर्गिक अधिकारांे को छीनकर उसे बहुराष्ट्रीय कम्पनियांे को सौंपा जा रहा है। बहुसंख्य जनता के शोषण के लिए जो शासक हो और विस्थापन जिसकी विकास नीति है वह लोकतंत्र कतई नहीं हो सकता । लोकतंत्र के नाम पर पांच साल पर चुनावी आडंबर सिर्फ इसलिए रचा जाता है कि मतदान मंे भाग लेकर जनता यह समझे कि यही जनवाद है और हम इस लोकतंत्र के अंग हैं,उसे एहसास होता रहे कि हम जनवाद के सहभागी हैं। परन्तु चुनाव द्वारा जो सरकार या मंत्री मंडल बनता है, वह बुनियादी रूप से शोषक-शासक वर्ग की कार्यकारिणाी समिति होती है। सिर्फ जनवाद के दिखावे के लिए मंत्रीमंडल तथा संसदीय ढाॅंचे को खड़ा किया जाता है, पर शासन का सम्पूर्ण अधिकार कार्यपालिका के हाथांे सुरक्षित रहता है। चुनाव द्वारा किसी भी पार्टी का मंत्रिमंडल बने परन्तु संसद या विधान सभा मंे कोई नीति निर्धारण नहीं होता, बल्कि पर्दे के पीछे नौकरशाहांे का अति-कानूनी स्थाई तंत्र गोपनीय ढ़ंग से जमींदारों, बड़े बुर्जुआ और साम्राज्यवादी एजेन्टांे के परामर्श से मंत्रिमंडल के समस्त कार्यों को निपटाता है। वर्तमान संसदीय तंत्र को किसी भी तरह से लोकतंत्र की संज्ञा नहीं दी जा सकती। इस नकली लोकतंत्र मंे आस्था रखना शोषक व्यवस्था की सेवा करना है और देश के स्वतंत्र आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक विकास को अवरुद्ध करना है। सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए समाजवाद की स्थापना आवश्यक है और समाजवाद की सफलता के लिए अन्यायपूर्ण वर्ग व्यवस्था को जड़-मूल समेत ध्वस्त कर वर्ग विहीन समाज की स्थापना के लिए संघर्ष करना आवश्यक है।
भारतीय संविधान: गुलामी के पट्टे पर वैधानिकता की मुहर वर्तमान भारतीय संविधान पाश्चात्य बुर्जुआ संविधान की एक भौंडी नकल है, जो अऔपनिवेशिक,असामन्ती व्यवस्था की सुरक्षा के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा स्थापित नीतियांे, विशेषाधिकारांे और निषेधांे से जकड़ा हुआ है। यह एक ऐसा संविधान है, जो आम जनता को सही रूप मंे बुर्जुआ जनवाद की भी गारंटी नहीं देता है। यह संविधान पूर्ण रूप से आर्थिक ,सामाजिक सामन्ती बन्धनांे, विशेषाधिकारांे और वर्ग विभेदांे की रक्षा के लिए समर्पित है। लोकतंत्र के नाम पर घोषित संविधान मंे जनता की सर्वोच्चता का कहीं लेशमात्र भी समावेश नहीं है, बल्कि बहुसंख्य जनता के शोषण-उत्पीड़न के लिए हर तरह से राज्य की सर्वोच्चता को कायम रखनेे के लिए प्रतिबð है।सबसे अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह दर्शाया जाता है कि भारतीय संविधान विशेषज्ञांे ने ‘स्वतंत्र’ रूप से ‘स्वतंत्र’ भारत के लिए एक नये संविधान का निर्माण किया, जो भारत मंे 26 जनवरी ,1950 से लागू हुआ। परन्तु भारतीय संविधान के उद्भव, विकास, निर्माण प्रक्रिया और इसके स्वरूप का इतिहास स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है विक्टोरिया के शासन काल मंे 1858 मंे ब्रिटिश संसद ने भारत मंे अपने राज की रक्षा के लिए ब्रिटिश शासन के अधीन भारत परिषद् की स्थापना की घोषणा के साथ वर्तमान संसदीय प्रणाली की नींव डाली थी और ब्रिटिश संसद द्वारा पारित ‘भारत शासन अधिनियम’ भारतीय संविधान के उद्भव का आधार बना। 1858 से ही भारत के राजे-महाराजे, सामंत-जमीन्दारों, नरेशांे और दलाल नेताआंे को भारत परिषद् मंे स्थान मिलने लगा। परन्तु इस संवैधानिक परिवर्तन से क्रान्ति की आग बुझी नहीं। जिस समय दिल्ली केन्द्रीय विधान मंडल मंे भारतीय प्रतिनिधि भारत के लिए एक संकलित संविधान निर्माण और संसदीय समझौते के लिए ब्रिटिश सरकार से प्रार्थना कर रहे थे, तो उसी समय 8 अप्रैल, 1929 को वीर भगत सिंह और बटूकेश्वर दत्त ने दिल्ली केन्द्रीय विधान मंडल मंे एक क्रान्तिकारी धमाका कर दिया। जिससे संवैधानिक शोहदों समेत अंग्रेज सरकार का दिल दहल गया। सारे देश मंे सशस्त्र क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया। ब्रिटिश सरकार ने दोहरी नीति अपनाई। एक तरफ क्रान्तिकारियांे को सूली पर लटकाती रही, दूसरी तरफ कांग्रेसी नेताआंे के साथ संसदीय समझौते का द्वार खोल दिया। कांग्रेसी सदस्य साम्राज्यवादी विधानांे के इर्द-गिर्द नाचते रहे और ब्रिटिश सरकार इनकी शर्तों को ठुकराती रही। इसके साथ-साथ गोलमेज सम्मेलन लंदन मंे चलता रहा। तीसरे गोलमेज सम्मेलन की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीय संविधान के प्रारूप संबंधी एक ‘श्वेत पत्र’ जारी किया। जिसके आधार पर1935 ई॰ मंे ब्रिटिश संसद ने ‘भारत सरकार अधिनियम’ के रूप मंे भारतीय संविधान की धाराआंे को परित किया। ऐतिहासिक रूप से भारत के लिए अंग्रेजों द्वारा निर्धारित यही अंतिम संवैधानिक कदम था। इसके अनुसार देशी रियासतांे और अंग्रेजांे द्वारा स्थापित प्रान्तांे को जोड़कर सबसे अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह दर्शाया जाता है कि भारतीय संविधान विशेषज्ञांे ने ‘स्वतंत्र’ रूप से ‘स्वतंत्र’ भारत के लिए एक नये संविधान का निर्माण किया, जो भारत मंे 26 जनवरी ,1950 से लागू हुआ। परन्तु भारतीय संविधान के उद्भव, विकास, निर्माण प्रक्रिया और इसके स्वरूप का इतिहास स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है विक्टोरिया के शासन काल मंे 1858 मंे ब्रिटिश संसद ने भारत मंे अपने राज की रक्षा के लिए ब्रिटिश शासन के अधीन भारत परिषद् की स्थापना की घोषणा के साथ वर्तमान संसदीय प्रणाली की नींव डाली थी और ब्रिटिश संसद द्वारा पारित ‘भारत शासन अधिनियम’ भारतीय संविधान के उद्भव का आधार बना। 1858 से ही भारत के राजे-महाराजे, सामंत-जमीन्दारों, नरेशांे और दलाल नेताआंे को भारत परिषद् मंे स्थान मिलने लगा। परन्तु इस संवैधानिक परिवर्तन से क्रान्ति की आग बुझी नहीं। जिस समय दिल्ली केन्द्रीय विधान मंडल मंे भारतीय प्रतिनिधि भारत के लिए एक संकलित संविधान निर्माण और संसदीय समझौते के लिए ब्रिटिश सरकार से प्रार्थना कर रहे थे, तो उसी समय 8 अप्रैल, 1929 को वीर भगत सिंह और बटूकेश्वर दत्त ने दिल्ली केन्द्रीय विधान मंडल मंे एक क्रान्तिकारी धमाका कर दिया। जिससे संवैधानिक शोहदों समेत अंग्रेज सरकार का दिल दहल गया। सारे देश मंे सशस्त्र क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया। ब्रिटिश सरकार ने दोहरी नीति अपनाई। एक तरफ क्रान्तिकारियांे को सूली पर लटकाती रही, दूसरी तरफ कांग्रेसी नेताआंे के साथ संसदीय समझौते का द्वार खोल दिया। कांग्रेसी सदस्य साम्राज्यवादी विधानांे के इर्द-गिर्द नाचते रहे और ब्रिटिश सरकार इनकी शर्तों को ठुकराती रही। इसके साथ-साथ गोलमेज सम्मेलन लंदन मंे चलता रहा। तीसरे गोलमेज सम्मेलन की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीय संविधान के प्रारूप संबंधी एक ‘श्वेत पत्र’ जारी किया। जिसके आधार पर1935 ई॰ मंे ब्रिटिश संसद ने ‘भारत सरकार अधिनियम’ के रूप मंे भारतीय संविधान की धाराआंे को परित किया। ऐतिहासिक रूप से भारत के लिए अंग्रेजों द्वारा निर्धारित यही अंतिम संवैधानिक कदम था। इसके अनुसार देशी रियासतांे और अंग्रेजांे द्वारा स्थापित प्रान्तांे को जोड़कर एक अखिल भारतीय संघीय राज्य की व्याख्या दी गई और प्रान्तांे मंे संघ राज्य के लिए उत्तरदायी विधान मंडलांे का विस्तार किया गया। एक संघीय न्यायालय की स्थापना की व्यवस्था की गई। कांग्रेस समेत देश के तमाम अवसरवादी नेताआंे ने ब्रिटिश ‘श्वेत-पत्र’ के संवैधानिक प्रारूप को सहर्ष अंगीकार कर लिया। इस संविधान के तहत 1937 ई॰ से ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण मंे प्रांतीय विधान सभाआंे का चुनाव प्रारम्भ हो गया। कांग्रेस पर विश्वास करके जनता ने सात राज्यांे मंे उसे बहुमत दिलाया और शेष मंे कांग्रेस ने ब्रिटिश प्रतिनिधियांे के साथ संयुक्त सरकारांे गठित की । परन्तु इस संवैधानिक मंत्रिमंडल से शासन-प्रशासन मंे कोई अन्तर नहीं आया। न तो दमन ही रूका, न ही किसी जन समस्या का समाधान हुआ। जनता ने जिस आशा और विश्वास के साथ कांग्रेस को वोट दिया था, सब चकनाचूर हो गया। मजदूर किसानांे के जनान्दोलन होते रहे और कांग्रेस की प्रांतीय सरकारें दमन की तलवार भांॅजती रहीं। सितम्बर,1939 मंे द्वितीय विश्व यु( शुरू होते ही ब्रिटिश सरकार ने बिना किसी मंत्रीमंडल की सलाह के सभी प्रांतीय मंत्रीमंडल को भंग कर दिया और भारत को यु( मंे झोंक दियाऋ फिर भी गांधी और कांग्रेस की ब्रिटिश भक्ति कम नहीं हुई। कांग्रेस की ओर से ब्र्रिटिश सरकार के समक्ष यह मांग रखी गई कि हम इस यु( मंे इंग्लैंड की मदद् करने के लिए तैयार हैं और यु( के बाद हमंे संवैधानिक शासन का अधिकार दिया जाए। यु( के बाद अगस्त क्रान्ति को बलि देकर गांधी ने ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव को वापस ले लिया और ब्रिटिश सरकार के साथ पुनः 1935 के संवैधानिक शर्तों को मानकर कांग्रेस का समझौता करवाया। इसके आधार पर 1945 मंे पुनः प्रांतीय विधानसभाआंे का चुनाव कराया गया। पुनः सात राज्यांे मंे कांग्रेस का मंत्रीमंडल बना और शेष मंे संयुक्त मंत्रीमंडल बना। परन्तु देश के क्रान्तिकारी जनता इस संवैधानिक समझौते से संतुष्ट नहीं थीं परिणामस्वरूप 1945 के बाद सारे भारत मंे क्रान्ति की धार वेगवती बन गई। 14 मार्च 1946, को ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने ब्रिटिश संसद मंे कांग्रेस के हाथांे संवैधानिक अधिकार हस्तान्तरित करने की घोषणा कर दी। इसके लिए 23 मार्च 1946 को ब्रिटिश मंत्रियांे का एक कैबिनेट मिशन भारत आया। जिसने भारत मंे एक संविधान सभा के गठन के लिए 16 मई, 1946 को ब्रिटिश संसद द्वारा निर्देशित प्रक्रिया का प्रारूप प्रस्तुत किया। जिसे सभी भारतीय नेताआंे द्वारा सहर्ष स्वीकार कर लिया गया।
संविधान सभा का गठन
जुलाई, 1946 मंे ब्रिटिश संसद के निर्देशांे के अनुरूप 1935 में निर्मित ‘भारत सरकार अधिनियम’ के तहत व्यस्क जनसंख्या के सीमित प्रतिशत के मताधिकार द्वारा चुने गए प्रांतीय विधान सभा के सदस्यांे मंे से समानुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर ब्रिटिश सरकार ने भारत के संविधान सभा का गठन कराया। जिसमंे कांग्रेस को बहुमत मिला। मुस्लिम लीग के नेताओं ने कैबिनेट मिशन की योजना से अपनी सहमति वापस ले लिया। जिससे संविधान सभा मंे कांग्रेस का 80 प्रतिशत बहुमत कायम हो गया। यह संविधान सभा देश की बहुसंख्यक जनता का प्रतिनिधित्व नही करता था। संवैधानिक विडम्बना इसे संविधान सभा और संवैधानिक प्रक्रिया का माखौल ही कहा जाएगा कि संविधान सभा की एक बैठक भी नहीं हुई थी और वाॅयसराय बावेल ने कांग्रेसी प्रतिनिधि जवाहरलाल नेहरू को अन्तरिम सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया। बावेल ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अधीन 12 सितम्बर,1946ई0 को नेहरू के नेतृत्व मंे भारत मंे एक अन्तरिम सरकार गठित कर दी। मुस्लिम लीग इस सरकार मंे शामिल न होकर अलग पाकिस्तान के लिए लड़ती रही। ठीक इसी तरह भारत का नया संविधान तैयार होने से पूर्व ही 1 अगस्त 1947 को माउंटबेटन ने नेहरू को भारत के प्रधानमंत्री के रूप मंे शपथ दिलवाई। जाहिर है 15 अगस्त 1947 को नेहरू आजाद भारत के प्रधानमंत्री नहीं बने, बल्कि साम्राज्यवाद अप्रत्यक्ष शासन चलाने के लिए अपने वफादार उत्तराधिकारी के हाथों मंे सत्ता का हस्तान्तरण कर दिया। ब्रिटिश सरकार की लाडली कांग्रेस ही सब कुछ ज्ञातव्य है कि 1885 मंे एक अंग्रेज अफसर एलन अक्टोवियन हयूम;ए।ओ।हयूम।द्ध ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की ‘मानस पुत्री’ के रूप मंे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को जन्म दिया था। उस लाडली कांग्रेस को अंग्रेजांे ने 1946 ई0 मंे भारत का सब कुछ बना दिया। यानि कांग्रेस संगठित दल, कांग्रेस सरकार, कांग्रेस संविधान सभा, कांग्रेस अंग्रेजांे की असली उत्तराधिकारी और कांग्रेस ही भारत का सब कुछ। अब संविधान सभा पूरी तरह कांग्रेस की एक दलीय संस्था बनकर हर प्रकार से ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा स्थापित अधिनियमांे, नीतियांे, कानूनांे की स्थापना और कुलीन सामन्तांे की शक्ति व सम्मान की रक्षा के लिए समर्पित हो गई।
संविधान सभा की समस्या
9 दिसम्बर, 1946 को दिल्ली मंे संविधान सभा की पहली बैठक हुईं। डा॰ राजेन्द्र प्रसाद को संविधान सभा का स्थाई अध्यक्ष निर्वाचित किया गया और डा॰ सच्चिदानन्द सिन्हा को अस्थाई अध्यक्ष चुना गया। अब संविधान सभा के समक्ष सबसे टेढ़ी समस्या उत्पन्न हो गई कि भारतीय संविधान का प्रारूप क्या हो? क्यांेकि ब्रिटिश सरकार के निर्देशंांे के अनुरूप संविधान मंे सामन्ती हितांे की रक्षा करनी थी और साम्राज्यवादी नीतियांे का पालन करना था। संविधान सभा ने इस समस्या से निपटने के लिए दुनिया के बुर्जुआ संविधानांे के अध्ययन और उसके प्रावधानांे को संकलित करने का निर्णय लिया। इसके लिए कई उप समितियाॅं गठित की गई। इन्हीं समितियांे मंे से एक प्रारूप समिति भी गठित की गई, जिसका अध्यक्ष डा॰ भीमराव अम्बेडकर को मनोनीत किया गया। डा॰ अम्बेडकर को सभी समितियांे द्वारा दी गई संवैधानिक प्रावधानांे को संकलित करने का भार सौंपा गया। डा॰ अम्बेडकर संविधान सभा मंे गैर कांग्रेसी सदस्य थे। उनका संविधान सभा के अन्दर विधि सम्बन्धी और राजनैतिक स्वरूप संबंधी विभिन्न प्रश्नांे को लेकर अन्य सदस्यांे के साथ रस्साकस़ी चलती रहती थी। संविधान सभा की मूल समस्या थी कि यह जनता द्वारा निर्वाचित सभा नहीं थी, इस पर कांग्रेस का एकाधिकार था और अब उसकी सरकार थी जिसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के निर्देशों का पालन करना था। स्वाभाविक रूप से संविधान सभा पर नेहरू और पटेल आदि कांग्रेसी गुट सदा हावी रहा। यह भारतीय जनता का संविधान नहीं बन सका। डा॰ अम्बेडकर की मज़बूरी डा॰ अम्बेडकर संविधान सभा तथा प्रारूप समिति मंे गैर कांग्रेसी अल्पमत के सदस्य थे। उन्हंे कांग्रेसी सदस्यांे के निर्णय को मानने के लिए बाध्य किया जाता था। अनेक बार डा॰ अम्बेडकर को कांग्रेसियांे के बहुमत के पक्ष में अपने निर्णय को बदल देना पड़ता था। डा॰ अम्बेडकर के निर्णयांे को बदलने के लिए कांग्रेसी सदस्य ऐसी तत्परता दिखाते तथा सरकार के पक्ष मंे इसका औचित्य सि( करते जिससे डा॰ अम्बेडकर को कांग्रेसी नेताआंे के दबाव मंे बड़ी जल्दी और बड़ी कुशलता से अपने निर्णय बदलना पड़ता था। इस संबंध मंे एक जगह कहा भी गया है कि‘‘संविधान प्रारूप समिति रंग बदलती समिति है’’
प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा॰अम्बेडकर की सबसे बड़ी मजबूरी थी कि चाहे संविधान सभा हो या प्रारूप समिति वह संवैधानिक संकलन केऔपचारिक केन्द्र भर थे। संवैधानिक रचना के वास्तविक केन्द्र कांग्रेसी नेता मिल बैठकर साम्राज्यवादी विधानांे के आधार पर निर्णय लिया करते थे व डा॰ अम्बेडकर और प्रारूप समिति के महत्वपूर्ण निर्णय कांग्रेसी नेतृत्व के निर्णयांे पर आधारित होता था जोकि ब्रिटिश साम्राज्यवाद का अनुशासनादेश ही रहता था। इस सम्बन्ध मंे एक कांग्रेसी नेता महावीर त्यागी ने कहा है-‘‘संविधान प्रारूप समिति के हाथ बंधे हुए हैं और वे स्वयं किन्हीं अन्य तत्वांे के लिए बलि के बकरे हैं।’’ स्वयं प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा॰ अम्बेडकर ने भी माना है कि-‘‘प्रारूप समिति के सदस्यांे को समिति की बैठक मंे आने से पहले किसी अन्य स्थान पर जाकर निर्देश लेना पड़ता है।’’ दलित समुदाय के भ्रमजाल में फंसाए रखने के लिए संसदीय चाटूकारांे द्वारा भले ही डा॰ अम्बेडकर को संविधान का जनक प्रचारित किया जाता है ,परन्तु खुद डा॰ अम्बेडकर ने व्यक्त किया है कि ‘‘मैं तो संविधान सभा मंे केवल एक भाड़े का टट्टू था , मैंने वही किया, जो मुझसे करने को कहा गया। मैंने केवल बहुमत की इच्छाओं का पालन किया ’’।
भारतीय संविधानः एक वर्णसंकर
विधान एक संवैधानिक आलोचक ने भारतीय संविधान का विश्लेषण करते हुए इसे ‘‘भानुमति के पिटारे की भाॅंति विभिन्न संविधानांे का गड़बड़ संग्रह तथा वर्णसंकर विधान’’ कहा है। ज्ञातव्य है कि सत्ता हस्तान्तरण के बाद भारत एक औपनिवेशिक असामंती देश बन गया। ब्रिटेन का कोई लिखित संविधान भी नहीं था। अन्य बुर्जुआ लोकतंत्र का संविधान भी विभिन्न रूपांे मंे था। संविधान सभा के समक्ष था तो केवल ब्रिटिश संसद द्वारा पास किए गए भारत सरकार के संबंध मंे अधिनियमों के संसदीय आदेश। इसी के आलोक मंे संविधान सभा ने ब्रिटिश संसद द्वारा 1858 से पारित ‘भारत शासन अधिनियम’ और 1935 ई0 मंे पारित ‘भारत सरकार अधिनियम’ को भारतीय संविधान का आधार बना लिया और यह व्याख्या दी गई कि भारतीय संविधान का प्रारूप ब्रिटिश विधानांे के अनुरूप है। ब्रिटिश संसद द्वारा पारित कानूनांे, आर्डनेंसांे, एक्टांे और निर्देशंों तथा ‘भारत सरकार अधिनियमांे’ के 250 से अधिक अनुच्छेदांे को नये संविधान का हिस्सा बना लिया गया। इसके अलावा पाश्चात्य बुर्जुआ संविधान के प्रशासनिक एवं न्यायिक प्रारूपांे समेत संघात्मक राज्य के प्रावधानांे से भारतीय संविधान को सजाया गया। संक्षेप मंे देखा जाए तो भारतीय संसद का संघात्मक स्वरूप मूलतः आस्ट्रेलिया तथा कनाडा के संविधान से लिया गया।अमेरिकी संविधान के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय को संवैधानिक व्याख्या का अधिकार दे दिया गया। दूसरी तरफ भारत के संसद का स्वरूप ब्रिटिश संसद पर आधारित होने की वजह से न्यायालय की सर्वोच्चता का अधिकार सीमित कर दिया गया है। फ्रांस के पूंजीवादी संविधन के आलोक मंे समानता, स्वतंत्रता और भातृत्व की व्याख्या दी गई, जिसके अनुसार केवल व्यक्तिगत सम्पत्ति जमा करने व उसकी रक्षा की स्वतंत्रता है, लेकिन वर्गीय विभेद व विषमता समाप्त करने की स्वतंत्रता नहीं। आर्थिक सामाजिक समानता का कोई जिक्र नहीं किया गया। आयरलैंड के संविधान के अनुरूप नीति-निर्देशक तत्वों का भारतीय संविधान मंे प्रवेश कराया गया। दक्षिण अफ्रीका के संविधान के अनुरूप संविधान संशोधन प्रणाली ग्रहण की गई। केन्द्र या राज्यांे की संकटकालीन अवस्था मंे भारतीय संविधान की आपातकालीन शक्तियां जर्मन संविधान से निर्देशित हैं। यानि भारत का संविधान अनेक बुर्जआ देशांे के संविधानांे के विभिन्न प्रावधानांे को जोड़कर एक बेहद दोषपूर्ण मिश्रण ही कहा जाएगा, जोकि मूलतः सामन्ती अधिकारांे का रक्षक और साम्राज्यवादी हितांे की सेवा के लिए समर्पित है। आम जनता को बुर्जुआ जनवाद भी मयस्सर नहीं है। संविधान का उद्देश्य और यथार्थ संविधान की उद्देशिका मंे अंकित है कि ‘‘भारत को एक संप्रभूता सम्पन्न्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा समस्त नागरिकांे को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपसना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब मंे व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं’’। आप खुद सोचंे इस संवैधानिक घोषणा को पूरे साठ वर्ष हो चुके हंैं। परन्तु इस उद्देशिका का कितना अंश पूरा हो पाया है? सच तो यही है कि जिन लोगांे के द्वारा इन शब्दांे का प्रयोग किया गया है, उन लोगांे का इसे पूरा करने के लिए वास्तविक अभिप्राय कभी था ही नहीं , न इसकी पूर्ति से वे कोई संबंध रख सके। बल्कि देश के राजनैतिक बंचकांे द्वारा ऐसे शब्दों का प्रयोग मात्र इसलिए किया गया कि देश की जनता पर संविधान के प्रति अत्यन्त सशक्त आकर्षण तथा बोकि भ्रम उत्पन्न होता रहे। आज भी जिनके हाथ मंे वास्तविक सत्ता है इन शब्दांे के सहारे जनता को भ्रमित करते रहते हैंऋ संविधान को महिमामंडित करते हैं और जनता को अपने रोब़ मंे ले आते हैं। परन्तु भ्रम टिकाउळ नहीं होता । यथार्थ खुलकर जनता के सामने नाच रहा है। तथाकथित भारतीय लोकतंत्र की संपूर्ण प्रभुत्व सम्पन्नता साठ वर्षों तक यहाॅं तक पहुंच गई है कि भारत आकंठ साम्राज्यवादी कर्जे मंे डूब चुका है। जो भारत 1947 से पूर्व 1600 करोड़ का विदेशांे से लेनदार था, वह आज दुनिया के दस सबसे बड़े कर्ज़दारों की श्रेणी मंे पहुंच गया है। भारत की आर्थिक नीतियाॅं अन्तराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक और साम्राज्यवाद का नियंत्रण कक्ष बन चुकी हैं। साम्राज्यवादी विकास माड़ल पर निर्भरता ने ही आज भारत को भी आर्थिक मंदी के जाल में फंसा दिया है। लगभग 50 लाख लोग अपनी रोजी रोजगार से बाहर कर दिये गए है। इसी माड़ल के कारण कृषि संकट बढ़ता जा रहा है। पिछले 10 साल में लगभग 1.5 लाख किसान कर्जे के कारण आत्महत्या कर चुके है। भारत मंे स्वतंत्र औद्योगिक एवं पूंजीवादी विकास का मार्ग अवरूश्है और साम्राज्यवादी निर्भरशीलता निरन्तर बढ़ती जा रही है। क्या इसे ही संप्रभुत्त्व संपन्नता कहा जाएगा ? यह साम्राज्यवादी गणराज्य ऐसा गढ़ा गया है कि जनता को बुर्जआ जनवाद भी नसीब नहीं है। 45 प्रतिशत से अधिक जनता गरीबी रेखा से नीचे दमतोड़ रही है। गरीबी-अमीरी की खाई निरंतर चैड़ी होती जा रही है। जोतनेवाले किसानों के पास जमीन नहीं है और हजारांे एकड़ का भूमिचोर मालिक संसद तथा विधानसभा मंे बैठकर भूमि सुधार का विधान गढ़ रहा है। समाजवाद ऐसा कि लगभग आठ करोड़ जनता भीख मांगकर गुजारा कर रही है। अस्सी प्रतिशत मेहनतकश रोजाना 20 रूपए औसत कमाई पर जीवन निर्वाह करने को बाध्य हैं। गणराज्य ऐसा जहां वंशवाद को बढ़ावा मिल रहा है और अपराधी संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं। ऐसे धर्म निरपेक्ष भारत का निर्माण हो पाया है कि संविधान निर्माण काल से आज तक धर्म और साम्प्रदायिकता खासतौर पर हिन्दू फासीवादी सम्प्रदायिकता की आग मंे पूरा भारत झुलस रहा है। धर्म संसदीय राजनीति पर सवारी गांठ रहा है। मंदिर, मस्जिद और गिरजाघरांे के विवाद से संसद का भविष्य तय किया जा रहा है। साम्प्रदायिक विद्वेष संसदीय राजनीति का स्थाई एजेन्डा बना लिया गया है। ऐसी संसदीय पार्टियां जो हिन्दू फासीवाद का सहारा लेकर अल्पसंख्यक पर कहर ढा रही हैं। एकता और अखण्ड़ता के नाम पर विभिन्न काश्मीर, मणिपुर, नागालैंड़, त्रिपुरा, आसाम आदि राष्ट्रीयताओं के आत्मनिणर्य के अधिकार को कुचला जा रहा है। सामाजिक न्याय ऐसा कि समाज मंे जात-पात का भेद-भाव चरम पर हैऋ सबसे ज्यादा दलितों और महिलाआंे का उत्पीड़न जारी है। उच्च जातियांे का निम्न जातियांे पर रोब़ और धौंस सामाजिक दस्तूर बना हुआ है। संसदीय दल जाति-धर्म के आधार पर अपना वोट-बैंक बनाते हैं और चुनाव मंे जाति के आधार पर उम्मीदवार खड़े करते हैं। आर्थिक न्याय ऐसा कि मिट्टी से सोना पैदा करने वाला मजदूर -किसान गरीबी और अभाव मंे मरने को स्वतंत्र है और जनता की कमाई लूटने वाला संपत्ति का पहाड़ खड़ा करने तथा ऐेश़-परस्ती, मौज़ करने के लिए आजाद है। लगभग 22 करोड़ बेरोजगार युवक रोजी-रोटी के लिए दर-दर भटक रहे हैं। जमीन जोतने वाले के पास जमीन नहीं और मशीन चलाने वाले के पास मशीन नहीं। मकान बनाने वाले झोंपड़ियांे मंे दम तोड़ रहे हैं। जंगल मंे रहने वाले आदिवासियांे का जंगल पर अधिकार नहीं। अवसर की समता ऐसी कि कराड़ांे-करोड़ लोगांे को स्वच्छ पानी नसीब नहीं। गरीबी के कारण 40 प्रतिषत जनता निरक्षर अंगूठा छाप बनकर जीवन गुजारती है और 20 करोड़ से ज्यादा गरीब बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। आम आदमी के लिए चिकित्सा दुर्लभ है और जीवन रक्षक दवाआंे को खरीद पाना भी कठिन है। उनके लिए न तो कानून है, न न्याय अगर न्याय है तो वह इतना मंहगा है कि न्यायालय की सीढ़ी तक पहुंचने के लिए आम जनता के पास न तो साधन हैं न ही पैसे। न्याय और कानून केवल उन्हीं के लिए है जिसकी गांठ भारी है। यानि मुट्ठी भर धनवानांे के लिए सब कुछ है -सत्ता, संपत्ति, संसद और संविधान। जो वातानुकूलित महलांे मंे बैठकर घपले और घोटालांे मंे लिप्त होकर समता का अधिकार बांॅट रहे हैं। रट लगा रहे हैं कि संविधान हर व्यक्ति को कानून के सामने बराबरी का दर्ज़ा देता है। परन्तु व्यवहार मंे ऐसा कभी नहीं होता। कानून एवं न्यायपालिका एक ही अपराध के लिए एक गरीब एवं अमीर के साथ एक जैसा व्यवहार नहीं करते। कोई भी राजपत्रित पदाधिकारी कभी भी जनता के खिलाफ कानूनी कार्यवाही कर न्यायालय मंे मुकद्मा चला सकता है या न्यायिक हिरासत मंे भिजवा सकता है। परंतु कोई भी पदाधिकारी जब आम जनता के साथ दुव्र्यवहार करता है तो यदि उसके खिलाफ यदि कोई नागरिक थ़ाने या न्यायालय मंे केस करता है, तो राज्य के आदेश के बिना राजपत्रित पदाधिकारी के खिलाफ न्यायालय भी सुनवाई के लिए संज्ञान नहीं ले सकता। मूल अधिकार : एक प्रतिबंधित अधिकार भारतीय संविधान के भाग-3 मंे नागरिक के मूल अधिकारांे की फेहरिस्त कई अनुच्छेदांे, खंडो और उपखण्डों मंे दर्शायी गई है। परन्तु ये अधिकार केवल संविधान की शोभा बढ़ा रहे हैंऋ आम आदमी के जीवन मंे इसे उतारने की बात तो दूर, अभी तक केन्द्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा ये उपेक्षा तथा विधि के समक्ष उल्लंघन का ही शिकार होते आये हैं। मूल अधिकारांे मंे स्वातंत्र्य -अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकारांे मंे से है। जो अनुच्छेद 19 मंे सभी नागरिकांे के लिए वर्णित है। जिसके अनुसार सभी नागरिकांे को:-दस्वातंत्रय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।दशान्तिपूर्ण बिना हथियारांे के सम्मेलन करना।दसंगठन या संघ बनाने की स्वतंत्रता।दभारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग मंे रहने और बस जाने कीदकोई वृति, जीविका, व्यापार या कारोबार करने का इन स्वतंत्रता अधिकारांे में पहले तीन उपखण्ड राजनैतिक स्वतंत्रता संबंधी अधिकार है और चार उपखण्डांे मंे नागरिक जीवनऋ जीविका और सम्पत्ति संबंधी अधिकार है। परन्तु संवैधानिक विडम्बना है कि उक्त सभी उपखण्डांे के स्वतंत्रता के अधिकार अनुच्छेद 19 के खण्ड ; से खण्ड; तक पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिए गए है।यानि संविधान ने जो स्वतंत्रता का अधिकार दर्शाया, वह वही वापस ले लिया गया। सोचें ! जहां संविधान ही संविधान के प्रावधान को नष्ट कर रहा हैऋ वहां बोलने की स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि भारत मंे नागरिक स्वतंत्रता ही एक भद्दा मज़ाक बन गया है।आज तो पूरे देश मंे यह साफ नज़र आ रहा है कि किसी भी जनान्दोलन , प्रतिरोध प्रदर्शन, जनसभा और विराध के स्वर को स्थापित कानून के खिलाफ भड़काने या उकसाने का आरोप मढ़कर धड़ल्ले से प्रतिबंधित किया जा रहा है। देश के विभिन्न जन संगठनांे, छात्र संगठनांे, मजदूर संगठनों, महिला संगठनांे, सांस्कृतिक संगठनांे आदि को प्रतिबंधित कर दिया गया है। अनेक मानवाधिकार कार्यकत्र्ता, लेखक, कलाकार और संपादकांे पर मुकद्दमंे चल रहे हैं और अनेकांे को जेल तथा निष्कासन की यातना भोगनी पड़ रही है। क्या यही है स्वतंत्रता का अधिकार? अब केन्द्र और राज्य सरकारांे नागरिक स्वतंत्रता के अपहरण के लिए सारे देश मंे नए-नए दमनात्मक कानूनांे की बाढ़ ला रही है। पहले ‘टाडा’ आया, फिर ‘पोटा’ आया, अब टाडा और पोटा के अनेक घिनौने प्रावधानांे को समेट कर केन्द्र सरकार ने यू.ए.पी.ए. पारित किया है।इसके अलावा सभी राज्य सरकारें ने स्पेशल पब्लिक सेक्यूरिटी एक्ट आदि नितान्त कठोर कानून निर्मित किए हैं।इन कानूनांे का एकमात्र उद्देश्य है जो कोई भी या जहां कहीं से सरकारी निरंकुशता या प्रशासनिक भ्रष्टाचार के लिए आवाज़ उठती है, अपनी समस्या के निदान के लिए जहां भी लोग संगठित होते हैं उन लोगांे पर मनगढ़न्त आरोप मढ़कर उन्हंे दोषी साबित करना और उन्हंे जेल में डालने के लिए पुलिस को खुली छूट देना। यह हर तरह से नागरिक स्वतंत्रता और जनतांत्रिक अधिकारांे के लिए भारी खतरा है। इन कानूनांे के चलते सिर्फ बोलने की स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि मूल अधिकारांे और नागरिक स्वतंत्रता का दिखावा या उपयोग भी यहां संभव नहीं है। यह आजादी और यह लोकतंत्र नहीं , बल्कि राज्य का फासीवादी आतंक ही कहा जाएगा।

Tuesday, September 15, 2009

देख तमाशा लोकतंत्र का
‘‘अपने-आप से सवाल करता हू
क्या आजादी तीन थके हुए रंगों का नाम है ,
एक पहिया ढोता है,
या इसका कोई खास मतलब होता है?
न कोई पूजा है, न कोई तंत्र है,
यह आदमी के खिलाफ
आदमी का खुला षड्यंत्र है।’’-धूमिल
संविधान
यह पुस्तक मर चुकी है
इसे न पढ़ें इसके शब्दों मंे मौत की ठंडक है
और एक - एक पृष्ठ जिंदगी के आखरी पल
जैसा भयानक यह पुस्तक जब बनी थी तो मैं पशु था
सोया हुआ पशु ओर जब मैं जगा
तो मेरे इंसान बनने तक
यह पुस्तक मर चुकी थी
अब यदि तुम भी इस
पुस्तक को पढ़ोगे तो
पशु बन जाओगे सोए हुए पशु।
-अवतार सिंह पाश
हमारा लोकतन्त्र

आज के समय मंे हम यदि लोकतन्त्र के बारे मंे बात करते हैं तो यह चीज़ निकल कर आती है जनता द्वारा जनता के लिए लेकिन सच भारत के संदर्भ मंे कुछ और ही है। आज लोकतन्त्र मंे इस बा के कोई मायने नहीं रह गए हैं। करोड़ांे रुपए खर्च करके हर गलत;शराब , विज्ञापन, जबरदस्तीद्ध रास्ते से जब कोई नेता आज चुनाव लड़ता है तो जाहिर है कि फायदा अरबांे मंे होने वाला है । यह लोकतन्त्र वास्तव मंे पूंजीपतियांे , दबंगांे के लिए है। जिसे पूरी स्वतन्त्रता है और कोई जवाबदेही नहीं । आम आदमी तो 1935 से चुनावी तमाशे देख रहा है । तब से आज तक कोई खासा परिवर्तन नहीं है। तब भी दलाल लोग कुर्सी पर बैठते थे और नीतियां ब्रिटिश साम्राज्यावादियांे के लिए और आज भी अगर कोई फर्क आया है तो वह यह कि आज साम्राज्यवादी एक नहीं कई देश हैं जहां से दलालांे को फायदा होता है उसी की गोद मंे जा बैठते हैं।

15वीं लोकसभा चुनाव पर विशेष

चुनावी महासंग्राम-लोकतन्त्र की त्रासदी और ढोंग

चुनाव बहिष्कार व क्रान्तिकारी हथियार बंद संघर्ष ही एकमात्र रास्ता।

देश मंे 15वें लोकसभा चुनावों की घोषणा होने के साथ ही चुनावी सरगर्मियां तेज होने लगी हैं। प्रत्येक पार्टी चुनावी चिलपौं के साथ बड़े जोर-शोर से झूठे फरेबवादियांे की झड़ी लगा रही है। इस समय जनता का सबसे बड़ा हितैषी बनना उसके ऐजण्डे मंे सबसे उपर है। चुनावी जंग जीतने के लिए वे कोई भी लुभावना तरीका अपनाना हीं भूल रही है। एक बार फिर फिल्मी कलाकारांे के चिकने चुपड़े चेहरे मैदान में उतार कर जनता की आंखांे मंे धूल झांेकने का प्रयास किया जा रहा है। ‘भेड़ की खाल मंे भेड़िये’ को चरितार्थ करते हुए नकाब पहन कर हमसे हमंे ही खाने की इजाजत लेना चाहते हैं। वे अपनी असलियत को सुन्दर , लुभावने वायदांे -आश्वासनांे, आरोप-प्रत्यारोपांे, चिकनी चुपड़ी बातांे , तथाकथित विकास के नारांे स ढक देना चाहते हैं ताकि वे अपना उल्लू सीधा कर सकंे। वास्तव मंे ये एक ही थाली के चटट्े-बटट्े हैं। जनता को नौंचने के मुदद्े पर ये सब एकमत हैं।संसदीय पार्टियों की वास्तविकतासंसदीय पार्टियांे का चरित्र आज मुख्यतः तीन ही राष्टीय दल भारत मंे दिखाई पड़ते हैं जिनका उपरी तौर पर देखने से तो लगता है कि इनके एजेण्डे अलग हैं पर वास्तविकता कुछ और ही है । कांग्रेस, भाजपा और वाम मोर्चा जिनमंे सबसे पुरानी कांग्रेस जिसका जन्म ही साम्राज्यवादियांे के साथ चलते हुए कुछ सुविधांए और जनता को भ्रमित करने के लिए हुआ, दूसरी भाजपा जिसको अपने पहचान के लिए साम्प्रदायिकता और राम मंदिर का सहारा लेना पड़ा और तीसरी वाम मोर्चा कहा जाने वाला सी.पी.आई,सी.पी.एम जिनका काम रहा जैसे तैसे कुर्सी हथियाना । आज तक के यदि इन सभी के शाासन कालांे और राज्यांे मंे लागू किए गए इनके एजेण्डे पर यदि नजर डाली जाए तो वास्तविकता मंे सभी पार्टियां उदारीकरण निजीकरण,भूमण्डलीकरण की साम्राज्यवादपरस्त नीतियांे पर सहमत हैं। खासतौर पर 1991 के बाद बनी तमाम सरकारांे ने इन्हीं नीतियांे को सिदांततः अपनाया है। पिछले 18 सालांे मंे विदेशी कंपनियांे ने लगभग 37254 करोड़ रुपए का निवेश भारत मंे किया है। चाहे नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह नीत कांग्रेस रही हो या वाजपेयी के नेतृत्व मंे भारतीय जनता पार्टी अथवा देवेगौड़ा के नेतृत्व मंे सी.पी.एम. समर्थित सरकार सभी ने भारत मंे विदेशी निवेश को बढ़ावा देने को विकास का मूलमंत्र के रूप मंे स्वीकार किया है। उन्हांेने खनन सहित लगभग तमाम क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोल दिया। लोहा, कोयला, बाक्साइट आदि के खनन के साथ-साथ शोधन और निर्माण के प्लांट लगाने के रास्ते खोल दिए। साथ ही ढांचागत सुविधांए उपलब्ध कराने के लिए पावर प्लांट, हवाई अडडे, सड़क, रियल स्टेट द्वारा आवास , पयर्टन क्षेत्र तथा बड़े बांध बनाने की प्रक्रिया को तेज कर दिया गया। यहां तक कि इस निवेश के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम पर भारत मंे औपनिवेशिक टापू बनाने की मंजूरी भी भारतीय संसद ने दे दी। अैर इस निर्माण को सभी पार्टियांेे ने बगैर कोई सवाल उठाए सहमति प्रदान कर दी। विदेशी निवेश के इस खुले आमंत्रण ने खासतौर पर इन परियोजनाआंे के माध्यम से विस्थापन की समस्या को गहरा दिया और सभी संसदीय राजनैतिक दल विकास के इस माडल के लिए विस्थापन करने के लिए सहमत हैं। विदेशी निवेश के लिए रास्ता साफ करने के बाद लगभग सभी राज्यांे की सत्तारुढ़ राजनैतिक दलांे ने विभिन्न औद्योगिक घरानों के साथ 65 इकरारनामंे करने शुरु कर दिये। हरियाणा मंे कांग्रेस नीत हुड्डा सरकार ने सत्ता मंे आते ही बड़ी-बड़ी परियोजनाआंे के लिए किसानांे को उजाड़ने की योजना बनानी शुरु कर दी थी। गुड़गांव व झज्जर मंे विशेष आर्थिक जोनांे, पूंजीपतियांे को बिजली देने के लिए पावर प्लांटांे के लिए जमीन हड़पने का काम जारी है। जिसमंे सबसे बड़े पावर प्लांट के रुप मंे 2450 एकड़ जमीन किसानांे से छीनी जाएगी। इस योजना के प्रचार प्रसार पर भी करोडांे रुपए खर्च किए जा रहे हैं।उड़ीसा मंे बीजू जनता दल नीत सरकार ने पिछले चार सालांे मंे विभिन्न कंपनियांे के साथ 65 इकरारनामें किये। इन कंपनियांे मंे मित्तल, भूषण, वेदान्ता, होलसीम, पोस्को टाटा, जैसी विदेशी व देशी कंपनियां शामिल हैं। इन परियोजनाआंे से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित होने वालों की संख्या लाखांे मंे होगी। लाखांे लोेगांे को उनके जल जंगल जमीन से उजाड़ कर उत्पादन क्षेत्र से बाहर कर दिया जाएगा। कांग्रेस सहित अन्य दलांे की सरकारांे द्वारा विस्थापित लगभग 20 लाख लोग पुर्नवास नहीं हो पाया है। इसके बावजूद वहां प्रोजेक्ट लगवाने के लिए सरकार संरक्षण मंे पुलिस और कंपनी के गुण्डांे ने कई लोगांे की हत्या कर दी। झारखण्ड मंे भी पिछले चार सालांे मंे 90 इकरारनामंे हस्ताक्षरित किए गए। इन चार सालांे मंे हालांकि कई बार मुख्यमंत्री मंे फेर बदल हुए। परन्तु नए-नए इकरारनामे हर सरकार द्वारा किए गए। भाजपा के अर्जुन मुण्डा, निर्दलीय मधु कोड़ा सहित झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन के छोटे से कार्य काल की एकमात्र उपलब्धि है काठीकुण्ड मंे सीइएससी-आरपीजी ग्रुप की कंपनियांे के एस पावर प्लांट लगाने का विरोध करने वाली निरीह जनता पर दो-दो बार गोलियां बरसवाना जिसका इकरानामा 15.09.2005 को भाजपा नीत राष्टीय लोकतान्त्रिक गठबन्धन सरकार के शासनकाल मंे किया गया था।इसी तरह से छतीसगढ़ जहां राजनांदगांव लोकसभा के उपचुनाव के पूर्व 13 मार्च 2007 को मुख्यमंत्री ने किसान प्रतिनिधियांे को बुलवाकर आश्वासन दिया कि अधिग्रहण निरस्त करने के आदेश वे चुनाव के बाद जारी करवा देंगे। 21 जून 2007 को सयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधि फिर मुख्यमंत्री से मिले तो मुख्यमंत्री ने उसी ज्ञापन पर ‘स्थल परिवर्तन कियाज जाए’ टीप लिखकर उद्योग को भेजा। कलेक्टर राजनांदगांव द्वारा भूमि अधिग्रहण निरस्त करने के लिए 18 जुलाई 2007 को औेर 1 सितम्बर 2007 को पत्र लिखना भी बताया गया। परन्तु इसके बाद 5 सितम्बर 2007 को भूअर्जन अधिनियम की धारा 6 के तहत नोटिस निकाल दिया तथा किसानांे के साथ सरासर धोखाधड़ी की । बस्तर मंे लोहांड़ीगुड़ा, धुरली, रावघाट-चारगांव मंे जनता के तीव्र विरोध के बावजूद सरकार वहां की जमीन विभिन्न स्टील परियोजनाआंे को देने पर तुली हुई है। भाजपा नीत सरकार बस्तर की समस्त प्राकृतिक सम्पदा को विदेशी कम्पनियांे के हवाले करने और अपनी दलाली से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा या जेबें भरने को आतुर है। प.बंगाल मंे माकपा का कुकृत्य तो किसी से छिपा नहीं जिस तरह से वहां के किसानांे की अपनी जमीन की लड़ाई को फासीवादी तरीके से कम्युनिस्ट कही जाने वाली सरकार ने दबाया वह निहायती शर्मनाक रहा। वहां पर यह तथ्य साफ हो गया कि चाहे मोदी हो, करात हो या फिर हुडड्ा हो सब पूंजीपतियांे की चाकरी करने वाले हैं । वहीं से इन्हंे चुनाव लड़ने के लिए चंदा मिलता है और उन्हीं के लिए नीतियां बनाकर इन्हंे अपनी दलाली।नेताओं का काला धनचुनाव आयुक्त एन.गोपालस्वामी की बात पर गौर फरमाई जाए तो वे कहते हैं कि कुकरमुतांे की तरह उगती राजनैतिक पार्टियाॅं केवल अपना काला धन सफेद में बदलने के लिए हैं न कि राजनैतिक गतिविधियांे व जनहित के लिए। बेशक वे अपने दायरे मंे रहकर बोलते हैं लेकिन यह एक कड़वा सच है । उनके अनुसार देश मंे 967 राजनैतिक पार्टियां हैं जिसमंे से अधिकतर एक कमरे, एक मेज़ और चार कुर्सियांे के साथ चल रही हैं। जिनका एक ही मकसद है ष्बवदअमतज इसंबा उवदमल पदजव ूीपजमष् हाल ही में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनावांे पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि भारत मंे पैसा व शारीरिक शक्ति ;डवदमल ंदक उनेबसम चवूमतद्ध चुनाव की नियमित धुरी है।यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि 20 फीसदी सांसदांे पर अपराधिक मकद्दमंे चल रहे हैं। इसके अलावा ऐसे बहुत से काले कारनामंे होते हैं जो उजाग़र नहीं हुए। बिहार मंे 49 , यू.पी. मंे 39, तमिलनाडू मंे 33, झारखंड मंे 31, प.बंगाल मंे 16 प्रतिशत सांसदों पर अपराधिक मामले चल रहे हैं।स्विस बैंकिंग एसोसिएशन की 2006 मंे जारी रिपोर्ट के अनुसार वहाॅं के बैंक मंे काला धन जमा करने वाले दुनिया के पाॅंच उपरी देशांे मंे भारत सबसे उपर है। यह पैसा वो है जो यहां के दलाल, भ्रष्ट शासक वर्ग ने 1947 से अब तक जनता की लूट से जमा किया है । इस लूट मंे ब्यूरोक्रेटस , नेता और कुछ पूंजीपतियांे का पैसा शामिल है। काले धन पर जारी स्विस बैंकिंग ऐसोसिशन की रिपोर्ट मंे भारत शीर्ष पर था। वहां जमा 1456 बिलियन डाॅलर आम आदमी की लूट का जीता जागता ग़वाह है। 1456 बिलियन डाॅलर यानि 675 करोड़ रूपए, यह इतना धन है कि हम पंचर्षीय योजाआंे के लिए आवश्यक मुद्रा की पूर्ति कर सकता है।सबसे बड़े लोकतन्त्र की संसद का अनूठा खेल चैदहवीं लोकसभा के लिए 2008 पूरी तरह सियासत के खेल के लिए जाना जाएगा। इस साल मंे 100 दिन संसद चलाने की परंपरा के विपरीत केवल 32 दिन तक ही संसद चली। जबकि यह अन्तिम सत्र पांच महीने चला। यानि सबसे लम्बे सत्र में सबसे कम बैठकंे हुईं। यदि इतिहास पर निगाह डाली जाए तो आपातकाल के नाजुक दौर मंे भी 98 दिन संसद चली।कई बार तो संसद का कोरम पूरा नहीं होता, पार्टियाॅं अपने सांसदांे को भेड़-बकरियांे की तरह इकट्ठा करके लाती हैं। जब विधेयक बहस के लिए रखे जाते हैं तो अधिकांश सांसद तो मौजूद ही नहीं होते, वैसे भी सब कानून-विधेयकांें पर बहस संसद की दूसरी बैठक ;दोपह बादद्ध होती है तब तक मौजूदा सांसद भी चले जाते हैं। और जो बचते हैं वे भी गंभीरता से बहस मंे हिस्सा नहीं लेते। सच तो यह है कि उन्हंे कोई मतलब ही नहीं होता कि कोई कानून या विधेयक जनता के हित मंे है या नहीं । वे बस वही करते हैं जो उनके आक़ा उन्हंे आदेश देते हैं। इतने कम समय मंे इस संसदीय जनवाद पर इतने दाग़ लग गए कि कभी नहीं मिट पाएॅंगे। नोटांे के बंडलांे के बीच संसद की गरिमा कराहती रही। डैमोक्रेसी पैसांे मंे धुल गई और देखने को मिला कि उवदमल चवूमत और चवसपजपबंस चवूमत के बीच कितना नज़दीकी रिश्ता है।इस वर्ष तो लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी भी आरोपांे से नहीं बच पाई । संसदीय इतिहास मंे पहली बार किसी लोकसभा अध्यक्ष को अपनी ही पार्टी से निष्कासित होना पड़ा। लेेकिन संसद का वो सबसे काला दिन रहा जब हवा मंे हजार-हजार की गडिडयां लहराई गई वो भी उस मौके पर जब लोकतन्त्र की वाहक माने जाने वाली केन्द्र सरकार का परीक्षण हो रहा था।यहां तक कि इस पूरे मामले में जांच समिति व संसद भी अपने उपर दाग़ लगाने वालों को पकड़ नहीं पाई।चैदहवीं लोकसभा के अन्तिम सत्र मंे संसद की कार्यवाही बड़ी ऐतिहासिक तरीके से चली। संसद मंे बिना किसी बहस मनसूबे के 17 मिनट मंे 8 बिल पास कर दिए। इसका सीधा मतलब ये है कि किसी भी विधेयक के बारे मंे कुछ जानने की कोशिश नहीं की गई। और आंख बंद करके एकमत से हाथ खड़े करके पास कर दिए। यानि संसद मंे बैठे किसी सांसद को कोई लेना-देना नहीं कि कोई विधेयक जन के पक्ष मंे है या नहीं। ऐसे लोग जनप्रतिनिधि कैसे हो सकते हैं।जनता के पैसे का दुरुपयोगकरोड़ांे खर्च होते हैं, सांसदांे के भोग विलास पर।सांसदांे के ऐशो आराम के लिए सरकार लगातार रियायतें देती है। 1954 मंे एक सांसद का मासिक वेतन 400 रुपए था। जो अब 30 गुणा बढ़कर 12000 रुपए हो गया है। इस के साथ-साथ एक सांसद को 500 रुपए दैनिक भत्ता, 10,000 रुपए संसदीय क्षेत्र भत्ता, 14000 मासिक कार्यालय भत्ता व 8 रुपए प्रति किलोमीटर के हिसाब से यात्रा भत्ता दिया जाता है। इस सब के अलावा एक सांसद को दो टेलिफोन सैट मुफत मिलते हैं जिन पर 1,70,000 काल फ्री मिलती हैं। लोगांे के घरांे मंे बिजली रोशनी के लिए नहीं होती और इनके घरांे मंे 50,000 बिजली युनिट भी फ्री मिलते हैं। कभी भी कितनी ही बार प्रथम श्रेणी की रेल यात्रा मुफत और 40 हवाई जहाज के टिकट फ्री मिलते हैं। इस तरह से एक सांसद का मासिक खर्च 2.66 लाख बनता है। जो 32 लाख प्रतिवर्ष होगा। इस तरह से देखा जाए तो 534 सांसदांे की ऐश-परस्ती पर 835 करोड़ रुपए खर्च होते हैं।कितना महान् लोकतन्त्र है भारत देश का । लोकसभा चुनाव पर एक अनुमान के अनुसार इस बार 10 हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे। यह चुनाव अब तक का ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया का सबसे मंहगा चुनाव होगा। इतनी बड़ी रकम जो जनता के खून पसीने की गाढ़ी कमाई है उसे पानी की तरह खर्च करने वाले जनहितैषी या जनप्रतिनिधि कैसे हो सकते हैं।क्या वास्तव मंे भारत जनतान्त्रिक हैभारत का चरित्र अर्दसामंती अर्द औपनिवेशिक देश होने नाते, यहां बुर्जुआ जनवाद भी नहीं है जैसे कि दुनिया के अन्य पूंजीवादी देशांे मंे होता है। यहाॅं तो घोेेेेेेेेर तानाशाही पूर्ण शासन के उपर वोटिंग मशीने थांेप कर उसे जनवाद का नाम दे दिया गया है। ऐसा जनवाद जहां राजनैतिक व सामाजिक किसी भी तरह की कोई आजादी नहीं है। सरकारांे द्वारा टाडा,पोटा जैसे कानून पास करके व हड़तालों पर प्रतिबंध लगाकर लोगांे के मुॅंह पर ताले जड़ दिए गए है ताकि कोई भी आवाज न उठा सके । व्यक्तिगत जिन्दगी भी गुलामी की बेड़ियांे से जकड़ी है। महिलांए भेदभाव-शोषण का शिकार हैं। गावांे मंे उच्च जातियांे की दादागिरी के कारण दलितांे के पास कोई अधिकार नहीं है। नौकरशाही कहीं भी जवाबदेह नहीं है। पुलिस अपने आप मंे किसी माफिया से कम नहीं है जो आम लोगांे मंे जनवाद का तिनका भर नहीं है। यदि हम सच्चा जनवाद स्थापित करना चाहते हैं तो इस व्यवस्था को समूचे जड़ उखाड़ परिवर्तित करना होगा।आया राम गया राम की अवसरवादिता पूर्ण राजनीतिजैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते हैं राजनीतिक दलांे मंे खूब उठा-पटक दिखाई देने लगती है। कल तक जो मित्र थे वे दुश्मन और विरोधी सहयोगी दिखाई देने लग जाते हैं। घोर भ्रष्टाचार और अवसरवादिता के चलते नेता बड़ी तेजी से पार्टियां बदल रहे हैं टिकट मिलने की स्थिति मंे एक दूसरे का सिर फोड़ रहे हैं। ऐसी स्थिति में जब लोगांे का इस व्यवस्था से विश्वास उठने लगा है तो ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं कि इसे चुनाव से वैधता दिखाई जाए। ‘‘अपना कीमती वोट डालें, आचार संहिता तोड़ने पर कड़ी कार्यवाही की जाएगी, ऐसी बातांे का रेडियो , टी.वी. व अखबारांे से लगातार प्रचार। यह सब आम आदमी की रूचि पैदा करने के लिए है । लेकिन फिर भी आम आदमी की धारणा यही है कि ‘‘सब चोर हैं’’ इसका मतलब यह है कि लोगांे को विकल्प नजर नहीं आता इसलिए चोरांे मंे से किसी एक को चुनना पड़ता है । लेकिन तब विकल्प क्या हो!चुनाव बहिष्कार व जनसत्ता के निर्माण हेतु संघर्ष का आग़ाज करो।आमतौर पर यह प्रचारित किया जाता है कि जो लोग इस चुनावी महास्वांग का बहिष्कार करते हैं वे चुनावांे और जनवाद के खिलाफ हैंै । लेकिन सच यह नहीं हैं वास्तव मंे वही लोग असली लड़ाई लड़ रहे हैं। वे ही जनता के जनवाद और एक पारदर्शी व उचित प्रणाली के लिए खड़े हैं। इससे भी ज्यादा वे लोग तो हर स्तर पर, समूचे समाज का जनवादीकरण करने के पक्ष मेेें हैंै। न कि जनवाद के मुखौटे या दिखावे के । मौजूदा ढांचे मंे यह सम्भव नहीं है इसलिए इसका बहिष्कार किया जाना चाहिए। नौकरशाही जनता को प्रताड़ित करना, अपमानित करना ही अपना काम समझती है। देश की मुख्य राजनैतिक;वोट बटोरु पार्टियांद्ध जहां एक व्यक्ति की हकूमत चलती है ऐसी वन मैन आर्मी हैं। ऐसे में पांच साल मंे एक बा वोट डालने को लोकतन्त्र कहा जा सकता है। इसका मतलब चुनाव झूठे जनवाद को वैधता प्रधान करने के सिवा कुछ नहीं है। यह जनता को धोखे देने की तरकीबांे और अपनी जेबें भरने का ही एक हिस्सा है। चुनाव हो या न हो लेकि इस व्यवस्था चाहिए। कमजोर और बेकार नींव पर कभी भी मजबूत और अच्छी इमारत का निर्माण नहीं हो सकता। एक नया ढाॅंचा खड़ा करने के लिए इसे ढहाना ही होगा।और फिर नया ढाॅंचा खड़ा करना होगा। चलो मान लिया जाए एक अच्छा उम्मीदवार जीत भी जाता है, तो वो ऐसे मंे क्या कर सकता है जब समस्त नौकरशाही, प्रशासन, पुलिस, बल, सेना व बड़े व्यावसाइयांे के प्रभुत्ववाली आर्थिक व्यवस्था, सभी अच्छी इच्छाआंे के खिलाफ खड़े होंगे? या तो उन्हीं लोगांे मंे समाहित हो जाना होगा अन्यथा वहां से बाहर निकल जाना होगा।ााकपा/माकपा पहले ही उन्हीं मंे समाहित हो चुके हैऋ और आज शासक वर्ग का एक हिस्सा हैं। और वहां मौजूद बाकी भी उन्हीं के उन्हीं के रास्ते पर चल रहे हैं। बेशक बहिष्कार एक नकरात्मक कार्यवाही है ऋ लेकिन इसे अर्थपूर्ण बनाने हेतु इसका अनुसरण कुछ सकारात्मक तरीके से करना चाहिए। इस देश मंे कई ऐसी ताकते हैं जो एक नई व सच्ची जनवादी व्यवस्था का निर्माण करना चाहती हैं। स्वाभाविक है कि नई व्यवस्था का निर्माण करने मंे इन ताकतांे के साथ भागीदारी करना एक विकल्प हो सकता हैऋ या फिर कम से कम उनका समर्थन तो करना ही चाहिए । हमंे ज्यादा से ज्यादा चुनाव बहिष्कार का प्रचार करना चाहिए और लोगांे को अपने तर्क के साथ सहमत करवाना चाहिए। तभी हम इस दलाल शाासक वर्ग को कमजोर कर पांॅएगे।