Sunday, September 20, 2009

तथाकथित भारतीय लोकतंत्र

तथाकथित भारतीय लोकतंत्र
इतिहास हर चीज का गवाह है। वास्तव अंग्रेजों के यहाँ से चले जाने से न तो भारत मंे न तो लोकतंत्र की स्थापना हुई , न साम्राज्यवाद का आधिपत्य हटा। ब्रिटिश सरकार जिस कांग्रेस के सहयोग से यहाॅं प्रत्यक्ष राज करती थी, अन्त मंे ब्रिटिश संसद द्वारा उन्हीं के हाथांे मंे शासन सुपुर्द कर दिया गया, जो सदा ऐसे विधानांे से बंधा रहे जिससे साम्राज्यवाद का आर्थिक एवं राजनैतिक नियंत्रण कायम रहें यानि ‘‘15 अगस्त 1947 को झूठी आजादी के नाम पर साम्राज्यवाद भारत से ऐसे हटा कि यहीं बना रहा’’ 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश संसद द्वारा 1935 ई0 में पारित भारत सरकार अधिनियम के अधीन अंग्रेज वायसराय माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री के रूप मंे अंग्रेजांे द्वारा निर्धारित संविधान रक्षा की शपथ दिलाई।जिसका निर्वाह भारतीय संसद आज भी बखूबी कर रहा है। 26 नवम्बर, 1949 को जिस भारतीय संविधान की घोषणा की गई , वह लोकतंत्र का कोई नया संविधान नहीं बना। मूल रूप मंे 1935 के ब्रिटिश सरकार द्वारा स्वीकृत संवैधानिक शर्तों को आधार मानकर संविधान सभा ने अनेक देशांे के बुर्जआ संविधान के प्रावधानांे को संकलित करते हुए दोषपूर्ण संवैधानिक मिश्रण तैयार कर उसे भारत के संविधान का रूप दे दिया। जिसे 26 जनवरी,1950 से लागू मानकर लोकतंत्र के संविधान की संज्ञा दे दी गई।
परन्तु इसमंे न तो ‘लोक’ की सर्वोच्चता का कोई स्थान है, न जनता की सम्प्रभुता का कहीं ‘समावेश’ हो पाया है। यह शीशे की तरह साफ है कि 15 अगस्त, 1947 के सत्ता हस्तातन्तरण को भारत की आजादी मान लेना तथा 26 जनवरी 1950 के घोषित संविधान को लोकतांत्रिक भारत का स्वतंत्र संविधान मान लेना न केवल अपने-आपको धोखा देना है ।
बल्कि देश और समाज के लिए एक राजनीतिक अपराध है। अपने इतिहास को टटोलें, काल के गर्भ मंे आंखें गड़ाकर देखें, भारतीय जनता को अभी आजादी नहीं मिली है। देश और समाज को जकड़े सामन्ती -साम्राज्यवादी गुलामी की जंजीरंे अभी अटूट हैं। दुनिया के अन्य पूंजीवादी देशांे की तरह यहां की जनता को बुर्जुआ जनवाद भी नसीब नहीं है। वस्तुतः लोकतंत्र के नाम पर देश के सामन्तांे, जमीन्दारांे, दलाल नौकरशाहांे पूंजीपतियांे और साम्राज्यवाद द्वारा राजतंत्र के सदृश्य गढ़ा गया यह संसदीय तंत्र राजवादी निरंकुशता का ही एक आधुनिक रूप है।बहुसंख्य जनता की कमाई को मुफ्त मंे हड़पने का राजवाद का तरीका ही इस संसदीय संविधान और कानून का दस्तूर है। घोर तानाशाही शासन के अधीन वोटिंग मशीनंे चालू कर इसे लोकतंत्र और जनवाद का नाम दे दिया गया है। ऐसा लोकतंत्र जहां जनता को किसी भी तरह से सामाजिक व राजनैतिक आजादी नहीं है बल्कि अपनी समस्या के समाधान के लिए मुॅंह भी नहीं खोल सकती । टाडा, पोटा जैसे दमनात्मक कानून पास करके और हड़तालांे पर प्रतिबन्ध लगाकर सरकारों द्वारा जनता के मुॅंह पर ताले जड़े जा रहे है। महिलाएं भेदभाव, शोषण और उत्पीड़न की शिकार हंै। गांॅवांे मंे अभिजात वर्ग की दादागिरी के कारण दलितांे का उत्पीड़न चरम पर है। नौकरशाही भ्रष्टाचार के गर्त मंे आकंठ डूबी हुई है और जनजीवन के प्रति उनकी कोई जवाबदेही नहीं है। पुलिस अपने-आप को सबसे बड़ा माफिया समझती है जो आम लोगांे को प्रताड़ित करना, अपमानित करना और भय पैदा करना अपना अधिकार समझती है। सभी संसदीय दल के नेता अपनी स्वार्थ पूर्ति की होड़ मंे साम्राज्यवाद के तलुए चाटने के लिए अफरा-तफरी मचाये रहते हैं। प्राकृतिक संसाधनांे के उळपर से जनता के नैसर्गिक अधिकारांे को छीनकर उसे बहुराष्ट्रीय कम्पनियांे को सौंपा जा रहा है। बहुसंख्य जनता के शोषण के लिए जो शासक हो और विस्थापन जिसकी विकास नीति है वह लोकतंत्र कतई नहीं हो सकता । लोकतंत्र के नाम पर पांच साल पर चुनावी आडंबर सिर्फ इसलिए रचा जाता है कि मतदान मंे भाग लेकर जनता यह समझे कि यही जनवाद है और हम इस लोकतंत्र के अंग हैं,उसे एहसास होता रहे कि हम जनवाद के सहभागी हैं। परन्तु चुनाव द्वारा जो सरकार या मंत्री मंडल बनता है, वह बुनियादी रूप से शोषक-शासक वर्ग की कार्यकारिणाी समिति होती है। सिर्फ जनवाद के दिखावे के लिए मंत्रीमंडल तथा संसदीय ढाॅंचे को खड़ा किया जाता है, पर शासन का सम्पूर्ण अधिकार कार्यपालिका के हाथांे सुरक्षित रहता है। चुनाव द्वारा किसी भी पार्टी का मंत्रिमंडल बने परन्तु संसद या विधान सभा मंे कोई नीति निर्धारण नहीं होता, बल्कि पर्दे के पीछे नौकरशाहांे का अति-कानूनी स्थाई तंत्र गोपनीय ढ़ंग से जमींदारों, बड़े बुर्जुआ और साम्राज्यवादी एजेन्टांे के परामर्श से मंत्रिमंडल के समस्त कार्यों को निपटाता है। वर्तमान संसदीय तंत्र को किसी भी तरह से लोकतंत्र की संज्ञा नहीं दी जा सकती। इस नकली लोकतंत्र मंे आस्था रखना शोषक व्यवस्था की सेवा करना है और देश के स्वतंत्र आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक विकास को अवरुद्ध करना है। सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए समाजवाद की स्थापना आवश्यक है और समाजवाद की सफलता के लिए अन्यायपूर्ण वर्ग व्यवस्था को जड़-मूल समेत ध्वस्त कर वर्ग विहीन समाज की स्थापना के लिए संघर्ष करना आवश्यक है।
भारतीय संविधान: गुलामी के पट्टे पर वैधानिकता की मुहर वर्तमान भारतीय संविधान पाश्चात्य बुर्जुआ संविधान की एक भौंडी नकल है, जो अऔपनिवेशिक,असामन्ती व्यवस्था की सुरक्षा के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा स्थापित नीतियांे, विशेषाधिकारांे और निषेधांे से जकड़ा हुआ है। यह एक ऐसा संविधान है, जो आम जनता को सही रूप मंे बुर्जुआ जनवाद की भी गारंटी नहीं देता है। यह संविधान पूर्ण रूप से आर्थिक ,सामाजिक सामन्ती बन्धनांे, विशेषाधिकारांे और वर्ग विभेदांे की रक्षा के लिए समर्पित है। लोकतंत्र के नाम पर घोषित संविधान मंे जनता की सर्वोच्चता का कहीं लेशमात्र भी समावेश नहीं है, बल्कि बहुसंख्य जनता के शोषण-उत्पीड़न के लिए हर तरह से राज्य की सर्वोच्चता को कायम रखनेे के लिए प्रतिबð है।सबसे अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह दर्शाया जाता है कि भारतीय संविधान विशेषज्ञांे ने ‘स्वतंत्र’ रूप से ‘स्वतंत्र’ भारत के लिए एक नये संविधान का निर्माण किया, जो भारत मंे 26 जनवरी ,1950 से लागू हुआ। परन्तु भारतीय संविधान के उद्भव, विकास, निर्माण प्रक्रिया और इसके स्वरूप का इतिहास स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है विक्टोरिया के शासन काल मंे 1858 मंे ब्रिटिश संसद ने भारत मंे अपने राज की रक्षा के लिए ब्रिटिश शासन के अधीन भारत परिषद् की स्थापना की घोषणा के साथ वर्तमान संसदीय प्रणाली की नींव डाली थी और ब्रिटिश संसद द्वारा पारित ‘भारत शासन अधिनियम’ भारतीय संविधान के उद्भव का आधार बना। 1858 से ही भारत के राजे-महाराजे, सामंत-जमीन्दारों, नरेशांे और दलाल नेताआंे को भारत परिषद् मंे स्थान मिलने लगा। परन्तु इस संवैधानिक परिवर्तन से क्रान्ति की आग बुझी नहीं। जिस समय दिल्ली केन्द्रीय विधान मंडल मंे भारतीय प्रतिनिधि भारत के लिए एक संकलित संविधान निर्माण और संसदीय समझौते के लिए ब्रिटिश सरकार से प्रार्थना कर रहे थे, तो उसी समय 8 अप्रैल, 1929 को वीर भगत सिंह और बटूकेश्वर दत्त ने दिल्ली केन्द्रीय विधान मंडल मंे एक क्रान्तिकारी धमाका कर दिया। जिससे संवैधानिक शोहदों समेत अंग्रेज सरकार का दिल दहल गया। सारे देश मंे सशस्त्र क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया। ब्रिटिश सरकार ने दोहरी नीति अपनाई। एक तरफ क्रान्तिकारियांे को सूली पर लटकाती रही, दूसरी तरफ कांग्रेसी नेताआंे के साथ संसदीय समझौते का द्वार खोल दिया। कांग्रेसी सदस्य साम्राज्यवादी विधानांे के इर्द-गिर्द नाचते रहे और ब्रिटिश सरकार इनकी शर्तों को ठुकराती रही। इसके साथ-साथ गोलमेज सम्मेलन लंदन मंे चलता रहा। तीसरे गोलमेज सम्मेलन की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीय संविधान के प्रारूप संबंधी एक ‘श्वेत पत्र’ जारी किया। जिसके आधार पर1935 ई॰ मंे ब्रिटिश संसद ने ‘भारत सरकार अधिनियम’ के रूप मंे भारतीय संविधान की धाराआंे को परित किया। ऐतिहासिक रूप से भारत के लिए अंग्रेजों द्वारा निर्धारित यही अंतिम संवैधानिक कदम था। इसके अनुसार देशी रियासतांे और अंग्रेजांे द्वारा स्थापित प्रान्तांे को जोड़कर सबसे अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह दर्शाया जाता है कि भारतीय संविधान विशेषज्ञांे ने ‘स्वतंत्र’ रूप से ‘स्वतंत्र’ भारत के लिए एक नये संविधान का निर्माण किया, जो भारत मंे 26 जनवरी ,1950 से लागू हुआ। परन्तु भारतीय संविधान के उद्भव, विकास, निर्माण प्रक्रिया और इसके स्वरूप का इतिहास स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है विक्टोरिया के शासन काल मंे 1858 मंे ब्रिटिश संसद ने भारत मंे अपने राज की रक्षा के लिए ब्रिटिश शासन के अधीन भारत परिषद् की स्थापना की घोषणा के साथ वर्तमान संसदीय प्रणाली की नींव डाली थी और ब्रिटिश संसद द्वारा पारित ‘भारत शासन अधिनियम’ भारतीय संविधान के उद्भव का आधार बना। 1858 से ही भारत के राजे-महाराजे, सामंत-जमीन्दारों, नरेशांे और दलाल नेताआंे को भारत परिषद् मंे स्थान मिलने लगा। परन्तु इस संवैधानिक परिवर्तन से क्रान्ति की आग बुझी नहीं। जिस समय दिल्ली केन्द्रीय विधान मंडल मंे भारतीय प्रतिनिधि भारत के लिए एक संकलित संविधान निर्माण और संसदीय समझौते के लिए ब्रिटिश सरकार से प्रार्थना कर रहे थे, तो उसी समय 8 अप्रैल, 1929 को वीर भगत सिंह और बटूकेश्वर दत्त ने दिल्ली केन्द्रीय विधान मंडल मंे एक क्रान्तिकारी धमाका कर दिया। जिससे संवैधानिक शोहदों समेत अंग्रेज सरकार का दिल दहल गया। सारे देश मंे सशस्त्र क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया। ब्रिटिश सरकार ने दोहरी नीति अपनाई। एक तरफ क्रान्तिकारियांे को सूली पर लटकाती रही, दूसरी तरफ कांग्रेसी नेताआंे के साथ संसदीय समझौते का द्वार खोल दिया। कांग्रेसी सदस्य साम्राज्यवादी विधानांे के इर्द-गिर्द नाचते रहे और ब्रिटिश सरकार इनकी शर्तों को ठुकराती रही। इसके साथ-साथ गोलमेज सम्मेलन लंदन मंे चलता रहा। तीसरे गोलमेज सम्मेलन की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीय संविधान के प्रारूप संबंधी एक ‘श्वेत पत्र’ जारी किया। जिसके आधार पर1935 ई॰ मंे ब्रिटिश संसद ने ‘भारत सरकार अधिनियम’ के रूप मंे भारतीय संविधान की धाराआंे को परित किया। ऐतिहासिक रूप से भारत के लिए अंग्रेजों द्वारा निर्धारित यही अंतिम संवैधानिक कदम था। इसके अनुसार देशी रियासतांे और अंग्रेजांे द्वारा स्थापित प्रान्तांे को जोड़कर एक अखिल भारतीय संघीय राज्य की व्याख्या दी गई और प्रान्तांे मंे संघ राज्य के लिए उत्तरदायी विधान मंडलांे का विस्तार किया गया। एक संघीय न्यायालय की स्थापना की व्यवस्था की गई। कांग्रेस समेत देश के तमाम अवसरवादी नेताआंे ने ब्रिटिश ‘श्वेत-पत्र’ के संवैधानिक प्रारूप को सहर्ष अंगीकार कर लिया। इस संविधान के तहत 1937 ई॰ से ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण मंे प्रांतीय विधान सभाआंे का चुनाव प्रारम्भ हो गया। कांग्रेस पर विश्वास करके जनता ने सात राज्यांे मंे उसे बहुमत दिलाया और शेष मंे कांग्रेस ने ब्रिटिश प्रतिनिधियांे के साथ संयुक्त सरकारांे गठित की । परन्तु इस संवैधानिक मंत्रिमंडल से शासन-प्रशासन मंे कोई अन्तर नहीं आया। न तो दमन ही रूका, न ही किसी जन समस्या का समाधान हुआ। जनता ने जिस आशा और विश्वास के साथ कांग्रेस को वोट दिया था, सब चकनाचूर हो गया। मजदूर किसानांे के जनान्दोलन होते रहे और कांग्रेस की प्रांतीय सरकारें दमन की तलवार भांॅजती रहीं। सितम्बर,1939 मंे द्वितीय विश्व यु( शुरू होते ही ब्रिटिश सरकार ने बिना किसी मंत्रीमंडल की सलाह के सभी प्रांतीय मंत्रीमंडल को भंग कर दिया और भारत को यु( मंे झोंक दियाऋ फिर भी गांधी और कांग्रेस की ब्रिटिश भक्ति कम नहीं हुई। कांग्रेस की ओर से ब्र्रिटिश सरकार के समक्ष यह मांग रखी गई कि हम इस यु( मंे इंग्लैंड की मदद् करने के लिए तैयार हैं और यु( के बाद हमंे संवैधानिक शासन का अधिकार दिया जाए। यु( के बाद अगस्त क्रान्ति को बलि देकर गांधी ने ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव को वापस ले लिया और ब्रिटिश सरकार के साथ पुनः 1935 के संवैधानिक शर्तों को मानकर कांग्रेस का समझौता करवाया। इसके आधार पर 1945 मंे पुनः प्रांतीय विधानसभाआंे का चुनाव कराया गया। पुनः सात राज्यांे मंे कांग्रेस का मंत्रीमंडल बना और शेष मंे संयुक्त मंत्रीमंडल बना। परन्तु देश के क्रान्तिकारी जनता इस संवैधानिक समझौते से संतुष्ट नहीं थीं परिणामस्वरूप 1945 के बाद सारे भारत मंे क्रान्ति की धार वेगवती बन गई। 14 मार्च 1946, को ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने ब्रिटिश संसद मंे कांग्रेस के हाथांे संवैधानिक अधिकार हस्तान्तरित करने की घोषणा कर दी। इसके लिए 23 मार्च 1946 को ब्रिटिश मंत्रियांे का एक कैबिनेट मिशन भारत आया। जिसने भारत मंे एक संविधान सभा के गठन के लिए 16 मई, 1946 को ब्रिटिश संसद द्वारा निर्देशित प्रक्रिया का प्रारूप प्रस्तुत किया। जिसे सभी भारतीय नेताआंे द्वारा सहर्ष स्वीकार कर लिया गया।
संविधान सभा का गठन
जुलाई, 1946 मंे ब्रिटिश संसद के निर्देशांे के अनुरूप 1935 में निर्मित ‘भारत सरकार अधिनियम’ के तहत व्यस्क जनसंख्या के सीमित प्रतिशत के मताधिकार द्वारा चुने गए प्रांतीय विधान सभा के सदस्यांे मंे से समानुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर ब्रिटिश सरकार ने भारत के संविधान सभा का गठन कराया। जिसमंे कांग्रेस को बहुमत मिला। मुस्लिम लीग के नेताओं ने कैबिनेट मिशन की योजना से अपनी सहमति वापस ले लिया। जिससे संविधान सभा मंे कांग्रेस का 80 प्रतिशत बहुमत कायम हो गया। यह संविधान सभा देश की बहुसंख्यक जनता का प्रतिनिधित्व नही करता था। संवैधानिक विडम्बना इसे संविधान सभा और संवैधानिक प्रक्रिया का माखौल ही कहा जाएगा कि संविधान सभा की एक बैठक भी नहीं हुई थी और वाॅयसराय बावेल ने कांग्रेसी प्रतिनिधि जवाहरलाल नेहरू को अन्तरिम सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया। बावेल ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अधीन 12 सितम्बर,1946ई0 को नेहरू के नेतृत्व मंे भारत मंे एक अन्तरिम सरकार गठित कर दी। मुस्लिम लीग इस सरकार मंे शामिल न होकर अलग पाकिस्तान के लिए लड़ती रही। ठीक इसी तरह भारत का नया संविधान तैयार होने से पूर्व ही 1 अगस्त 1947 को माउंटबेटन ने नेहरू को भारत के प्रधानमंत्री के रूप मंे शपथ दिलवाई। जाहिर है 15 अगस्त 1947 को नेहरू आजाद भारत के प्रधानमंत्री नहीं बने, बल्कि साम्राज्यवाद अप्रत्यक्ष शासन चलाने के लिए अपने वफादार उत्तराधिकारी के हाथों मंे सत्ता का हस्तान्तरण कर दिया। ब्रिटिश सरकार की लाडली कांग्रेस ही सब कुछ ज्ञातव्य है कि 1885 मंे एक अंग्रेज अफसर एलन अक्टोवियन हयूम;ए।ओ।हयूम।द्ध ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की ‘मानस पुत्री’ के रूप मंे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को जन्म दिया था। उस लाडली कांग्रेस को अंग्रेजांे ने 1946 ई0 मंे भारत का सब कुछ बना दिया। यानि कांग्रेस संगठित दल, कांग्रेस सरकार, कांग्रेस संविधान सभा, कांग्रेस अंग्रेजांे की असली उत्तराधिकारी और कांग्रेस ही भारत का सब कुछ। अब संविधान सभा पूरी तरह कांग्रेस की एक दलीय संस्था बनकर हर प्रकार से ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा स्थापित अधिनियमांे, नीतियांे, कानूनांे की स्थापना और कुलीन सामन्तांे की शक्ति व सम्मान की रक्षा के लिए समर्पित हो गई।
संविधान सभा की समस्या
9 दिसम्बर, 1946 को दिल्ली मंे संविधान सभा की पहली बैठक हुईं। डा॰ राजेन्द्र प्रसाद को संविधान सभा का स्थाई अध्यक्ष निर्वाचित किया गया और डा॰ सच्चिदानन्द सिन्हा को अस्थाई अध्यक्ष चुना गया। अब संविधान सभा के समक्ष सबसे टेढ़ी समस्या उत्पन्न हो गई कि भारतीय संविधान का प्रारूप क्या हो? क्यांेकि ब्रिटिश सरकार के निर्देशंांे के अनुरूप संविधान मंे सामन्ती हितांे की रक्षा करनी थी और साम्राज्यवादी नीतियांे का पालन करना था। संविधान सभा ने इस समस्या से निपटने के लिए दुनिया के बुर्जुआ संविधानांे के अध्ययन और उसके प्रावधानांे को संकलित करने का निर्णय लिया। इसके लिए कई उप समितियाॅं गठित की गई। इन्हीं समितियांे मंे से एक प्रारूप समिति भी गठित की गई, जिसका अध्यक्ष डा॰ भीमराव अम्बेडकर को मनोनीत किया गया। डा॰ अम्बेडकर को सभी समितियांे द्वारा दी गई संवैधानिक प्रावधानांे को संकलित करने का भार सौंपा गया। डा॰ अम्बेडकर संविधान सभा मंे गैर कांग्रेसी सदस्य थे। उनका संविधान सभा के अन्दर विधि सम्बन्धी और राजनैतिक स्वरूप संबंधी विभिन्न प्रश्नांे को लेकर अन्य सदस्यांे के साथ रस्साकस़ी चलती रहती थी। संविधान सभा की मूल समस्या थी कि यह जनता द्वारा निर्वाचित सभा नहीं थी, इस पर कांग्रेस का एकाधिकार था और अब उसकी सरकार थी जिसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के निर्देशों का पालन करना था। स्वाभाविक रूप से संविधान सभा पर नेहरू और पटेल आदि कांग्रेसी गुट सदा हावी रहा। यह भारतीय जनता का संविधान नहीं बन सका। डा॰ अम्बेडकर की मज़बूरी डा॰ अम्बेडकर संविधान सभा तथा प्रारूप समिति मंे गैर कांग्रेसी अल्पमत के सदस्य थे। उन्हंे कांग्रेसी सदस्यांे के निर्णय को मानने के लिए बाध्य किया जाता था। अनेक बार डा॰ अम्बेडकर को कांग्रेसियांे के बहुमत के पक्ष में अपने निर्णय को बदल देना पड़ता था। डा॰ अम्बेडकर के निर्णयांे को बदलने के लिए कांग्रेसी सदस्य ऐसी तत्परता दिखाते तथा सरकार के पक्ष मंे इसका औचित्य सि( करते जिससे डा॰ अम्बेडकर को कांग्रेसी नेताआंे के दबाव मंे बड़ी जल्दी और बड़ी कुशलता से अपने निर्णय बदलना पड़ता था। इस संबंध मंे एक जगह कहा भी गया है कि‘‘संविधान प्रारूप समिति रंग बदलती समिति है’’
प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा॰अम्बेडकर की सबसे बड़ी मजबूरी थी कि चाहे संविधान सभा हो या प्रारूप समिति वह संवैधानिक संकलन केऔपचारिक केन्द्र भर थे। संवैधानिक रचना के वास्तविक केन्द्र कांग्रेसी नेता मिल बैठकर साम्राज्यवादी विधानांे के आधार पर निर्णय लिया करते थे व डा॰ अम्बेडकर और प्रारूप समिति के महत्वपूर्ण निर्णय कांग्रेसी नेतृत्व के निर्णयांे पर आधारित होता था जोकि ब्रिटिश साम्राज्यवाद का अनुशासनादेश ही रहता था। इस सम्बन्ध मंे एक कांग्रेसी नेता महावीर त्यागी ने कहा है-‘‘संविधान प्रारूप समिति के हाथ बंधे हुए हैं और वे स्वयं किन्हीं अन्य तत्वांे के लिए बलि के बकरे हैं।’’ स्वयं प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा॰ अम्बेडकर ने भी माना है कि-‘‘प्रारूप समिति के सदस्यांे को समिति की बैठक मंे आने से पहले किसी अन्य स्थान पर जाकर निर्देश लेना पड़ता है।’’ दलित समुदाय के भ्रमजाल में फंसाए रखने के लिए संसदीय चाटूकारांे द्वारा भले ही डा॰ अम्बेडकर को संविधान का जनक प्रचारित किया जाता है ,परन्तु खुद डा॰ अम्बेडकर ने व्यक्त किया है कि ‘‘मैं तो संविधान सभा मंे केवल एक भाड़े का टट्टू था , मैंने वही किया, जो मुझसे करने को कहा गया। मैंने केवल बहुमत की इच्छाओं का पालन किया ’’।
भारतीय संविधानः एक वर्णसंकर
विधान एक संवैधानिक आलोचक ने भारतीय संविधान का विश्लेषण करते हुए इसे ‘‘भानुमति के पिटारे की भाॅंति विभिन्न संविधानांे का गड़बड़ संग्रह तथा वर्णसंकर विधान’’ कहा है। ज्ञातव्य है कि सत्ता हस्तान्तरण के बाद भारत एक औपनिवेशिक असामंती देश बन गया। ब्रिटेन का कोई लिखित संविधान भी नहीं था। अन्य बुर्जुआ लोकतंत्र का संविधान भी विभिन्न रूपांे मंे था। संविधान सभा के समक्ष था तो केवल ब्रिटिश संसद द्वारा पास किए गए भारत सरकार के संबंध मंे अधिनियमों के संसदीय आदेश। इसी के आलोक मंे संविधान सभा ने ब्रिटिश संसद द्वारा 1858 से पारित ‘भारत शासन अधिनियम’ और 1935 ई0 मंे पारित ‘भारत सरकार अधिनियम’ को भारतीय संविधान का आधार बना लिया और यह व्याख्या दी गई कि भारतीय संविधान का प्रारूप ब्रिटिश विधानांे के अनुरूप है। ब्रिटिश संसद द्वारा पारित कानूनांे, आर्डनेंसांे, एक्टांे और निर्देशंों तथा ‘भारत सरकार अधिनियमांे’ के 250 से अधिक अनुच्छेदांे को नये संविधान का हिस्सा बना लिया गया। इसके अलावा पाश्चात्य बुर्जुआ संविधान के प्रशासनिक एवं न्यायिक प्रारूपांे समेत संघात्मक राज्य के प्रावधानांे से भारतीय संविधान को सजाया गया। संक्षेप मंे देखा जाए तो भारतीय संसद का संघात्मक स्वरूप मूलतः आस्ट्रेलिया तथा कनाडा के संविधान से लिया गया।अमेरिकी संविधान के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय को संवैधानिक व्याख्या का अधिकार दे दिया गया। दूसरी तरफ भारत के संसद का स्वरूप ब्रिटिश संसद पर आधारित होने की वजह से न्यायालय की सर्वोच्चता का अधिकार सीमित कर दिया गया है। फ्रांस के पूंजीवादी संविधन के आलोक मंे समानता, स्वतंत्रता और भातृत्व की व्याख्या दी गई, जिसके अनुसार केवल व्यक्तिगत सम्पत्ति जमा करने व उसकी रक्षा की स्वतंत्रता है, लेकिन वर्गीय विभेद व विषमता समाप्त करने की स्वतंत्रता नहीं। आर्थिक सामाजिक समानता का कोई जिक्र नहीं किया गया। आयरलैंड के संविधान के अनुरूप नीति-निर्देशक तत्वों का भारतीय संविधान मंे प्रवेश कराया गया। दक्षिण अफ्रीका के संविधान के अनुरूप संविधान संशोधन प्रणाली ग्रहण की गई। केन्द्र या राज्यांे की संकटकालीन अवस्था मंे भारतीय संविधान की आपातकालीन शक्तियां जर्मन संविधान से निर्देशित हैं। यानि भारत का संविधान अनेक बुर्जआ देशांे के संविधानांे के विभिन्न प्रावधानांे को जोड़कर एक बेहद दोषपूर्ण मिश्रण ही कहा जाएगा, जोकि मूलतः सामन्ती अधिकारांे का रक्षक और साम्राज्यवादी हितांे की सेवा के लिए समर्पित है। आम जनता को बुर्जुआ जनवाद भी मयस्सर नहीं है। संविधान का उद्देश्य और यथार्थ संविधान की उद्देशिका मंे अंकित है कि ‘‘भारत को एक संप्रभूता सम्पन्न्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा समस्त नागरिकांे को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपसना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब मंे व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं’’। आप खुद सोचंे इस संवैधानिक घोषणा को पूरे साठ वर्ष हो चुके हंैं। परन्तु इस उद्देशिका का कितना अंश पूरा हो पाया है? सच तो यही है कि जिन लोगांे के द्वारा इन शब्दांे का प्रयोग किया गया है, उन लोगांे का इसे पूरा करने के लिए वास्तविक अभिप्राय कभी था ही नहीं , न इसकी पूर्ति से वे कोई संबंध रख सके। बल्कि देश के राजनैतिक बंचकांे द्वारा ऐसे शब्दों का प्रयोग मात्र इसलिए किया गया कि देश की जनता पर संविधान के प्रति अत्यन्त सशक्त आकर्षण तथा बोकि भ्रम उत्पन्न होता रहे। आज भी जिनके हाथ मंे वास्तविक सत्ता है इन शब्दांे के सहारे जनता को भ्रमित करते रहते हैंऋ संविधान को महिमामंडित करते हैं और जनता को अपने रोब़ मंे ले आते हैं। परन्तु भ्रम टिकाउळ नहीं होता । यथार्थ खुलकर जनता के सामने नाच रहा है। तथाकथित भारतीय लोकतंत्र की संपूर्ण प्रभुत्व सम्पन्नता साठ वर्षों तक यहाॅं तक पहुंच गई है कि भारत आकंठ साम्राज्यवादी कर्जे मंे डूब चुका है। जो भारत 1947 से पूर्व 1600 करोड़ का विदेशांे से लेनदार था, वह आज दुनिया के दस सबसे बड़े कर्ज़दारों की श्रेणी मंे पहुंच गया है। भारत की आर्थिक नीतियाॅं अन्तराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक और साम्राज्यवाद का नियंत्रण कक्ष बन चुकी हैं। साम्राज्यवादी विकास माड़ल पर निर्भरता ने ही आज भारत को भी आर्थिक मंदी के जाल में फंसा दिया है। लगभग 50 लाख लोग अपनी रोजी रोजगार से बाहर कर दिये गए है। इसी माड़ल के कारण कृषि संकट बढ़ता जा रहा है। पिछले 10 साल में लगभग 1.5 लाख किसान कर्जे के कारण आत्महत्या कर चुके है। भारत मंे स्वतंत्र औद्योगिक एवं पूंजीवादी विकास का मार्ग अवरूश्है और साम्राज्यवादी निर्भरशीलता निरन्तर बढ़ती जा रही है। क्या इसे ही संप्रभुत्त्व संपन्नता कहा जाएगा ? यह साम्राज्यवादी गणराज्य ऐसा गढ़ा गया है कि जनता को बुर्जआ जनवाद भी नसीब नहीं है। 45 प्रतिशत से अधिक जनता गरीबी रेखा से नीचे दमतोड़ रही है। गरीबी-अमीरी की खाई निरंतर चैड़ी होती जा रही है। जोतनेवाले किसानों के पास जमीन नहीं है और हजारांे एकड़ का भूमिचोर मालिक संसद तथा विधानसभा मंे बैठकर भूमि सुधार का विधान गढ़ रहा है। समाजवाद ऐसा कि लगभग आठ करोड़ जनता भीख मांगकर गुजारा कर रही है। अस्सी प्रतिशत मेहनतकश रोजाना 20 रूपए औसत कमाई पर जीवन निर्वाह करने को बाध्य हैं। गणराज्य ऐसा जहां वंशवाद को बढ़ावा मिल रहा है और अपराधी संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं। ऐसे धर्म निरपेक्ष भारत का निर्माण हो पाया है कि संविधान निर्माण काल से आज तक धर्म और साम्प्रदायिकता खासतौर पर हिन्दू फासीवादी सम्प्रदायिकता की आग मंे पूरा भारत झुलस रहा है। धर्म संसदीय राजनीति पर सवारी गांठ रहा है। मंदिर, मस्जिद और गिरजाघरांे के विवाद से संसद का भविष्य तय किया जा रहा है। साम्प्रदायिक विद्वेष संसदीय राजनीति का स्थाई एजेन्डा बना लिया गया है। ऐसी संसदीय पार्टियां जो हिन्दू फासीवाद का सहारा लेकर अल्पसंख्यक पर कहर ढा रही हैं। एकता और अखण्ड़ता के नाम पर विभिन्न काश्मीर, मणिपुर, नागालैंड़, त्रिपुरा, आसाम आदि राष्ट्रीयताओं के आत्मनिणर्य के अधिकार को कुचला जा रहा है। सामाजिक न्याय ऐसा कि समाज मंे जात-पात का भेद-भाव चरम पर हैऋ सबसे ज्यादा दलितों और महिलाआंे का उत्पीड़न जारी है। उच्च जातियांे का निम्न जातियांे पर रोब़ और धौंस सामाजिक दस्तूर बना हुआ है। संसदीय दल जाति-धर्म के आधार पर अपना वोट-बैंक बनाते हैं और चुनाव मंे जाति के आधार पर उम्मीदवार खड़े करते हैं। आर्थिक न्याय ऐसा कि मिट्टी से सोना पैदा करने वाला मजदूर -किसान गरीबी और अभाव मंे मरने को स्वतंत्र है और जनता की कमाई लूटने वाला संपत्ति का पहाड़ खड़ा करने तथा ऐेश़-परस्ती, मौज़ करने के लिए आजाद है। लगभग 22 करोड़ बेरोजगार युवक रोजी-रोटी के लिए दर-दर भटक रहे हैं। जमीन जोतने वाले के पास जमीन नहीं और मशीन चलाने वाले के पास मशीन नहीं। मकान बनाने वाले झोंपड़ियांे मंे दम तोड़ रहे हैं। जंगल मंे रहने वाले आदिवासियांे का जंगल पर अधिकार नहीं। अवसर की समता ऐसी कि कराड़ांे-करोड़ लोगांे को स्वच्छ पानी नसीब नहीं। गरीबी के कारण 40 प्रतिषत जनता निरक्षर अंगूठा छाप बनकर जीवन गुजारती है और 20 करोड़ से ज्यादा गरीब बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। आम आदमी के लिए चिकित्सा दुर्लभ है और जीवन रक्षक दवाआंे को खरीद पाना भी कठिन है। उनके लिए न तो कानून है, न न्याय अगर न्याय है तो वह इतना मंहगा है कि न्यायालय की सीढ़ी तक पहुंचने के लिए आम जनता के पास न तो साधन हैं न ही पैसे। न्याय और कानून केवल उन्हीं के लिए है जिसकी गांठ भारी है। यानि मुट्ठी भर धनवानांे के लिए सब कुछ है -सत्ता, संपत्ति, संसद और संविधान। जो वातानुकूलित महलांे मंे बैठकर घपले और घोटालांे मंे लिप्त होकर समता का अधिकार बांॅट रहे हैं। रट लगा रहे हैं कि संविधान हर व्यक्ति को कानून के सामने बराबरी का दर्ज़ा देता है। परन्तु व्यवहार मंे ऐसा कभी नहीं होता। कानून एवं न्यायपालिका एक ही अपराध के लिए एक गरीब एवं अमीर के साथ एक जैसा व्यवहार नहीं करते। कोई भी राजपत्रित पदाधिकारी कभी भी जनता के खिलाफ कानूनी कार्यवाही कर न्यायालय मंे मुकद्मा चला सकता है या न्यायिक हिरासत मंे भिजवा सकता है। परंतु कोई भी पदाधिकारी जब आम जनता के साथ दुव्र्यवहार करता है तो यदि उसके खिलाफ यदि कोई नागरिक थ़ाने या न्यायालय मंे केस करता है, तो राज्य के आदेश के बिना राजपत्रित पदाधिकारी के खिलाफ न्यायालय भी सुनवाई के लिए संज्ञान नहीं ले सकता। मूल अधिकार : एक प्रतिबंधित अधिकार भारतीय संविधान के भाग-3 मंे नागरिक के मूल अधिकारांे की फेहरिस्त कई अनुच्छेदांे, खंडो और उपखण्डों मंे दर्शायी गई है। परन्तु ये अधिकार केवल संविधान की शोभा बढ़ा रहे हैंऋ आम आदमी के जीवन मंे इसे उतारने की बात तो दूर, अभी तक केन्द्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा ये उपेक्षा तथा विधि के समक्ष उल्लंघन का ही शिकार होते आये हैं। मूल अधिकारांे मंे स्वातंत्र्य -अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकारांे मंे से है। जो अनुच्छेद 19 मंे सभी नागरिकांे के लिए वर्णित है। जिसके अनुसार सभी नागरिकांे को:-दस्वातंत्रय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।दशान्तिपूर्ण बिना हथियारांे के सम्मेलन करना।दसंगठन या संघ बनाने की स्वतंत्रता।दभारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग मंे रहने और बस जाने कीदकोई वृति, जीविका, व्यापार या कारोबार करने का इन स्वतंत्रता अधिकारांे में पहले तीन उपखण्ड राजनैतिक स्वतंत्रता संबंधी अधिकार है और चार उपखण्डांे मंे नागरिक जीवनऋ जीविका और सम्पत्ति संबंधी अधिकार है। परन्तु संवैधानिक विडम्बना है कि उक्त सभी उपखण्डांे के स्वतंत्रता के अधिकार अनुच्छेद 19 के खण्ड ; से खण्ड; तक पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिए गए है।यानि संविधान ने जो स्वतंत्रता का अधिकार दर्शाया, वह वही वापस ले लिया गया। सोचें ! जहां संविधान ही संविधान के प्रावधान को नष्ट कर रहा हैऋ वहां बोलने की स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि भारत मंे नागरिक स्वतंत्रता ही एक भद्दा मज़ाक बन गया है।आज तो पूरे देश मंे यह साफ नज़र आ रहा है कि किसी भी जनान्दोलन , प्रतिरोध प्रदर्शन, जनसभा और विराध के स्वर को स्थापित कानून के खिलाफ भड़काने या उकसाने का आरोप मढ़कर धड़ल्ले से प्रतिबंधित किया जा रहा है। देश के विभिन्न जन संगठनांे, छात्र संगठनांे, मजदूर संगठनों, महिला संगठनांे, सांस्कृतिक संगठनांे आदि को प्रतिबंधित कर दिया गया है। अनेक मानवाधिकार कार्यकत्र्ता, लेखक, कलाकार और संपादकांे पर मुकद्दमंे चल रहे हैं और अनेकांे को जेल तथा निष्कासन की यातना भोगनी पड़ रही है। क्या यही है स्वतंत्रता का अधिकार? अब केन्द्र और राज्य सरकारांे नागरिक स्वतंत्रता के अपहरण के लिए सारे देश मंे नए-नए दमनात्मक कानूनांे की बाढ़ ला रही है। पहले ‘टाडा’ आया, फिर ‘पोटा’ आया, अब टाडा और पोटा के अनेक घिनौने प्रावधानांे को समेट कर केन्द्र सरकार ने यू.ए.पी.ए. पारित किया है।इसके अलावा सभी राज्य सरकारें ने स्पेशल पब्लिक सेक्यूरिटी एक्ट आदि नितान्त कठोर कानून निर्मित किए हैं।इन कानूनांे का एकमात्र उद्देश्य है जो कोई भी या जहां कहीं से सरकारी निरंकुशता या प्रशासनिक भ्रष्टाचार के लिए आवाज़ उठती है, अपनी समस्या के निदान के लिए जहां भी लोग संगठित होते हैं उन लोगांे पर मनगढ़न्त आरोप मढ़कर उन्हंे दोषी साबित करना और उन्हंे जेल में डालने के लिए पुलिस को खुली छूट देना। यह हर तरह से नागरिक स्वतंत्रता और जनतांत्रिक अधिकारांे के लिए भारी खतरा है। इन कानूनांे के चलते सिर्फ बोलने की स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि मूल अधिकारांे और नागरिक स्वतंत्रता का दिखावा या उपयोग भी यहां संभव नहीं है। यह आजादी और यह लोकतंत्र नहीं , बल्कि राज्य का फासीवादी आतंक ही कहा जाएगा।

1 comment:

The Entrepreneurs said...

bhut hi achha lga aapko pad kr . good .....