Thursday, January 14, 2010

रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट

लोकसभा की कार्यवाही में चौथी दुनिया और रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट

सियासतदानों की कलई उतरने लगी है. रंगनाथ मिश्र कमीशन की अनुशंसाओं के बहाने सियासी पार्टियां अपनी-अपनी गोटी फिट करने की जुगत में हैं. इस कोशिश में दलित ईसाई और मुसलमानों की कोई फिक्र नहीं है. अगर कुछ है तो वह है ख़ुद का फायदा कराने का तिकड़म. हर पार्टी इन दिनों रंगनाथ मिश्र कमीशन की अनुशंसाओं का गहन अध्ययन कर रही है. पार्टियों को उन मुद्दों की तलाश है, जिनकी बिना पर वह आम अवाम की नज़रों में वीर्यवान नायक बन सकें. हालांकि इस उठापटक और जोड़-तोड़ की राजनीति में फिलहाल कोई भी पार्टी अपना रुख़ खुले तौर पर सा़फ करने से परहेज कर रही है. हालात संशय के भी हैं और उधेड़बुन के भी. लेकिन झंझावात सबके ज़ेहन में है. लिहाज़ा इस मसले पर भारतीय राजनीति में दंगल मचने के पूरे आसार हैं. हमने इस मुद्दे पर देश की सभी राजनीतिक पार्टियों से बात की. सवाल स़िर्फ इतना कि क्या सरकार कमीशन की अनुशंसाओं को लागू करेगी? और अगर लागू कर देती है तो यह १५ फीसदी आरक्षण सरकार को किस कोटे से देना चाहिए- जनरल, ओबीसी या एससी-एसटी कोटे से? हमें जो जवाब मिले, उनसे रंगनाथ मिश्र कमीशन की अनुशंसाओं को लागू करने के मसले पर मचे सियासी घमासान का परिदृश्य सा़फ हो गया.

ख़ुद को दलितों का मसीहा कहलाना पसंद करने वाले लोक जनशक्ति पार्टी अध्यक्ष रामविलास पासवान इस सवाल पर छूटते ही कहते हैं, रंगनाथ मिश्र कमीशन की अनुशंसा तो हर हाल में लागू होनी ही चाहिए. और रही कोटे की बात, तो सामान्य कोटे से ही १५ फीसदी आरक्षण दिया जाना चाहिए. पर पासवान जी, अगर सामान्य श्रेणी में से १५ फीसदी आरक्षण दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को देने के लिए सरकार राजी हो जाती है तो देश में कैसा सामाजिक तू़फान उठेगा, इसका अंदाज़ा है आपको?

रामविलास पासवान फरमाते हैं, देखिए जब भी कोई नई पहल होती है, तो थोड़ी उथलपुथल होती है. लेकिन यह मसला मज़लूमों की तरक्की से जुड़ा है, इसलिए हम इसकी लड़ाई पुरज़ोर तरीक़े से लड़ेंगे. मतलब सा़फ है कि रामविलास पासवान अपने परंपरागत दलित-पिछड़ों के वोट बैंक को छोड़ना नहीं चाहते. अब बात करते हैं उस पार्टी की, जो खुद को ग़रीबों के अधिकारों की जंग लड़ने वाला अकेला वीर-बांकुरा साबित करने की हर व़क्त जद्दोजहद में रहती है. इसके महासचिव प्रकाश कारात फिलहाल इस मसले पर कुछ भी कहना नहीं चाहते हैं. इसके लिए उनके पास एक बड़ा माकूल सा जवाब है, मैंने अभी रिपोर्ट प़ढी नहीं है, इसलिए अभी इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता. अब प्रकाश कारात ऐसा कह रहे हैं तो उनकी बात माननी पड़ेगी, लेकिन एक सहज जिज्ञासा होती है कि क्या वाकई सच यही है? प्रकाश कारात जैसे बुद्घिजीवी और बेहद सजग नेता क्या सचमुच कमीशन की रिपोर्ट से अभी तक नावाक़ि़फ हैं? हालांकि प्रकाश यह ज़रूर कहते हैं कि उनकी पार्टी पहले रिपोर्ट के हर पहलू पर ग़ौर करेगी, फिर इस पर कोई प्रतिक्रिया देगी.

हालांकि रु़ख इनका सकारात्मक ही है. पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्घदेव भट्टाचार्य पार्टी की लाइन के मुताबिक़ उद्‌घोष भी कर रहे हैं. बुद्घदेव कहते हैं कि देश में अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों को विकास का एक समान मौक़ा मिलना चाहिए. भारतीय जनता पार्टी अपने पुराने रवैये पर ही क़ायम है. वह कतई नहीं चाहती कि इन अनुशंसाओं को लागू किया जाए. यह अलग बात है कि भाजपा भी सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह के साथ इस बात के पक्ष में है कि रिपोर्ट पेश की जाए. पर रिपोर्ट लागू हो, ऐसी मंशा भाजपा की नहीं है. भाजपा नेता सुषमा स्वराज कहती हैं कि इससे कई दुश्वारियां पैदा होंगी. भारतीय संविधान में, संसद में और प्रदेशों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों के लिए पहले से ही आरक्षण है. यदि इस अनुशंसा को लागू कर दिया जाता है तो दलित श्रेणियों के लिए आरक्षित लोकसभा और विधानसभा की इन सीटों पर ईसाई या मुसलमान जाति के लोग भी चुनाव लड़ सकेंगे. इससे उन्हें दोहरा लाभ होगा, जो भारतीय समाज के हित में नहीं है. भाजपा नेता अरुण जेटली भी सुषमा स्वराज की बात पर हामी भरते हैं. अरुण जेटली कहते हैं कि यह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की सोची- समझी रणनीति की पहली कड़ी है. अनुशंसा लागू होगी तो आरक्षण का फायदा उठाने के लिए धर्मांतरण के मामले बढ़ेंगे. सामाजिक समीकरण बिगड़ेगा. जिस प्रदेश में ईसाइयों और मुसलमानों की संख्या ज़्यादा है, वहां वे सत्ता संभालने की स्थिति में भी आ सकते हैं. ऐसी हालत में भारतीय समाज की दलित जातियों में निराशा-हताशा फैलेगी. उनके उत्थान में अवरोध पैदा होगा. इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि इस साजिश को शुरुआत में ही तोड़ा जाए.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्यसभा सांसद डी राजा की दलील भी बिल्कुल प्रकाश कारात की तर्ज़ पर है. वह दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों की तऱक्क़ी तो चाहते हैं, पर फिलहाल कुछ भी कहने से बचना चाहते हैं. वजह वही, जो प्रकाश कारात फरमा रहे हैं. अभी रिपोर्ट का अध्ययन नहीं किया है, उन्होंने उसकी बारीकी नहीं समझी है. लिहाज़ा अभी कुछ बोलना मुनासिब नहीं. ज़ाहिर है, मुस्लिम आरक्षण के नाम पर सियासी दलों ने अपनी-अपनी हांडी चढ़ा रखी है.

हैरानी इस बात की है कि इस मुद्दे पर राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव और बसपा अध्यक्ष मायावती ने खामोशी साध रखी है. लालू यादव और मायावती, दोनों ही खुद को दलितों और मुस्लिमों का फरमाबदार साबित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखते. फिर यह चुप्पी क्यों? क्या पक रहा है इनके ज़ेहन में? लालू यादव ने तो इतना भी कहा कि वह अनुशंसाओं को लागू कराने के लिए आंदोलन करेंगे, पर मायावती तो पूरे परिदृश्य से ग़ायब हैं.

हालांकि यह वही मायावती हैं, जिन्होंने वर्ष २००६-०७ में इस मसले को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास चिट्ठियों का पुलिंदा भेजा था. क्या डर है मायावती को? अपना वोट बैंक खिसकने का या अगड़ी जातियों के नाराज़ होने का? क्यों उहापोह की स्थिति में हैं मायावती?

रही बात लालू यादव की, तो अभी शायद वह तेल और तेल की धार देख रहे हैं. वाजिब भी है. फिलहाल वह प्रदेश और देश की राजनीति में कहीं नहीं हैं. बिहार में वह दोबारा अपने पैर जमाने की कशमकश में हैं. लाजिमी है, ऐसे संजीदा मसले पर वह पूरी तरह ठोक-बजाकर ही मुंह खोलेंगे.

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अभी वेट एंड वॉच का रु़ख अपना रखा है. हालांकि वह और उनकी पार्टी पूरी तरह इस आरक्षण के पक्ष में हैं. जदयू के ही राज्यसभा सांसद अली अनवर की लंबी लड़ाई का ही नती़जा है कि यह मसला यहां तक पहुंचा और सरकार पर इतना दबाव बन सका कि वह रिपोर्ट संसद में पेश करने को मजबूर हो गई.

पर इन सभी सियासी दांव-पेंचों के बीच सरकार और कांग्रेस पार्टी की स्थिति दोधारी तलवार पर चलने जैसी हो गई है। सरकार ने सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और अन्य नेताओं के दबाव में इसे संसद में पेश तो कर दिया, पर उसे डर है कि कहीं उसकी हालत वी पी सिंह सरकार जैसी न हो जाए. हालांकि कांग्रेस प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी इस पर बड़े एहतियात से बात करते हैं. वह कहते हैं कि सरकार इसे लागू करने की हर संभावना पर ग़ौर कर रही है. जब सरकार ने इसे संसद में पेश कर दिया है तो इसके हरेक पहलू पर विचार कर लागू कराने की भी कोशिश करेगी. लेकिन कांग्रेस के एक बड़े नेता सच कह ही जाते हैं. फरमाते हैं कि सरकार ने संसद में गुमनाम तरीक़े से तो इस रिपोर्ट को रख दिया, पर इसे लागू करने की हिम्मत वह नहीं दिखा सकती, क्योंकि उसे पता है कि इससे मंडल-कमंडल का दौर एक बार फिर से शुरू हो जाएगा. सामान्य श्रेणी से आरक्षण तो सरकार देगी नहीं. मंडल आयोग ने जो २७ फीसदी आरक्षण पिछड़ों को दिया है, उसी में से आरक्षण देने का रास्ता निकालने की कवायद होगी. मतलब यह कि एक पिछड़ा दूसरे पिछड़े के पेट पर लात मारेगा. संविधान में भी कई बदलाव करने होंगे, क्योंकि भारतीय संविधान में सिर्फ हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म में ही दलित को परिभाषित किया गया है. दूसरा सवाल यह कि शैक्षणिक संस्थानों में १५ फीसदी आरक्षण कहां से आएगा? क्योंकि अनुसूचित जाति/जनजाति के कोटे से तो अल्पसंख्यकों को लाभ नहीं दिया जा सकता और न ही सामान्य श्रेणी के ५० फीसदी कोटे से. दोनों ही स्थितियों में देश में आग लग जाएगी. सबसे बड़ा सवाल यह कि आख़िर सरकार करेगी क्या? सरकार इसे लागू कर कुंए में गिरना पसंद करेगी

राजनीतिक दलों में उबाल आ चुका है. रंगनाथ मिश्र कमीशन की अनुशंसाओं को संसद में पेश करने की मांग को लेकर राजनीतिक पार्टियां सरकार के ख़िला़फ आंदोलन की रूपरेखा तैयार कर चुकी हैं. समाजवादी पार्टी इस मसले को लेकर जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन करने वाली है. भाजपा, जदयू, राजद एवं लोजपा के सांसद भी संसद और चौथी दुनिया अ़खबार के ज़रिए सरकार पर दबाव बना रहे हैं. इस मसले पर कोहराम मचा हुआ है, पर सरकार ने इस पर बिल्कुल चुप्पी साध रखी है. लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट लीक होने के मुद्दे पर चौतऱफा घिरी यूपीए सरकार अब रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट चौथी दुनिया में छप जाने के बाद सांसत में पड़ी दिख रही है. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव कहते हैं कि सरकार तो इस कमीशन की अनुशंसाओं पर ग़र्द डाल चुकी थी.

अगर चौथी दुनिया ने इस रिपोर्ट को नहीं छापा होता तो यूपीए सरकार देश के ग़रीब दलित मुस्लिमों और दलित ईसाइयों के हक़ों के साथ खिलवाड़ करने का पूरा मन बना चुकी थी, लेकिन अब ऐसा नहीं हो पाएगा, क्योंकि चौथी दुनिया अख़बार और इसके संपादक संतोष भारतीय ने देश की राजनीतिक पार्टियों को सरकार के ख़िला़फ एक पुख्ता आधार दे दिया है. इसकी बिना पर हम सरकार को इस बात के लिए मजबूर कर देंगे कि वह रंगनाथ मिश्र कमीशन की अनुशंसाओं पर न स़िर्फ संसद में बहस कराए, बल्कि उन्हें लागू भी करे.

समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह ख़ासे उत्तेजित हैं. इस मसले पर वह यूपीए सरकार पर बरस पड़ते हैं. कहते हैं कि सरकार ने कमीशन का गठन दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों की आंखों में धूल झोंकने के लिए किया. दरअसल सरकार यह चाहती ही नहीं कि देश का यह कमज़ोर तबका तरक्की करे या आगे ब़ढे. यूपीए सरकार स़िर्फ अपने मतलब का खेल, खेल रही है. अमर सिंह कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में 2010 में विधानसभा चुनाव होने हैं, इसलिए सरकार अपने वोट बैंक की चिंता में कमीशन की रिपोर्ट को संसद में पेश नहीं कर रही है. अमर सिंह सवाल करते हैं कि जब दूसरी जाति के लोगों को आरक्षण दिया जा रहा है तो मुसलमानों को बाहर क्यों रखा जा रहा है? सरकार आरक्षण के मसले पर दोहरा मानदंड क्यों अपना रही है? सरकार को इस बात का जवाब देना ही होगा.
ज़ाहिर है, चौथी दुनिया में रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट छपने के बाद सरकार पर इसे संसद में पेश करने को लेकर दबाव बेहद ब़ढ चुका है. रंगनाथ मिश्र कमीशन की स़िफारिशें ऐसी हैं, जिन पर आसानी से अमल नहीं हो सकता. कमीशन ने जो स़िफारिशें दी हैं, उनके मुताबिक़ केंद्र सरकार और राज्य सरकार की नौकरियों में सभी कैडर और गे्रड के पदों पर अल्पसंख्यकों को 15 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा. शिक्षा में भी यह आरक्षण 15 फीसदी होगा. इसमें दस फीसदी हिस्सा मुसलमानों को दिया जाएगा. जो अल्पसंख्यक उम्मीदवार सामान्य मेरिट लिस्ट में होंगे, वे आरक्षण सीमा से बाहर होंगे. मुस्लिम और ईसाई दलितों को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किया जाएगा.
राजद के राज्यसभा सांसद जाबिर हुसैन कहते हैं कि सरकार जानबूझ कर कमीशन की स़िफारिशों पर चर्चा करने से बच रही है. सरकार को पता है कि इस पर चर्चा होते ही विपक्षी पार्टियां सरकार पर तुष्टीकरण का आरोप लगाकर उसे घेर लेंगी. आयोग की रिपोर्ट पिछले दो सालों से धूल खा रही है, पर सरकार ने जानबूझ कर इसे हाशिए पर डाल दिया है. सरकार के लिए कमीशन की रिपोर्ट गले की हड्डी बन चुकी है, जिसे वह न निगल पा रही है और न ही उगल पा रही है. सरकार को यह अच्छी तरह पता है कि अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने का मसला बेहद ही संवेदनशील है.
जदयू के राज्यसभा सांसद एन के सिंह भी जाबिर हुसैन की बातों पर सहमति जताते हैं. वह कहते हैं कि आंध्र प्रदेश में मुस्लिमों को आरक्षण देने की कोशिश पर हुआ बवाल सरकार भूली नहीं है. वह रिपोर्ट टेबल करने के पहले सभी पहलुओं का ऩफा-नुक़सान आंक लेना चाहती है. अगर सरकार अल्पसंख्यकों को आरक्षण देती है तो उसे बहुसंख्यकों की नाराज़गी झेलनी पड़ेगी. और, अगर ज़्यादा दिनों तक सरकार इस मसले को लटकाती है तो अल्पसंख्यकों का गुस्सा उस पर उतर सकता है. ऐसी हालत सरकार के लिए बेहद दुरूह है.
बात बिल्कुल सही है. फिलहाल सरकार इस स्थिति में तो है ही नहीं कि वह कमीशन की रिपोर्ट में ज़्यादा बड़ा फेरबदल किए बग़ैर उसे लागू करा सके. हालांकि इसी साल के लोकसभा चुनाव के दरम्यान अपने
घोषणापत्र में कांग्रेस ने यह कहा था कि वह तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक की आरक्षण नीति को राष्ट्रीय स्तर पर लागू कराने के लिए पूरी तरह तत्पर है, पर अब सरकार अलग राग अलाप रही है. कांग्रेस प्रवक्ता जयंती नटराजन कहती हैं कि हमें पूरे मुद्दे की जांच करनी होगी. हम ऐसा कुछ बिल्कुल नहीं कर सकते, जो क़ानूनन नामुमकिन हो.
चौथी दुनिया अख़बार को राज्यसभा में लहराकर इस मसले को ज़ोर-शोर से उठाने वाले जदयू सांसद अली अनवर अंसारी और राजद सांसद राजनीति प्रसाद का मानना है कि सरकार के अलावा विपक्षी दलों में बैठे कुछ ऐसे मुस्लिम सांसद हैं, जो नहीं चाहते हैं कि रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट लागू हो. उन्हें इस बात की चिंता है कि अगर किसी भी तरह रिपोर्ट की अनुशंसाएं लागू हो गईं और मुसलमानों को आरक्षण मिल गया तो वे प़ढ-लिखकर तरक्की कर जाएंगे. फिर उनके बीच धर्म आधारित सियासत का गंदा खेल नहीं खेला जा सकता. वहीं समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद कमाल अख्तर दावे के साथ कहते हैं कि चाहे राजनीतिक पार्टियां जितना भी ज़ोर लगा लें, रिपोर्ट की अनुशंसाएं सरकार लागू करने वाली नहीं. क्योंकि, जब इस मसले पर बहस होगी तो सवाल यह भी उठेगा कि आ़िखर ऐसी क्या वजह रही कि आज़ादी के इतने सालों के बाद भी मुसलमान और ईसाई इतने पिछड़े हुए हैं? तब ठीकरा कांगे्रस के सिर ही फूटेगा. ज़ाहिर है, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले कांग्रेस ऐसी तोहमत नहीं लेना चाहेगी. फिर भी विपक्षी दलों की यह पुरज़ोर कोशिश होगी कि सरकार को इस मसले पर इतना मजबूर कर दिया जाए कि उसे संसद में इस पर बहस करानी ही पड़े.
बहरहाल, सरकार के ख़िला़फ इस मुद्दे पर जो राजनीतिक गोलबंदी दिख रही है, उस लिहाज़ से लिब्रहान कमीशन पर चर्चा होने के बाद रंगनाथ कमीशन पर संसद में हंगामा होने के पूरे आसार हैं। यक़ीनन इसका सेहरा चौथी दुनिया के माथे ही बंधता है.


दिनांक- 9 दिसंबर, 2009, समय- पूर्वान्ह 11 बजे.

लोकसभा की कार्यवाही में चौथी दुनिया और रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्टस्पीकर के आने की घोषणा- माननीय सभासदों, माननीय अध्यक्षा जी…

हाथ जोड़कर अध्यक्षा जी कुर्सी की तऱफ ब़ढ रही हैं. तभी मुलायम सिंह यादव सहित कई सांसद चौथी दुनिया अ़खबार की प्रति हवा में लहराते हुए रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट पेश करने को लेकर सवाल करने लगते हैं कि सरकार इस रिपोर्ट को सदन में कब पेश करेगी?

स्पीकर : (शोर सुनकर) कृपया बैठ जाइए….

प्रश्न संख्या 281, श्री अमरनाथ प्रधान..

(शोर फिर से शुरू, सदस्यगण चौथी दुनिया अ़खबार लहराते हैं)

स्पीकर : कृपया बैठ जाइए, कृपया शांत हो जाइए, यह, इसे इस तरह नहीं दिखाएंगे. कृपया शांत होकर बैठिए, शांत होकर बैठिए. यह इस तरह न दिखाएं. इस तरह से अ़खबार न दिखाएं और अपनी जगह ग्रहण कर लें. हम आपको..

तभी मुलायम सिंह फिर कुछ बोलते हैं…

स्पीकर : हां मुलायम सिंह जी, हम आपसे… कृपया बैठ जाइए, यह इस तरह न दिखाएं, इस तरह न दिखाएं, जो भी गंभीर हैं. हम इस पर आपसे बात कर लेंगे. (शोर हो रहा है) जी हां, आपसे बात करेंगे.

मुलायम सिंह : यह कोई मामूली बात नहीं है.

स्पीकर : जी हां, यह कोई मामूली बात नहीं है. इस तरह अ़खबार न दिखाएं, अपना स्थान ग्रहण करें, इस पर बात करेंगे. बैठ जाइए-बैठ जाइए… (दो-तीन बार कहती हैं)

(शोर फिर से शुरू)

स्पीकर : कृपया बैठ जाइए, माननीय प्रधानमंत्री जी कुछ कहना चाह रहे हैं, प्रधानमंत्री जी कुछ कहना चाह रहे हैं., सुषमा जी स्थान ग्रहण कीजिए.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बोलते हैं, लेकिन उनकी आवाज़ नहीं आती है.

बाकी लोग कहते हैं कि आवाज़ नहीं आ रही है. सुनाई नहीं दे रहा है…

(शोरगुल हो रहा है)

स्पीकर : प्रश्नकाल, जी हां इसको हम शून्य प्रहर में उठा लेगे., सबसे पहले उठा लेंगे.

(शोर- सबसे पहले… सभी के हाथों में चौथी दुनिया की प्रति है)

स्पीकर : कृपया अ़खबार न दिखाइए. इस तरह अ़खबार न दिखाइए. अ़खबार नीचे रख लीजिए.

मुलायम सिंह अ़खबार लेकर बोले जा रहे हैं कि रिपोर्ट कैसे लीक हुई, हमें बताया जाना चाहिए.

स्पीकर : मुलायम सिंह जी, आप एक मिनट में अपनी बात कह लेंगे. एक मिनट में अपनी बात कह लीजिए, अ़खबार नीचे रखिए.

मुलायम सिंह : हम चाहते हैं कि वह इसे न बताएं, प्रधानमंत्री जी यहां आकर बता देंगे, हम बैठ जाएंगे.

स्पीकर : क्या चीज़?

मुलायम सिंह : रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट जुलाई में पेश हुई, 2007 में. दो साल से छिपा रही है सरकार. और आज अ़खबारों में लाखों में आ गया. अब तक लोकसभा में पेश नहीं हुई. तो यह कोई मामूली बात है अध्यक्षा जी? नहीं. एक हो, दो हो, रोजाना यही हो रहा है. लिब्रहान का इसी तरह हुआ. आखिर क्यों नहीं बहस कराई दो साल तक. यह मैं पूछना चाहता हूं. प्रधानमंत्री जी बैठे हैं, मुझे खुशी है.

पीछे से आवाज़ आती है-कब पेश होगी? और इस पर चर्चा कब कराएंगे? चर्चा अभी हो, पेश करें, तारी़ख बताएं. प्रधानमंत्री जी बताएं कब चर्चा कराएंगे?

स्पीकर : अभी इसकी नोटिस नहीं है. अभी आपने यह बात कह ली. इसके बाद में जो भी उचित होगा..

मुलायम सिंह बात काटते हैं- अभी प्रधानमंत्री… यह

ठीक नहीं है.

स्पीकर : अभी तुरंत-तुरंत ऐसे कह देंगे, अचानक में बात हो गई है. बैठ जाइए. आप स्थान ग्रहण कर लीजिए. अपना स्थान ग्रहण कर लीजिए, ठीक है आपने अपनी बात कह ली.

फिर शोर मचता है-आश्वासन मिलना चाहिए, प्रधानमंत्री जी आश्वासन दें.

स्पीकर: ठीक है आपने अपनी बात कह ली, अब प्रश्नकाल चलाएं.

मुलायम सिंह सहित बाक़ी लोग शोर कर रहे हैं- आश्वासन मिलना चाहिए. अध्यक्षा जी, ऐसी मनमानी मत कीजिए.

स्पीकर : सबने आपकी बात सुन ली, तुरंत इस चीज पर सरकार की तऱफ से प्रतिक्रिया नहीं आ सकती. स्थान ग्रहण कीजिए.

मुलायम सिंह : यह ठीक नहीं है, हमें यहां से चलना पड़ेगा.. आप चाहती हैं अध्यक्षा जी, आप चाहती हैं, माने आप चाहती हैं कि हम इसके अंदर आएं. हम इसमें अंदर नहीं आना चाहते, मजबूर करेंगे तो आएंगे..

स्पीकर : ठीक है, आप इसमें नोटिस दे देते.

मुलायम सिंह : हमें बता दीजिए, कब पेश करेंगे इतना ही.

स्पीकर- तुरंत कैसे बता सकते हैं? आपने बता दिया है, उन्होंने (प्रधानमंत्री जी) सुन लिया है.

मुलायम सिंह : आप बात सुनना ही नहीं चाहतीं.

स्पीकर : आप इस तरह से अ़खबार लहराइए मत, लहराइए मत…

मुलायम सिंह : मैं सरकार से पूछना चाहता हूं कि यह रिपोर्ट जब ज़ाहिर हो गई है तो कब पेश करेंगे सदन में?

(शोर में सुनाई पड़ता है कि समय निश्चित करके बतलाइए…)

स्पीकर: उन्होंने सुन लिया है.

मुलायम सिंह : आप बताने नहीं देना चाहतीं. यह क्या बात हुई? हम चेयर के लिए ऐसा कुछ कहना नहीं चाहते.

स्पीकर : क्या नहीं कहना चाहते?

मुलायम सिंह : आप संरक्षण दे रहे हैं?

स्पीकर : नहीं, हम संरक्षण नहीं दे रहे हैं. हमने तो आपको बुलवाया है. अब आप हर चीज में कहेंगे कि तुरंत रिएक्ट करें तो हम कैसे करें? (बात काटते हुए) आपने नोटिस नहीं दिया था मुलायम सिंह जी, मुलायम सिंह जी…

मुलायम सिंह : रिपोर्ट कब पेश करेंगे?

स्पीकर : अब यह नोटिस नहीं आई थी मेरे पास, आपने कहा यह गंभीर है, हमने आपको बोलने दिया.

मुलायम सिंह : प्रधानमंत्री ने दो बार खड़े होने का प्रयास किया, लेकिन आपने नहीं माना. यह क्या तरीक़ा है?

स्पीकर : कब?

मुलायम सिंह : आपसे मदद चाहिए मुझे, आप संरक्षण हमें दें.

स्पीकर : आपको हमने इसलिए बोलने दिया, अब आराम से बैठ जाइए और प्रश्नकाल चलने दीजिए.

(पीछे से आवाज़ आती है कि सरकार आश्वासन दे, आश्वासन दे… सब चिल्लाते हैं कि सरकार कोई आश्वासन दे)

क्वेश्चन नंबर 281…

स्पीकर : आप क्यों खड़े हो गए वासुदेव आचार्य जी, आप बैठ जाइए. यस ऑनरेबल मिनिस्टर्स, योर्स फर्स्ट सप्लीमेंटरी प्लीज…..देखिए हमने कई द़फा कहा है कि बैठ जाइए. सभी को चुप कराते हुए स्पीकर कहती हैं कि प्रधानमंत्री जी कुछ कह रहे हैं, कृपया शांत हो जाइए, शांत हो जाइए, प्रधानमंत्री जी कुछ कह रहे हैं.

मनमोहन सिंह : Madam, the honourable Mulayam Singh ji and other friends raised this issue। We had no notice but I take note of their sentiments and we will place the report before the house, before the end of the present session. (मैडम, सम्मानीय मुलायम सिंह जी और दूसरे मित्रों ने यह मुद्दा उठाया है. हमें इसकी कोई सूचना नहीं थी, लेकिन मैंने उनकी भावनाओं का संज्ञान लिया और हम चालू सत्र की समाप्ति के पहले इसे सदन के पटल पर रखेंगे.)

वे आठ मिनट जिन्‍होंने इतिहास रचा-संसद में चौथी दुनिया

रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को लेकर सदन में लगातार हंगामा होता रहा. सांसद वेल में जाकर प्रदर्शन और नारेबाज़ी करते रहे. लगभग हर दल के सांसद चाहते थे कि यह रिपोर्ट सदन के पटल पर रखी जाए, पर वे न सरकार को तैयार कर सके और न ही चेयर पर दबाव डाल सके.

वे आठ मिनट जिन्‍होंने इतिहास रचा संसद में चौथी दुनियाससद में चौथी दुनिया की गूंज जारी है. कई सालों बाद किसी अ़खबार में छपी रिपोर्ट पर संसद में हंगामा हो रहा है. जब लोकसभा में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंहयादव और उनकी पार्टी के दूसरे सांसदों ने आपके अ़खबार चौथी दुनिया के हवाले से रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट पर सरकार को घेरा तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आखिरकार झुकना ही पड़ा. उन्होंने सदन को यह आश्वासन दिया है कि संसद के वर्तमान सत्र के अंत तक रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट पेश कर दी जाएगी. राज्यसभा में भी रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट पर हंगामा जारी रहा. इन दोनों सदनों में क्या हुआ, इसका पूरा विवरण आप इस अ़खबार के पेज नंबर 3 और 5 पर पढ़ सकते हैं. लेकिन इससे पहले इस मामले से जुड़े ऐसे दो पहलुओं के बारे में जानना ज़रूरी है, जो दुनिया की नजर में आने से रह गए. दोनों ही बातें चौंकाने वाली हैं. पहली तो यह है कि लोकसभा में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आश्वासन के बावजूद रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को पेश नहीं किया जाएगा. दूसरी बात यह है कि चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय को सच बोलने की सज़ा मिलने जा रही है. उन्हें राज्यसभा से नोटिस मिला है जिसमें यह कहा गया है कि चौथी दुनिया में छपे लेख से सांसदों के विशेषाधिकार का हनन हुआ है.

क्या सचमुच रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट संसद में पेश होगी?

रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट के मुद्दे पर मुलायम सिंह ने लोकसभा की कार्यवाही नहीं चलने दी. 9 दिसंबर को समाजवादी पार्टी के सांसद और मुलायम सिंह ने चौथी दुनिया अ़खबार लोकसभा में लहराया. जब उन्होंने इस अ़खबार में छपी रिपोर्ट का हवाला दिया तो प्रधानमंत्री को इस मसले पर बयान देने के लिए बाध्य होना पड़ा. गौर करने वाली बात यह है कि पिछले कई दिनों से राज्यसभा में रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को लेकर लगातार हंगामा होता रहा. राज्यसभा में अलग-अलग दलों के सांसदों ने रिपोर्ट को सदन में पेश करने की मांग की थी. राज्यसभा में इस मामले पर इतना ज़बर्दस्त हंगामा हुआ कि कई बार सदन की कार्यवाही रोकनी पड़ी. सरकार इस बात से वाक़ि़फ थी कि जिस मुद्दे पर राज्यसभा में हंगामा हो रहा है, वह मामला लोकसभा में भी उठ सकता है. इसलिए यह यक़ीन किया जा सकता है कि सरकार ने इससे निपटने के लिए रणनीति ज़रूर बनाई होगी. सरकार ने इस पर क्या रणनीति बनाई, इसकी जानकारी हमें कांग्रेस के सूत्रों से मिली.

लोकसभा में हंगामे की घटना के ठीक दो दिन बाद यानी 11 तारी़ख को कांग्रेस के सूत्रों ने बताया कि रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को संसद में पेश नहीं किया जाएगा. लोकसभा में जो कुछ भी हुआ, उससे कांग्रेस पार्टी चिंतित है. मुलायम सिंह ने जिस तरह के तेवर दिखाए, और उस व़क्त लोकसभा में जिस तरह हंगामा चल रहा था, उसे शांत करने के लिए प्रधानमंत्री ने यह बयान दे दिया कि रिपोर्ट को इसी सत्र में पेश कर दिया जाएगा. कांग्रेस पार्टी इसे एक ऐसा मुद्दा मानती है, जिससे विपक्ष में फूट पड़ जाएगी. इसलिए इस मामले को जितना टाला जाए, उतना ही सरकार के लिए लाभदायक है. हमारे सूत्रों के मुताबिक़, दलित मुसलमानों और ईसाइयों को आरक्षण की सुविधा देने का सुझाव देने वाली रंगनाथ कमीशन की रिपोर्ट को दबाने के लिए अलग तेलंगाना राज्य के मुद्दे को हवा दी गई है, ताकि मीडिया और विपक्ष का ध्यान बंट जाए. यही वजह है कि राज्यसभा में भी रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को पेश करने की मांग पर सलमान खुर्शीद ने कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के मॉडल की बात कहकर असली मुद्दे को टाल दिया. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुलायम सिंह के तेवर को शांत करने के लिए यह तो कह दिया कि रिपोर्ट को इस सत्र में पेश किया जाएगा, लेकिन कब पेश किया जाएगा, इस बारे में कुछ भी नहीं बताया. कांग्रेस पार्टी इस बात से भी नाराज़ है कि झारखंड में मुसलमान कांग्रेस का खुलकर साथ नहीं दे रहे हैं. ग़ौर करने वाली बात यह है कि मनमोहन सिंह जी 17 तारी़ख को कोपेनहेगन जा रहे हैं. कांग्रेस के सूत्रों के मुताबिक़, उनके जाने के बाद तेलंगाना के मामले को और हवा दी जाएगी और ऐसी संभावना है कि प्रधानमंत्री के कोपेनहेगन जाने के अगले दिन ही संसद के वर्तमान सत्र को खत्म कर दिया जाएगा.

अगर हमारे सूत्रों की खबर सही है तो दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों के आरक्षण का मामला ठंडे बस्ते में जाना तय है. कमज़ोर और ग़रीब अल्पसंख्यकों के साथ यह बड़ी नाइंसा़फी होगी. हमारी हार्दिक इच्छा है कि चौथी दुनिया की यह खबर झूठी साबित हो. अगर ऐसा होता है तो हमें इस बात से सबसे ज़्यादा खुशी होगी. और अगर हमारी खबर सही साबित हुई तो संसद के इतिहास में इसे काले अध्याय के तौर पर याद किया जाएगा. सदन में वादा करने के बाद भी अगर प्रधानमंत्री उससे मुकर जाते हैं तो यह गलत परंपरा को प्रोत्साहित करेगी. अ़फसोस की बात यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जैसे ईमानदार और सा़फ छवि वाले व्यक्तइगर ऐसा करते हैं तो देश की जनता आखिर किस नेता पर विश्वास करे!

संतोष भारतीय के खिला़फ विशेषाधिकार हनन का नोटिस

सच की राह पर चलना कठिन है, यह हम जानते हैं. क़ानून के डर से सच का साथ छोड़ देने वाली पत्रकारिता हमने नहीं सीखी है. यही वजह है कि चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय को राज्यसभा सचिवालय ने विशेषाधिकार हनन का नोटिस दिया है. इस नोटिस की वजह है रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट को पेश न करना राज्यसभा का अपमान नामक लेख, जिसे चौथी दुनिया के पिछले अंक में छापा गया. इस लेख को आपके संपादक संतोष भारतीय ने लिखा. इस लेख को पढ़कर राज्यसभा के कई सांसद इतने नाराज़ हो गए कि उन्होंने चौथी दुनिया साप्ताहिक अ़खबार और इसके संपादक संतोष भारतीय के ख़िलाफ़ राज्यसभा में विशेषाधिकार हनन का नोटिस दिया है. नोटिस देने वाले सांसदों में अली अनवर (जदयू), अजीज़ पाशा (सीपीआई), राजनीति प्रसाद (राजद) और साबिर अली (लोजपा) हैं. इन सांसदों ने यह नोटिस उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति हामिद अली अंसारी को दी. उपराष्ट्रपति ने इन सांसदों को यह विश्वास दिलाया है कि चौथी दुनिया और इसके संपादक पर सख्त कार्रवाई की जाएगी. सांसदों के आवेदन का संज्ञान लेते हुए राज्यसभा सचिवालय ने संतोष भारतीय को नोटिस भेज दिया.

हमने अपने 07-13 दिसंबर 2009 के अंक में रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट पेश न होना राज्यसभा का अपमान शीर्षक से लीड स्टोरी छापी. राज्यसभा के सांसदों को लगता है कि इस लेख से राज्यसभा का अपमान हुआ है और वे अपमानित महसूस कर रहे हैं. इसलिए इन सांसदों ने उपराष्ट्रपति से यह अनुरोध किया है कि चौथी दुनिया साप्ताहिक अ़खबार और इसके संपादक संतोष भारतीय पर विशेषाधिकार हनन का मामला चलाया जाए, ताकि इस प्रकार के अपमानजनक और आपराधिक कृत्य के लिए उन्हें प्रताड़ित किया जा सके.

इस लेख में संतोष भारतीय ने सच्चाई और निर्भीकता से राज्यसभा की सार्थकता पर सवाल उठाया था। रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को लेकर सदन में लगातार हंगामा होता रहा. सांसद वेल में जाकर प्रदर्शन और नारेबाज़ी करते रहे. लगभग हर दल के सांसद चाहते थे कि यह रिपोर्ट सदन के पटल पर रखी जाए, पर वे न सरकार को तैयार कर सके और न ही चेयर पर दबाव डाल सके. यही वजह है कि सरकार ने रिपोर्ट को लेकर न तो कोई क़दम उठाए और न ही कोई सकारात्मक बयान दिया. यूं कहें कि राज्यसभा के सांसदों की मांगों को टाल दिया. अब ऐसी राज्यसभा के बारे में क्या कहा जाए, जो कमज़ोर वर्गों के लोकतांत्रिक अधिकारों का संरक्षण करने में असफल रहने के कारण अपनी सार्थकता खोती जा रही है. क्या राज्यसभा के सभापति की यह ज़िम्मेदारी नहीं थी कि वह रिपोर्ट को पेश करने का निर्देश दे देते. इससे राज्यसभा में लोगों का भरोसा मज़बूत होता. कमीशन द्वारा पहचाने गए क्रिश्चियन समाज और मुस्लिम समाज के दलितों के लिए आरक्षण का फायदा उठाने का दरवाजा खुल जाता. यही सच संतोष भारतीय ने अपने लेख में लिखा था कि क्या राज्यसभा जिस पर लोकतंत्र को संभालने की ज़िम्मेवारी है, उच्च सदन कहा जाता है, शक्तिहीनों और निर्वीर्य लोगों के बैठने का एक क्लब भर रह गया है. क्या राज्यसभा से जनता को अपना भरोसा खत्म कर लेना चाहिए. संतोष भारतीय ने अपने लेख में एक निर्भीक पत्रकार की भूमिका निभाई और सभापति महोदय से यह गुज़ारिश की कि राज्यसभा की गरिमा को बचाने के लिए सदस्यों की मांगों पर ध्यान दीजिए और रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को सदन के पटल पर पेश कराइए. लेकिन चौथी दुनिया के इस लेख के लिए लेखक को राज्यसभा सचिवालय ने नोटिस दे दिया, जिसमें यह आरोप लगाया गया है कि लेख से राज्यसभा और इसके सदस्यों के विशेषाधिकार का हनन हुआ है. सोचने वाली बात यह है कि जो मामला पिछले कई दिनों से राज्यसभा में उठता रहा, जिस पर हंगामा होता रहा, हर दल के लोग मांग करते रहे, लेकिन सरकार टस से मस नहीं हुई, उसी रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को लेकर जब मुलायम सिंह ने लोकसभा में हंगामा किया तो प्रधानमंत्री को यह आश्वासन देने के लिए बाध्य होना पड़ा कि रिपोर्ट को इस सत्र में पेश किया जाएगा. सभापति जी को यह समझना चाहिए कि यह कैसे हुआ. मुद्दा एक, लेकिन अलग-अलग सदनों में सरकार का जवाब अलग, कार्रवाई अलग. रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट से जुड़े घटनाक्रम से यह डर पैदा होता है कि लोकसभा के मुक़ाबले कहीं राज्यसभा अपनी सार्थकता तो खोती नहीं जा रही है. आपको बता दें कि राज्यसभा के सांसदों ने 7 दिसंबर को नोटिस सभापति को दिया, आठ दिसंबर को उसे सदन में रखा, जिसके ऊपर सभापति ने संतोष भारतीय और चौथी दुनिया को 9 दिसंबर को नोटिस भेजने का निर्देश दिया. दूसरी ओर 9 दिसंबर को ही लोकसभा में मुलायम सिंह और कई सांसदों के हस्तक्षेप के बाद प्रधानमंत्री ने रिपोर्ट को लोकसभा में इसी सत्र में रखने का स्पष्ट आश्वासन दिया. यह कैसा अंतर्विरोध है? रिपोर्ट रखने की मांग करने पर राज्यसभा से विशेषाधिकार हनन का नोटिस और उसी अख़बार के आधार पर लोकसभा में मुलायम सिंह की मांग पर प्रधानमंत्री का रिपोर्ट को रखने का आश्वासन. इस घटनाक्रम ने संतोष भारतीय के लेख को सही साबित किया है.


राज्यसभा में चौथी दुनिया



राज्यसभा में चौथी दुनियाआठ दिसंबर, 2009 की सुबह. राज्यसभा के माहौल में एक अनकही सी कसमसाहट दिख रही है. सभापति उपराष्ट्रपति हामिद अली अंसारी के कक्ष में बैठे कुछ सांसदों में बेचैनी का आलम है. उनके हाथों में साप्ताहिक हिंदी अख़बार चौथी दुनिया की वे प्रतियां हैं, जिसमें अख़बार के प्रमुख संपादक संतोष भारतीय ने राज्यसभा के सांसदों के लिए नाकारा, कमज़ोर और नपुंसक जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है. चूंकि राज्यसभा सांसद अपनी पुरज़ोर कोशिशों के बावज़ूद दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को आरक्षण देने संबंधी अनुशंसाओं वाली रिपोर्ट को राज्यसभा में पेश नहीं करा सके, लिहाज़ा संतोष भारतीय ने सांसदों को इन विशेष शब्दों से विभूषित कर दिया. शब्दों की तासीर ने सांसदों के ज़हन में इतनी तिलमिलाहट भर दी कि जद यू के राज्यसभा सांसद अली अनवर अंसारी, राजद के सांसद राजनीति प्रसाद, लोजपा के सांसद साबिर अली और भाकपा के सांसद अजीज़ पाशा ने संतोष भारतीय के ख़िला़फ विशेषाधिकार हनन का नोटिस तक दे दिया. उनकी नाराज़गी अ़खबार से तो थी ही, पर उससे ज़्यादा गुस्सा सरकार पर था कि वह जानबूझ कर सांसदों को ज़लील करा रही है. अगर सरकार चाहती है कि सांसदों पर ऐसी तोहमत न लगे तो उसे तुरंत रंगनाथ मिश्र कमीशन पर संसद में बहस कराना होगा. सभापति के कमरे में इस पर रस्साकशी जारी थी. जदयू सांसद अली अनवर बेहद ख़फा अंदाज़ में सभापति से कह रहे थे कि वह आज इस मसले को उठाना चाहते हैं, सभापति इस बात की इजाज़त दें. तभी वहां मौजूद कांग्रेस सांसद राजीव शुक्ला इस मुबाहिसे में द़खलअंदाज़ी कर बैठते हैं. वह कहते हैं कि चौथी दुनिया कौन सा ऐसा बड़ा अख़बार है कि जिसमें छपी बातों से आप इतने परेशान हो गए हैं. अरे छोटा-मोटा अख़बार है. हज़ार प्रतियां भी नहीं बिकतीं. दरअसल यहां राजीव शुक्ला की भी अपनी मजबूरियां थीं. सरकार का नुमाइंदा होने की वजह से भला उन्हें यह कैसे मंजूर होता कि उस रिपोर्ट पर सदन में बहस हो, जो सरकार को मुश्किलों में डाल दे. ख़ैर राजीव शुक्ला की बातें सुन रहे भाजपा नेता कलराज मिश्र से रहा नहीं गया.

कलराज मिश्र चौथी दुनिया के पुराने पाठक रहे हैं और इसकी ताक़त से भी वाक़िफ हैं. उन्होंने राजीव शुक्ला की बात काटते हुए कहा कि आप ग़लत तथ्य मत रखें. चौथी दुनिया अख़बार और इसके संपादक संतोष भारतीय कोई गुमनाम सी चीज़ नहीं हैं. यह अख़बार बेहद उसूल वाले समाचारपत्रों में शुमार किया जाता रहा है.

इस दरम्यान अली अनवर अंसारी अपनी मांगों को दोहराते रहे. हार कर सभापति उपराष्ट्रपति हामिद अली अंसारी ने अली अनवर से कहा कि कम से कम प्रधानमंत्री कार्यालय मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को तो आने दें, पर अली अनवर और उनके साथियों ने तो जिद ठान ली थी . उन्होंने आख़िरी वार किया कि अगर सभापति अनुमति नहीं देंगे तो वे लोग सदन नहीं चलने देंगे. अब तो सभापति को मानना ही था. उन्होंने अली अनवर से कहा कि ठीक है, प्रश्नकाल में आप अपनी बात सदन में रख सकते हैं. सदन में घड़ी की सूइयों ने जैसे ही 12 बजाए, राज्यसभा सदस्यों ने हंगामा शुरू कर दिया. लोकजन शक्ति पार्टी के सांसद साबिर अली चौथी दुनिया की प्रतियों के साथ वैल में चले आए. वह बेहद उद्वेलित थे. उनका कहना था कि सरकार राज्यसभा सांसदों को बेइज्जत करा रही है. सरकार की लापरवाही के कारण उनकी अवमानना की जा रही है. साबिर अली के अनवर अली अंसारी, भाकपा के अजीज़ पाशा और राजद के राजनीति प्रसाद भी वैल में मौजूद थे. भाकपा के सांसद अजीज़ पासा का कहना था कि सरकार की चौथी दुनिया अख़बार के साथ मिलीभगत है, तभी वह इसे अनसुना किए बैठी है. जदयू सांसद अली अनवर भी बेहद तमतमाए हुए थे. उन्होंने सवाल किया कि चौथी दुनिया ने पूरे सदन को गाली दी है. सभापति की कुर्सी पर भी छींटाकशी की है. भला सरकार चुप कैसे रह सकती है? सरकार इतनी जलालत कैसे बर्दाश्त कर सकती है? क्या सरकार को सांसदों के मान-सम्मान की कोई फिक्र नहीं? इस वक्त सभापति की कुर्सी उपसभापति के रहमान ने संभाल रखी थी. आक्रोशित सदस्यों को शांत कराने की कोशिश में उनकी पेशानी पर बल आ चुके थे, पर नाराज़ सदस्यों को वह शांत नहीं करा सके. के रहमान ने यह आश्वासन भी दिया कि मामला सभापति के पास विचाराधीन है.

पर सांसद, संतोष भारतीय की रिपोर्ट रंगनाथ मिश्र कमीशन-रिपोर्ट पेश न होना राज्यसभा का अपमान पर लगातार शोर मचा रहे थे. संतोष भारतीय द्वारा यह लिखना कि रिपोर्ट पेश नहीं करा पाने वाले सांसद शक्तिहीन और निर्वीर्य हैं, उन्हें घातक चोट पहुंचा रहा था. थक-हारकर उपसभापति ने 12 बजकर 18 मिनट पर सदन की कार्यवाही 15 मिनट के लिए स्थगित कर दी. सीपीएम की सांसद वृंदा करात ख़ासी नाराज़ दिखीं. वह भी बरस पड़ीं. उनका कहना था कि जब इतनी गोपनीय और अहम रिपोर्ट मीडिया में लीक होती जा रही हैं तो राज्यसभा में उन जैसे सांसदों का क्या काम? सरकार न स़िर्फ जनता को, बल्कि सांसदों को भी बेवकूफ बना रही है. अब सोचने का व़क्त बिल्कुल नहीं है. सरकार तुरंत रिपोर्ट पेश करे.

बहरहाल 12 बजकर 32 मिनट पर राज्यसभा की कार्यवाही फिर शुरू होती है. पृथ्वीराज चव्हाण को फिर बुलाया जाता है, ताकि वह नाराज़ और उग्र सांसदों के सवालों का जवाब दे सकें, पर वह सदन में मौजूद नहीं थे. तब कांग्रेस की ओर से अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री सलमान खुर्शीद जवाब देने के लिए खड़े होते हैं. सलमान ख़ुर्शीद की तरफ सभी राज्यसभा सांसदों की उम्मीद भरी निगाहें उठती हैं, पर सलमान ख़ुर्शीद ने बड़ी होशियारी से शब्दों की बाज़ीगरी दिखाई. उन्होंने कहा तो ज़रूर कि सरकार पिछड़े मुसलमानों को कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल मॉडल की तर्ज़ पर आरक्षण देने पर विचार कर रही है. रंगनाथ मिश्र कमीशन से संबंधित आरटीआई की रिपोर्ट अदालत में है. सरकार माकूल व़क्त पर इसे सदन में पेश करेगी. हालांकि सांसदों ने सलमान ख़ुर्शीद की चतुराई भांप ली कि वह सांसदों को झांसा देकर निकल गए हैं. लोजपा के साबिर अली ने यह बात सदन में ही कह दी थी. भाजपा के रवि शंकर प्रसाद ने सलमान खुर्शीद की चालाकी पर उन्हें घेर लिया. रवि शंकर प्रसाद ने कहा कि जब सलमान ख़ुर्शीद ने यह बात एक न्यूज चैनल पर भी स्वीकार की है तो सरकार इस रिपोर्ट को संसद में पेश क्यों नहीं करती? मंत्री चैनल पर कुछ और, संसद में कुछ और क्यों बोलते हैं?

सदस्यों के हंगामे का कोई ठोस नतीजा भले ही न निकला हो, पर एक ख़ास और उत्साहित करने वाली जो बात नज़र आई, वह यह है कि इस बार रिपोर्ट को पेश करने की मांग को लेकर राज्यसभा सांसद एकजुट हो गए थे. समाजवादी पार्टी की सांसद जया बच्चन के तेवर ख़ासे सख्त थे. उन्होंने बेहद ओजस्वी तरीक़े से सदन में अपनी बात रखी. हालांकि उनकी पार्टी के अमर सिंह उस व़क्त वहां मौजूद नहीं थे. पर शायद वह सरकार को घेरने की उस रणनीति को बनाने में मशगूल थे, जिसका नतीजा अगले दिन यानी 9 दिसंबर को लोकसभा में देखने को मिला. जब समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह के नेतृत्व में सपा सांसदों ने रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट पेश करने के मसले पर हंगामा किया तो प्रधानमंत्री को जवाब देना ही पड़ा कि यह रिपोर्ट इसी सत्र में पेश की जाएगी.

नक्सली हरियाणा में

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह वर्ष 2006 से ही लगातार नक्सलियों को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताते रहे हैं। गृहमंत्री पी चिदंबरम भी अपना नज़रिया पेश करते रहे हैं, जबकि नार्थ ब्लॉक के हुक्मरान नक्सलियों के ख़ात्मे की अंतिम रूपरेखा तैयार करने में तल्लीन रहे हैं। यहां तक कि जब गृह मंत्रालय नक्सलियों के विरुद्ध मुहिम के पहले चरण की तैयारी कर रहा था तो नक्सली देश के शहरी इलाक़ों में सफलतापूर्वक पैठ बना चुके थे। हाल ही में नई दिल्ली में सीपीआई (माओवादी) की केंद्रीय समिति और पोलित ब्यूरो के सदस्य कोबद घांदव की गिरफ़्तारी आंखें खोल देने वाली घटना थी। घांदव शहरी क्षेत्रों में अतिवादी विचारधारा के प्रसार का प्रभारी था। शासन और उसका ख़ु़फ़िया अमला घांदव की गिरफ़्तारी को अपनी कामयाबी बता रहा है तो सीपीआई (माओवादी) इसे महज़ तात्कालिक कामयाबी बताकर शासन के दावे को अंगूठा दिखा रही है। अगर हरियाणा के यमुना नगर ज़िले में नक्सलियों और माओवादियों की गतिविधियों की तह में जाएं तो उनके आत्मविश्वास के कुछ आधार अवश्य नज़र आते हैं। अप्रैल 2009 में यमुना नगर में 30 नक्सलियों की गिरफ़्तारी हो चुकी थी और हरियाणा पुलिस उनके क़ब्ज़े से 37 कारतूस, चार देसी पिस्तौल, दो नाइन एमएम पिस्तौल, दो थ्री नॉट थ्री राइफल, चार डेटोनेटर, दो ग्रेनेड और नक्सली साहित्य के अलावा भारी मात्रा में गोला बारूद बरामद कर चुकी थी।

नक्सली हरियाणा में किस तरह अपनी शक्ति ब़ढा रहे हैं और किस तरह शासन के लिए चुनौती बनकर सामने आ रहे हैं, यह जानने के लिए हमने वहां की यात्रा की. दिल्ली से 250 किलोमीटर दूर यमुना नगर ज़िला मुख्यालय के समीप छछरौली उपनगरीय इलाक़े में दीवारें क्रांतिकारी नक्सली नारों से पटी दिखाई देती हैं- वोट नहीं, चोट दो; चुनाव का करो बहिष्कार, क्रांति के लिए हो जाओ तैयार; जनता की आज़ादी की राह है माओवाद! माओवाद!! यहां तक कि नक्सलियों ने यहां लोगों के बीच चुनाव का बहिष्कार करने का आह्‌वान करते हुए परचे तक बंटवाए हैं.

दिलचस्प तो यह है कि छछरौली और इसके आसपास के इलाक़े में सामाजिक आंदोलन या विस्थापन आदि का कोई इतिहास नहीं रहा है, जिससे नक्सलियों की पैठ की कोई ग़ुंजाइश भी नज़र आए. यमुना नगर कोई अकेला उदाहरण नहीं है.

2005 के बाद से पूरे हरियाणा में 11 मामले सामने आ चुके हैं. इनमें से तीन नरवाना, एक उचाना, चार कैथल, दो कुरुक्षेत्र और एक मामला करनाल से जुड़ा है.

सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ अजय साहनी के मुताबिक़, देश के शहरी इलाक़ों में अपने प्रभाव का विस्तार काफी लंबे समय से नक्सलियों की रणनीति का हिस्सा रहा है. अगर मैं सही याद कर पा रहा हूं तो आप इसे पीपुल्स वार ग्रुप के 2002 के दस्तावेज़ में देख सकते हैं. 2007 में पार्टी यूनिटी कांग्रेस में भी इस संकल्प को दोहराया गया. 36 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद 2007 में प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (माओवादी) की नौवीं पार्टी यूनियन कांग्रेस का आयोजन हुआ. सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि वर्ष 2004 में पीपुल्स वॉर ग्रुप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर के विलय के बाद दोनों की यह पहली बैठक थी. यूनिटी कांग्रेस ने दलित विरोध आंदोलन और विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसइजेड या सेज) के ख़िला़फ प्रदर्शन की कामयाबी की ज़ोरदार चर्चा की और माना कि जन आंदोलन ही पार्टी की जड़ को मज़बूत करने का ज़रिया हो सकता है. यूनिटी कांग्रेस ने इसे दूसरी पार्टियों के लिए एक दस्तावेज़ के तौर पर अहम मुद्दा दे दिया. वह भी यह कहते हुए कि सामंतवाद या अर्द्ध सामंतवाद का मसला जातिवाद और ब्राह्मणवादी विचारों से जुड़ा हुआ है. इसलिए माओवादी-नक्सलवादी प्रभाव को कम करने के लिए जातियों के संघर्ष को कम करने की ज़रूरत है.

जाति एक महत्वपूर्ण कारक है, यह इस तथ्य से पता चलता है कि हरियाणा से गिरफ़्तार किए गए 29 नक्सली-माओवादियों में से 13 हरिजन थे, जबकि शेष दूसरी पिछड़ी जातियों से ताल्लुक रखते थे. 2007 में यमुना नगर के नज़दीक इस्माइलपुर में गुर्जर लड़के और हरिजन लड़की के बीच प्रेम संबंध को लेकर दोनों जातियों के बीच ठन गई. नक्सलियों ने इस विवाद का ख़ूब फायदा उठाया. उस समय यमुना नगर के पुलिस अधीक्षक रहे के वी रमणा के मुताबिक़, हरियाणा में नक्सली गतिविधियों के पीछे मास्टर माइंड प्रदीप कुमार था, जो कुरुक्षेत्र में डॉक्टरी पेशे में है. वह इस्माइलपुर के वाशिंदे सिमरत सिंह के संपर्क में आया और शिवालिक जनसंघर्ष मोर्चा के बैनर तले जनसभाएं और बैठकें आयोजित करने लगा. प्रदीप के नेतृत्व में वे स्थानीय निवासियों के पक्ष में विभिन्न मुद्दों को उठाने लगे, इससे उन्हें लोगों का भी समर्थन मिलने लगा. उसी दौरान हमें उनकी दूसरी गतिविधियो के बारे में जानकारियां मिलीं कि वे किस तरह दुष्प्रचार के कामों में लगे हैं और आग्नेयास्त्र (असलहे) आदि जुटा रहे हैं. इसके बाद संगठन भूमिगत होकर कार्य करने लगा. इस्माइलपुर के निवासी भी पुलिस के इस कथन की पुष्टि करते हैं. गांव के सरपंच 44 वर्षीय नरेंद्र सिंह कहते हैं, कुछ माह पहले तक यहां हमने नक्सली गतिविधियां देखी हैं. चुनाव के बहिष्कार के लिए वे अभियान चलाते थे. बैठकें करते थे और पोस्टरबाज़ी करते थे. इसकी शुरुआत गुर्जर और हरिजनों के बीच एक छोटी सी झड़प से हुई थी. 16 जून 2009 को नक्सलियों ने एक ग्रामीण नीतू की हत्या कर दी. उन्हें शक़ था कि वह पुलिस को उनकी गतिविधियों की जानकारी देता है. पुलिसिया जांच की रिपोर्ट के मुताबिक़, प्रदीप वर्ष 2006 में हरियाणा में बाढ़ राहत कार्यों में सक्रिय था. उसी दौरान वह माओवादियों के संपर्क में आया. इसके बाद वह हरिद्वार में आयोजित क्षेत्रीय बैठक में शामिल हुआ. प्रत्येक माह की पांच या छह तारीख़ को वह नई दिल्ली के अंतरराज्यीय बस अड्डे पर विशेष दूत के जरिए केंद्रीय नेतृत्व का निर्देश, प्रचार सामग्री, रक़म और हथियार प्राप्त करता था.

पुलिस सूत्रों के मुताबिक़, इस्माइलपुर में प्रदीप कुमार का ख़ासमख़ास सिमरत सिंह बहुत ही शातिर और तेज़तर्रार था. नक्सली गतिविधियों में संलिप्तता के कारण पुलिस द्वारा मोस्ट वांटेड करार सिमरत सिंह फ़िलहाल पुलिस की गिरफ़्त में है. सातवीं कक्षा में ही पढ़ाई छोड़ चुका सिमरत अंग्रेज़ी जानता है. हथियार चलाने और देसी बम को बनाने की ट्रेनिंग उसे झारखंड के जंगलों में मिली है. यमुना नगर के आसपास के इलाक़ों में कई लोगों को नक्सली विचारधारा और गतिविधियों से जोड़ने में सिमरत और प्रदीप कामयाब रहे थे.

इसे महज़ संयोग ही कहेंगे कि प्रदीप और सिमरत दोनों एक बार धरे गए थे. दोनों के पास से देसी हथियार मिले थे. लेकिन निचली अदालत ने दोनों को रिहा करने का आदेश दे दिया. रिहाई के बाद से ही पुलिस उन पर निग़ाह रख रही थी. दोनों ने क़रीब दस संगठनों की नींव रखी (देखें बॉक्स). जून 2009 में सिमरत फिर से गिरफ़्तार हो गया. सुरक्षा विशेषज्ञ साहनी के मुताबिक़, माओवादी अपना आधार बनाने के लिए किसी भी मौक़े का इस्तेमाल करने से नहीं चूकते. जाति का इस्तेमाल भी उन्होंने रणनीतिक तौर पर ही किया. छिपी गतिविधियों को अंजाम देने से पहले कई सालों तक सुनियोजित तरीक़े से वे लोगों के बीच काम करते रहे. शहरी भारत में नक्सली और माओवादियों के प्रभाव ब़ढाने की गुप्त योजना से वाक़ि़फ एक स्रोत ने अपनी पहचान छिपाने के अनुरोध पर इस संवाददाता से कहा कि माओवादियों की मंशा में बदलाव पिछले यूनिटी कांग्रेस के बाद से ही नज़र आने लगा था. आदिवासी इलाक़े तो परंपरागत तौर पर नक्सलियों के गढ़ रहे हैं, लेकिन इस सीमा से निकल कर अपने साम्राज्य को और ज़्यादा विस्तार देने के सपने को वे साकार करना चाहते थे. यूनिटी कांग्रेस में यह भी निर्णय लिया गया कि संघर्ष में वैसी शक्तियों के साथ जुड़ने की भी कोशिश की जाएगी, जो कम्युनिस्ट विचारधारा में विश्वास नहीं रखती हैं.

सूत्रों की मानें तो नक्सली शहर के आसपास के गांवों को ब़फर ज़ोन बनाने की कोशिश में थे, जहां रहकर शहरी जीवन को प्रभावित करने की मुहिम को अंजाम दिया जा सके. नक्सलियों ने यमुना नगर को अपना केंद्र क्यों बनाया, इसे समझ पाना कोई मुश्किल नहीं है. एक तो यह राष्ट्रीय राजमार्ग से कई किलोमीटर दूर है. चंडीग़ढ और देहरादून यहां से 70 किलोमीटर से भी कम दूरी पर हैं तथा राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली भी यहां से ज़्यादा दूर नहीं है. यमुना नगर में जंगल है और नदी का किनारा भी, जो नक्सलियों को पुलिसिया कार्रवाई से बचने के लिए छिपने की सुरक्षित जगह उपलब्ध कराता है. सूत्रों का कहना है कि नक्सलियों ने दिल्ली और मुंबई के आसपास के इलाक़ों के औद्योगिक क्षेत्र को अपना निशाना बनाने की योजना बना रखी है.

सीपीआई (माओवादी) के महासचिव गणपथि ने 2007 में एक साक्षात्कार दिया था, जिसे दल के प्रवक्ता आज़ाद ने जारी किया था. इस साक्षात्कार में शहरी भारत में नक्सलियों की योजना का संकेत दिया गया था. साक्षात्कार में कहा गया था कि यह सच है कि भारतीय मध्य वर्ग की संख्या में ब़ढोतरी हुई है, लेकिन साथ ही भारतीय मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा महंगाई, बेरोज़गारी और जीवन की असुरक्षा जैसी समस्याओं से जूझ रहा है.

शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन के मद में ख़र्च बढ़ गए हैं. कहने का मतलब यह है कि मध्य वर्ग की संख्या भले बढ़ी हो, परेशानियां बढ़ीं तो उनकी हताशा भी बढ़ी. छात्र, शिक्षक और सरकारी कर्मचारी तक अपनी मांग मनवाने के लिए सड़कों पर उतर आए. यहां तक कि शॉपिंग मॉल और खुदरा क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से आहत दुकानदारों ने भी आंदोलन की राह पकड़ी.

एक बात और भी ग़ौर करने वाली है. कल तक जो चीज़ें विलासिता की वस्तु समझी जाती थीं, आज वे जीवन की ज़रूरत बन गई हैं और बाज़ार में हर रोज़ उपभोक्ता वस्तुओं के नई आमद से लोगों के ज़रूरत की सूची दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है. लोगों में हताशा इसलिए भी बढ़ रही है, क्योंकि वे इन वस्तुओं को हासिल कर पाने में ख़ुद को असहाय पा रहे हैं. वजह, उनकी सारी आमदनी तो भोजन, आवास, वस्त्र आदि पर ही ख़र्च हो जाती है. भारत का मध्य वर्ग महंगाई, मंदी और बेरोज़गारी से सर्वाधिक प्रभावित हुआ है. इन बातों को ध्यान में रखते हुए हमारी पार्टी ऐसे मसलों पर मध्य वर्ग को संघर्ष के लिए तैयार करने की योजना बना रही है. गृह मंत्रालय के उच्च पदस्थ सूत्रों से मिले संकेत के मुताबिक़, शहरी भारत में नक्सलियों से मुक़ाबला करने की कोई सुनिश्चित योजना नहीं है. साहनी के मुताबिक़, गृह मंत्रालय के पास तो आदिवासी इलाक़ों में भी बचाव के उपाय की कोई कारगर योजना नहीं है. वह समझता है कि समस्याग्रस्त इलाक़ों में अर्द्धसैनिक बलों की बटालियन भेज देने भर से समस्या का हल निकल आएगा. आंदोलन के खड़ा होने में व़क्त लगा है तो इसे इस तरह से ख़त्म भी नहीं किया जा सकता है. मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा भी साहनी की बातों से सहमति जताते हैं. वह कहते हैं कि यह विध्वंसकारी है. सरकार के रवैये से पता चलता है कि वह लोगों के दुखदर्द से कितनी दूर हो चुकी है. यह सरकार ही है, जो कहती है कि पाकिस्तान के साथ युद्ध समस्या का समाधान नहीं है. लेकिन अपने ही नागरिकों के लिए जंग का ऐलान करने में वह बेशर्मी पर उतर आती है. जिन स्थानों को नक्सलियों का गढ़ माना जाता है, संयोगवश वहां बड़े उद्योगपतियों के कल कारखाने भी हैं. और, इन कल कारखानों का मतलब है खनिज और वन्य संसाधनों का भरपूर दोहन और लूट. इन समस्याओं का समाधान खोजने की जगह सरकार नक्सली हिंसा की आड़ में इन इलाक़ों में विरोध की आवाज़ को दबा कर उद्योगपतियों की परेशानी दूर करना चाहती है. यहां सवाल यह है कि नक्सलियों के नाम पर निरीह ग्रामीणों को तबाह करने के अलावा क्या सरकार के पास इस समस्या का कोई ठोस समाधान भी है? नक्सली समस्या जटिल ज़रूर है, लेकिन इसका समाधान असंभव नहीं है. बशर्ते सरकार की मंशा सा़फ और इरादे मज़बूत हों और उसमें नेकनीयती ज़रूर हो.

शिक्षा का निजीकरण

निजीकरण के खिलाफ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में छात्र आंदोलन

अनुराग शुक्ला
सुना है पूरब के आक्सफोर्ड के जन संचार विभाग के उन कुर्सियों पर बैठ कर पढने वाले स्टूडेंट शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी प्रशासन के खिलाफ लडाई लड रहें हैं जिन पर बैठ कर कभी हम पढा करते थे मेरठ में बैठ कर भी पोर्टल और ब्लाग पर पढा है कि केंद्रीय यूनिवर्सिटी बन जाने के बाद भी कोई प्राक्टर साहब स्टूडेंट को मुर्गा बना रहें हैं दोनों खबरें सुनी और एक स्वनाम धन्य तथाकथित अकादमिक रूप से दक्ष वीसी के वक्त में ऐसा हो रहा है अनुशासन के नाम पर तानाशाही की जा रही है और पढा लिखा वाइस चांसलर कह रहा है कि खबरनवीस की क्या हैसियत जो मुझसे बात करें सुना है और कभी कभी देखा भी है कि अकादमिक रूप से बेहद जानकार ये आदमी पूरे शहर का फीता काट सेलीब्रेटी बन चुका है अपने से सवाल पूछने से ये साहब इतने नाराज हुए कि जनसत्ता के संवदादाता राघवेंद्र के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी अब यूनिवर्सिटी में पच्चीस साल पुराने जन संचार विभाग होते हुए भी ये साहब जगह जगह यूनिवर्सिटी में अखबार के अखाडे बाज पैदा करने की दुकाने खुलवा रहे हैं
जन संचार विभाग में पढाने वाले सुनील उमराव ने जब शिक्षा की इस दुकानदारी के खिलाफ आवाज उठाई सैंकडो स्टूडेंटस ने कैम्पस में इस डिग्री खरीद प्रथा के खिलाफ झंडा बुलंद किया तो सुनील को नोटिस भेजी गई है कि आप अराजकता का माहौल फैला रहे हैं हम लोग भी राजीनीति विज्ञान के स्टूडेंट रहे हैं और अराजकता और तानाशाही का मतलब बखूबी समझते हैं प्लानिंग कमीशन की भी शोभा बढा चुके वाइस चांसलर साहब जो कुछ कर रहे हैं वो तानाशाही और अराजकता देानों पर फिट बैठता है रही अराजकता और सुनील उमराव की बात तो सुनील सर का स्टूडेंट रहा हूं सिर्फ मैं नहीं बल्कि मुझसे पहले और बाद में उनके स्टूडेंट रहे लोग अगर ईमानदारी से बोलेंगे तो हर कोई कहेगा कि सुनील सर कम से कम अराजक नहीं हो सकते और संस्थागत बदलावों में यकीन रखते हैं मीडिया के नाम पर खोली जा रही दुकानों में किसी फूं फां टाइप सेलीब्रटी को बुलवाकर फीताकाट जर्नलिज्म नहीं पढाते हैं कि आप ने साहब सबसे तेज चैनल पर बोलने वाली किसी खूबसूरत एंकर के दर्शन कर लिए और आप बन गए जर्नलिस्ट
खैर बात को अब शिक्षा के निजीकरण पर लौटना चाहिए यूनिवर्सिटी अब केंद्रीय हो चुकी है अब उसके पास केंद्र सरकार से मिलना वाला अकूत पैसा है तब यूनिवर्सिटी में अखबारनवीस पैदा करने वाले फ्रेंचाइजी खोलने की क्या जरूरत आन पडी है अगर ज्यादा व्यापक पैमाने पर बात की जाए तो प्रोफेशनल स्टीजड जैसे छलावे बंद किए जाएं और जनसंचार की पढाई को कम से अलग रूप में देखना ही पडेगा अगर मीडिया को चैथा खंभा कहना का नाटक अभी कुछ हद तक जारी है तो कम से कुछ ऐसे लोग हैं जो मीडिया की जन पक्षरधरता बरकरार रखने की लडाई लड रहे हैं ये लडाई सिर्फ सुनील उमराव की लडाई नहीं है आईआईएमसी से पढे राजीव और जनसंचार विभाग के स्टूडेंट रह चुके शहनवाज इस जनपक्षधरता की लडाई लड रहे हैं मुझे नहीं पता कि अपने अकादमिक जगत में मस्त वाइस चांसलर इनकी उपलब्ध्यिों को कितना जानते हैं लेकिन शहनवाज और राजीव ने आतंकवाद के मसले पर जितना बढिया काम किया है उसे अगर वीसी साहब जानते होंगे तो उन्हें जरूर गर्व होगा कि ये लोग कभी इस यूनिवर्सिटी से जुडे रहे हैं और आज भी यूनिवर्सिटी इनका कार्य स्थल है इनके काम से व्यक्तिगत रूप से वकिफ रहा हूं और दावे से कह सकता हूं कि ये उन्हीं संस्कारों की देन है जिनकी लडाई सुनील आज यूनिवर्सिटी में लड रहे हैं ये जन पक्षधरता और डेमोक्रेटिक वैल्यूज के संस्कार थे कि शहनवाज भाई ने एक प्राक्टर की गुंडागर्दी के खिलाफ उसके आॅफिस में घुसकर मुंह काला किया था ये शहनवाज के संस्कार थे कि गुंडागर्दी किसी प्राक्टर की ही क्यूं न हो बर्दाशत नहीं की जाएगी राजीव ने भी सरायमीर और आजमगढ की लडाई में कितने पापड बेले ये शायद विकास की टिकल डाउन थ्योरी में यकीन रखने वाला ब्यूरोक्रटिक किस्म का अकादमिक न समझ पाए लेकिन आप के न समझने से इनकी लडाई कमजोर नहंी पड सकती है हां अगर आप समझ जाए तो शायद दो चार लाख रूपए देकर डिग्री खरीदने वाले हम्टी डम्टी छाप स्टूडेंट के अलावा ऐस भी कुछ लोग पढाई लिखाई की दुनिया में कुछ कर सकते हैं जिनके बारे में अपना मोर्चा में काशीनाथ सिंह ने लिखा है मुझे पता है आप अंग्रेजी भाषी हैं और अपना मोर्चा नहीं पढा होगा आप कंपनी बाग के उन फूलों के बारे में नहंी जानेते होंगे जो ब्यूरोक्रसी के ढांचे में अपनी जगह बनाने के लिए इतने तंग कमरों में रहते हैं कि दोपहर की धूप में भी उन तक रोशनी नहीं पहुंचती है काश आप अगर उनके बारे में जानते होते तो दो दो चार लाख रूपए लेकर सपनों की बिक्री नहीं करते एजूकेशन हिंदुस्तान में इंस्पििरेशनल वैल्यू रखती है डिग्री बहुतों के लिए सपना ही है आप पढे लिखे समझदार आदमी हैं कम से कम डिग्रियों को कारोबार मत करिए दो चार लाख में डिग्री बेंचना उस जालसाजी से अलग नहीं है जिसमें नकली डिग्रियां बेंची जाती हैं मीडिया की पढाई बीटेक और मैनेजमेंट जैसी पढाई भी नहीं है अगर ये मान भी लिया जाए कि अखबार प्रोडक्ट है तो भी अखबार कम से कम ऐसे प्रोडक्ट है जिसकी कुछ सामाजिक जिम्मेदारयां हैं इसे अखबार मालिक, कलमनवीस से लेकर अखबारनवीस तैयार करने वालों, सबको समझना चाहिए आप अगर सेल्फ फाइनेंस के नाम पर पैसे देकर खबरनवीस तैयार करने के धंधे को बढावा दे रहे हैं तो आप जाने अनजाने या यूं कहिए कि जान बूझ कर उस परम्परा के भी पक्षधर बन रहे हैं जो पैसे लेकर खबरें छाप रहे हैं जो पैसे देकर खबरनवीस बन रहे हैं वे पैसे लेकर खबर छापेंगे ही पूंजी के संस्कार आखिरकार ऐसी ही दिशा में जाते हैं आज जिस विभाग के स्टूडेंट बहुत सालों बाद हक की लडाई के लिए सुनील सर के साथ सडकों पर उतरे हैं उसकी जय हो अनर्तमन के समर्थन के साथ.
पुरा छात्र पत्रकारिता व जनसंचार विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
( साथियों, आप भी इस आन्दोलन में कोई सहयोग या वैचारिक समर्थन देना चाहते हैं तो आपका स्वागत है। आपके समर्थन से इस आन्दोलन में नया उत्साह आएगा. अपने विचार हम तक पहुँचने के लिए आप टिप्पणी बाक्स में अपनी टिप्पणी दर्ज करें) और जानकारी के लिए देखें http://naipirhi.blogspot.com

चार्ली चैप्लिन

आइये- दुनिया को आज़ाद कराने के लिये लडें


डिक्टेटर का समापन भाषण
चार्ली चैप्लिन
चार्ली चैप्लिन ने लोगों को ऎसे दौर में हसना सिखाया जब दुनिया विश्वयुद्ध और फासीवाद के दौर में जी रही थी. द ग्रेट डिक्टेटर फिल्म १९४० में बनी जिसमे चर्ली चैप्लिन ने हिटलर की भूमिका निभाते हुए एक भाषण दिया था. वह भाषण ऎसा लगता है मानों तब से दुनिया ठहरी हुई हो, बस चार्ली चैप्लिन हमारे बीच से गायब हो गये हों.

मुझे खेद है लेकिन मैं शासक नहीं बनना चाहता. ये मेरा काम नहीं है. किसी पर भी राज करना या किसी को भी जीतना नहीं चाहता. मैं तो किसी की मदद करना चाहूंगा- अगर हो सके तो- यहूदियों की, गैर यहूदियों की- काले लोगों की- गोरे लोगों की.
हम सब लोग एक दूसरे लोगों की मदद करना चाहते हैं. मानव होते ही ऎसे हैं. हम एक दूसरे की खुशी के साथ जीना चाहते हैं- एक दूसरे की तकलीफों के साथ नहीं. हम एक दूसरे से नफ़रत और घृणा नहीं करना चाहते. इस संसार में सभी के लिये स्थान है और हमारी यह समृद्ध धरती सभी के लिये अन्न-जल जुटा सकती है.
जीवन का रास्ता मुक्त और सुन्दर हो सकता है, लेकिन हम रास्ता भटक गये हैं. लालच ने आदमी की आत्मा को विषाक्त कर दिया है- दुनिया में नफ़रत की दीवारें खडी कर दी हैं- लालच ने हमे ज़हालत में, खून खराबे के फंदे में फसा दिया है. हमने गति का विकास कर लिया लेकिन अपने आपको गति में ही बंद कर दिया है. हमने मशीने बनायी, मशीनों ने हमे बहुत कुछ दिया लेकिन हमारी माँगें और बढ़ती चली गयीं. हमारे ज्ञान ने हमें सनकी बना छोडा है; हमारी चतुराई ने हमे कठोर और बेरहम बना दिया. हम बहुत ज्यादा सोचते हैं और बहुत कम महसूस करते हैं. हमे बहुत अधिक मशीनरी की तुलना में मानवीयता की ज्यादा जरूरत है, इन गुणों के बिना जीवन हिंसक हो जायेगा.
हवाई जहाज और रेडियो हमें आपस में एक दूसरे के निकट लाये हैं. इन्हीं चीजों की प्रकृति आज चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है- इन्सान में अच्छई हो- चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है- पूरी दुनिया में भाईचारा हो, हम सबमे एकता हो. यहाँ तक कि इस समय भी मेरी आवाज़ पूरी दुनिया में लाखों करोणों लोगों तक पहुँच रही है- लाखों करोडों हताश पुरुष, स्त्रियाँ, और छोटे-छोटे बच्चे- उस तंत्र के शिकार लोग, जो आदमी को क्रूर और अत्याचारी बना देता है और निर्दोष इंसानों को सींखचों के पीछे डाल देता है; जिन लोगों तक मेरी आवाज़ पहुँच रही है- मैं उनसे कहता हूँ- “निराश हों’. जो मुसीबत हम पर पडी है, वह कुछ नहीं, लालच का गुज़र जाने वाला दौर है. इंसान की नफ़रत हमेशा नहीं रहेगी, तानाशाह मौत के हवाले होंगे और जो ताकत उन्होंने जनता से हथियायी है, जनता के पास वापिस पहुँच जायेगी और जब तक इंसान मरते रहेंगे, स्वतंत्रता कभी खत्म नहीं होगी.
सिपाहियों! अपने आपको इन वहशियों के हाथों में पड़ने दो- ये आपसे घृणा करते हैं- आपको गुलाम बनाते हैं- जो आपकी जिंदगी के फैसले करते हैं- आपको बताते हैं कि आपको क्या करना चाहिये, क्या सोचना चाहिये और क्या महसूस करना चाहिये! जो आपसे मसक्कत करवाते हैं- आपको भूखा रखते हैं- आपके साथ मवेसियों का सा बरताव करते हैं और आपको तोपों के चारे की तरह इश्तेमाल करते हैं- अपने आपको इन अप्राकृतिक मनुष्यों, मशीनी मानवों के हाथों गुलाम मत बनने दो, जिनके दिमाग मशीनी हैं और जिनके दिल मशीनी हैं! आप मशीनें नहीं हैं! आप इंसान हैं! आपके दिल में मानवाता के प्यार का सगर हिलोरें ले रहा है. घृणा मत करो! सिर्फ़ वही घृणा करते हैं जिन्हें प्यार नहीं मिलता- प्यार पाने वाले और अप्राकृतिक!!
सिपाहियों! गुलामी के लिये मत लडो! आज़ादी के लिये लडो! सेंट ल्यूक के सत्रहवें अध्याय में यह लिखा है कि ईश्वर का साम्राज्य मनुष्य के भीतर होता है- सिर्फ़ एक आदमी के भीतर नहीं, नही आदमियों के किसी समूह में ही अपितु सभी मनुष्यों में ईश्वर वास करता है! आप में! आप में, आप सब व्यक्तियों के पास ताकत है- मशीने बनाने की ताकत. खुशियाँ पैदा करने की ताकत! आप, आप लोगों में इस जीवन को शानदार रोमांचक गतिविधि में बदलने की ताकत है. तो- लोकतंत्र के नाम पर- आइये, हम ताकत का इस्तेमाल करें- आइये, हम सब एक हो जायें. आइये हम सब एक नयी दुनिया के लिये संघर्ष करें. एक ऎसी बेहतरीन दुनिया, जहाँ सभी व्यक्तियों को काम करने का मौका मिलेगा. इस नयी दुनिया में युवा वर्ग को भविष्य और वृद्धों को सुरक्षा मिलेगी.
इन्हीं चीजों का वायदा करके वहशियों ने ताकत हथिया ली है. लेकिन वे झूठ बोलते हैं! वे उस वायदे को पूरा नहीं करते. वे कभी करेंगे भी नहीं! तानाशाह अपने आपको आज़ाद कर लेते हैं लेकिन लोगों को गुलाम बना देते हैं. आइये- दुनिया को आज़ाद कराने के लिये लडें- राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़ डालें- लालच को ख़्त्म कर डालें, नफ़रत को दफन करें और असहनशक्ति को कुचल दें. आइये हम तर्क की दुनिया के लिये संघर्ष करें- एक ऎसी दुनिया के लिये, जहाँ पर विज्ञान और प्रगति इन सबको खुशियों की तरफ ले जायेगी, लोकतंत्र के नाम पर आइए, हम एकजुट हो जायें!
हान्नाह! क्या आप मुझे सुन रही हैं?
आप जहाँ कहीं भी हैं, मेरी तरफ देखें! देखें, हन्नाह! बादल बढ़ रहे हैं! उनमे सूर्य झाँक रहा है! हम इस अंधेरे में से निकल कर प्रकाश की ओर बढ़ रहे हैं! हम एक नयी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं- अधिक दयालु दुनिया, जहाँ आदमी अपनी लालच से ऊपर उठ जायेगा, अपनी नफ़रत और अपनी पाशविकता को त्याग देगा. देखो हन्नाह! मनुष्य की आत्मा को पंख दे दिये गये हैं और अंततः ऎसा समय ही गया है जब वह आकाश में उड़ना शुरु कर रहा है. वह इंद्रधनुष में उड़ने जा रहा है. वह आशा के आलोक में उड़ रहा है. देखो हन्नाह! देखो!’

नक्सलवाड़ी

साहित्य का एक चमकता हुआ सितारा जिसका नाम धूमिल है पर वह धूमिल नहीं है उसकी कवितायें जो आज भी प्रासंगिक है उसी तरह जैसे नक्सलवाड़ी, जब तक इस दुनिया में भूख रहेगी,जब तक असमानता रहेगी, तब तक धूमिल जिंदा रहेंगे, तो क्या धूमिल की प्रासंगिकता बनी रहनी चाहिये? या धूमिल की कविताओं को अप्रासंगिक बनाया जाय?

सहमति...
नहीं यह समकालीन शब्द नहीं है
इसे बालिगों के बीच चालू मत करो
जंगल से जिरह करने के बाद
उसके साथियों ने उसे समझाया कि भूख
का इलाज सिर्फ नींद के पास है!
मगर इस बात से वह सहमत नहीं था
बिरोध के लिये सही शब्द पटोलते हुए
उसनें पाया कि वह अपनी जुबान
सहुवाइन की जा़घ पर भूल आया है
फिर भी हकलाते हुए उसने कहा-
मुझे अपनी कविताओं के लिये
दूसरे प्रजातंत्र की तलाश है
सहसा तुम कहोगे और फिर एक दिन-
पेट के इसारे पर
प्रजातंत्र से बहर आकर
वाजिब गुस्से के साथ अपनें चेहरे से
कूदोगे
और अपने ही घूँसे पर
गिर पड़ोगे|
क्या मैनें गलत कहा? अखिरकार
इस खाली पेट के सिवा
तुम्हारे पास वह कौन सी सुरक्षित
जगह है,जहाँ खड़े होकर
तुम अपने दाहिने हाँथ की
शाजिस के खिलाफ लड़ोगे?
यह एक खुला हुआ सच है कि आदमी-
दांये हांथ की नैतिकता से
इस कदर मजबूर होता है
कि तमाम उम्र गुज़र जाती है मगर गाँड़
सिर्फ बांया हाथ धोता है
और अब तो हवा भी बुझ चुकी है
और सारे इश्तिहार उतार लिये गये है
जिनमें कल आदमी-
अकाल था! वक्त के
फा़लतू हिस्सों में
छोड़ी गयी फा़लतू कहांनियाँ
देश प्रेम के हिज्जे भूल चुकी है
और वह सड़क
समझौता बन गयी है
जिस पर खड़े होकर
कल तुमने संसद को
बाहर आने के लिये आवाज़ दी थी
नहीं,अब वहाँ कोई नहीं है
मतलब की इबारत से होकर
सब के सब व्यवस्था के पक्ष में
चले गये है|लेखपाल की
भाषा के लंबे सुनसान में
जहाँ पालों और बंजरों का फर्क
मिट चुका है चंद खेत
हथकड़ी पहनें खड़े है|

और विपक्ष में-
सिर्फ कविता है|
सिर्फ हज्जाम की खुली हुई किस्मत में एक उस्तूरा- चमक रहा है
सिर्फ भंगी का एक झाड़ू हिल रहा है
नागरिकता का हक हलाल करती हुई
गंदगी के खिलाफ

और तुम हो, विपक्ष में
बेकारी और नीद से परेशान!

और एक जंगल है-
मतदान के बाद खून में अंधेरा
पछीटता हुआ
(जंगल मुखबिर है)
उसकी आंखों में
चमकता हुआ भाईचारा
किसी भी रोज तुम्हारे चेहरे की हरियाली को बेमुरव्वत चाट सकता है

खबरदार!
उसनें तुम्हारे परिवार को
नफ़रत के उस मुकाम पर ला खड़ा किया है
कि कल तुम्हारा सबसे छोटा लड़का भी
तुम्हारे पड़ोसी का गला
अचानक
अपनीं स्लेट से काट सकता है|
क्या मैनें गलत कहा?
आखिरकार..... आखिरकार....

23 मार्च पर विशेष : भगत सिंह का शहादत दिवस

घर को अलविदा : पिता जी के नाम पत्र:-

( सन् 1923 में भगतसिंह, नेशनल कालेज, लाहौर के विद्यार्थी थे। जन-जागरण के लिए ड्रामा-क्लब में भी भाग लेते थे। क्रान्तिकारी अध्यापकों और साथियों से नाता जुड़ गया था। भारत को आजादी कैसे मिले, इस बारे में लम्बा-चौड़ा अध्ययन और बहसें जारी थीं।
घर में दादी जी ने अपने पोते की शादी की बात चलायी। उनके सामने अपना तर्क न चलते देख पिता जी के नाम यह पत्र लिख छोड़ा और कानपुर में गणेशशंकर विद्यार्थी के पास पहु¡चकर `प्रताप´ में काम शुरू कर दिया। वहीं बी.के. दत्त, िशव वर्मा, विजयकुमार सिन्हा-जैसे क्रान्तिकारी साथियों से मुलाकात हुई। उनका कानपुर पहु¡चना क्रान्ति के रास्ते पर एक बड़ा कदम बना। पिता जी के नाम लिखा गया भगतसिंह का यह पत्र घर छोड़ने सम्बन्धी उनके विचारों को सामने लाता है।


पूज्य पिता जी,
नमस्ते।
मेरी जिन्दगी मकसदे आला यानी आजादी-ए-हिन्द के असूल के लिए वक्फ हो चुकी है। इसलिए मेरी जिन्दगी में आराम और दुनियावी खाहशात बायसे किशश नहीं है।
आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था, तो बापू जी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि मुझे खिदमते वतन के लिए वक्फ कर दिया गया है। लिहाजा मैं उस वक्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हू¡।

आपका ताबेदार
भगतसिंह



कुलतार के नाम अन्तिम पत्र:-

सेण्ट्रल जेल,
3 मार्च,1931


प्यारे कुलतार,
आज तुम्हारी आ¡खों में आ¡सू देखकर बहुत दुख पहु¡चा। आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था। तुम्हारे आ¡सू मुझसे सहन नहीं होते। बरखुरदार, हिम्मत से विद्या प्राप्त करना और स्वास्थ्य का ध्यान रखना। हौसला रखना, और क्या कहू¡-



उसे यह फिक्र है हरदम नया तर्जे-जफ़ा क्या है,
हमें यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है।

दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख़ का क्यों गिला करें,
सारा जहा¡ अदू सही, आओ मुक़ाबला करें।

कोई दम का मेहमा¡ हू¡ ऐ अहले-महिफ़ल,
चराग़े- सहर हू¡ बुझा चाहता हू¡।

हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली,
ये मुश्ते-ख़ाक है फानी, रहे रहे न रहे।

अच्छा रूख़सत। खुश रहो अहले-वतन, हम तो स़फर करते हैं। हिम्मत से रहना।
नमस्ते।
तुम्हारा भाई,
भगतसिंह



बलिदान से पहले साथियों को अन्तिम पत्र:-
22मार्च,1931

साथियों,
स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। लेकिन मैं एक शर्त पर जिन्दा रह सकता हू¡, कि मैं कैद होकर या पाबन्द होकर जीना नहीं चाहता।
मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रान्ति का प्रतीक बन चुका है और क्रान्तिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है- इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज नहीं हो सकता।
आज मेरी कमजोरिया¡ जनता के सामने नहीं है। अगर मैं फा¡सी से बच गया तो वे जाहिर हो जायेंगी और क्रान्ति का प्रतीक-चिन्ह मिद्धम पड़ जायेगा या सम्भवत: मिट ही जाये। लेकिन दिलेराना ढंग से हसते-हसते मेरे फासी चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताए¡ अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जायेगी कि क्रान्ति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।
हा¡, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवा¡ भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतन्त्र, जिन्दा रह सकता तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता।
इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फा¡सी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अन्तिम परीक्षा का इन्तजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाये।
आपका साथी,
भगतसिंह



असेम्बली बम काण्ड:-


असेम्बली हॉल में फेंका गया पर्चा
(8 अप्रैल,सन् 1929 को असेम्बली में बम फेंकने के बाद भगतसिंह और दत्त द्वारा बाटें गये अंग्रजी पर्चे का हिन्दी अनुवाद)

`हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातािन्त्रक सेना´
सूचना


``बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊ¡ची आवाज की आवश्यकता होती है´´ प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलिया¡ के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।
पिछले दस वषोंZ में ब्रिटिश सरकार ने शासन-सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है उसकी कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं और न ही हिन्दुस्तानी पार्लियामेण्ट पुकारी जानेवाली इस सभा ने भारतीय राष्ट्र के सिर पर पत्थर फेंककर उसका जो अपमान किया है, उसके उदाहरणों को याद दिलाने की आवश्यकता है। यह सब सर्वविदित और स्पष्ट है। आज फिर जब लोग `साइमन कमीशन´ से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आखें फैलाये हैं और इन टुकड़ों के लोभ में आपस में झगड़ रहे हैं, विदेशी सरकार `सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक´ (पब्लिक सेटी बिल) और `औद्योगिक विवाद विधेयक´ (ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यत्न कर रही है। इसके साथ ही आनेवाले अधिवेशन में `अखबारों द्धारा राजद्रोह रोकने का कानून´ (प्रेस सैडिशन एक्ट) जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करनेवाले मजदूर नेताअो की अन्धाधुन्ध गिरतारिया¡ यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैये पर चल रही है।
राष्ट्रीय दमन और अपमान की इस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में अपने उत्तरदायित्व की गम्भीरता को महसूस कर `हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र संघ´ ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है। इस कार्य का प्रयोजन है कि कानून का यह अपमानजनक प्रहसन समाप्त कर दिया जाये। विदेशी शोषक नौकरशाही जो चाहे करे परन्तु उसकी वैधनिकता की नकाब फाड़ देना आवश्यक है।
जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेण्ट के पाखण्ड को छोड़ कर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जायें और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरूद्ध क्रान्ति के लिए तैयार करें। हम विदेशी सरकार को यह बतला देना चाहते हैं कि हम
`सार्वजनिक सुरक्षा´ और `औद्योगिक विवाद´ के दमनकारी कानूनों और लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं।
हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शान्ति और स्वतन्त्रता का अवसर मिल सके। हम इन्सान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परन्तु क्रान्ति द्वारा सबको समान स्वतन्त्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रन्ति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है।
इन्कलाब जिन्दाबाद! कमाण्डर इन चीफ बलराज


भगत सिंह के विचारों की बढ़ती प्रासंगिकता और आम आदमी का आज के समय में अलग-अलग मुद्दे पर संघर्ष आज उनके विचारों को और ज्यादा प्रासंगिक बना देता है ऐसी स्थिति मे हम दख़ल में भगत सिंह के दस्तावेजों की श्रिंखला की पहली कड़ी मे ये आलेख प्रस्तुत कर रहे है

दुनिया के सामने भगत सिंह का जो चेहरा जाने-अनजाने में रखा गया है वह किसी जुनूनी व मतवाले देश भक्त का है। भगत सिंह के विचार, उनके दर्शन को लोगों से दूर रखा गया पर वक्त ने देश को उस मुकाम पर ला खड़ा किया है जहॉ भगत सिंह के विचार और प्रासंगिक होते दिख रहे है। जिस आम जन की बात भगत सिंह करते थे वह मंहगाई, गरीबी, भूख से पीड़ीत होकर अपने को हाशिये पर महसूस कर रहा है। वह देश में बनाये गये कानूनों , नियमों, की पक्षधरता को देखते हुए उनके प्रतिरोध में खड़ा हो रहा है।
देश को अग्रेजी सत्ता से मुक्त होनें के साठ साल बाद भी देश का आम जन उस आजादी को नहीं महसूस कर पर रहा है। जो भगत सिंह, पेरियार, अम्बेडकर का सपना था। आज वे स्थितियां जिनका भगत सिंह ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय आंकलन किया था लोगों के सामने हैं। आंदोलन के चरित्र को देखते हुए भगत सिंह ने कहा था कि काग्रेस के नेतृत्व में जो आजादी लड़ी जा रही है उसका लक्ष्य व्यापक जन का इस्तेमाल करके देशी धनिक वर्ग के लिये सत्ता हासिल करना है। यही कारण था कि देश का धनिक वर्ग गांधी के साथ था। उसे पता था कि जब तक देश को अंग्रजी सत्ता से मुक्ति नहीं मिलेगी तब तक बाजार में उनके सिक्के जम नहीं सकेगें। आखिरकार हुआ भी वही जिसे भगत सिंह गोरे अंग्रजों से मुक्ति व काले अंग्रजों के शासन की बात करते थे। आज आम आदमी इस शासन तल में अपनी भागीदादी महसूस नहीं कर रहा है। उसके लिये आज भी अंग्रजों के द्वारा दमन के लिये बनें नियम-कानून नाम बदलकर या उसी स्थिति में लागू किये जा रहे हैं। आजादी के साठ वर्ष बाद सरकारे आफ्सा, पोटा, राज्य जन सुरक्षा अधिनियम जैसे दमन कानूनों की जरूरत पड़ रही है क्योंकि जन प्रतिरोध का उभार लगातार बढ़ रहा है।
आजादी के बाद कई मामलों में स्थितियां ओर भी विद्रूप हुई है। जहॉ सन् 42 में केरल के वायनाड जिले में इक्का-दुक्का किसानों की मौतें होती थी वहॉ आज स्थिति ये है कि देश के विभिन्न राज्यों में हजारों हजार की संख्या में किसान आत्महत्यायें कर रहे है। आज भी देश में काला हांडी जैसी जगह है बल्कि काला हांडी से एक कदम ऊपर देश की एक बड़ी आबादी है। जो जीवन की मूलभूत जरूरतों से जुझ रही है। जो इसलिये भी जिन्दा रखी गयी है ताकि अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिये वह सस्ते में श्रम को बेंच सके। इसके बावजूद भी आज एक बड़े युवा वर्ग के लिये करने को काम नहीं है। कारणवस वह किसी भी तरह का अपराध करनें को तैयार है। भारत एक बड़ी युवा संख्या की विकल्पहीन दुनियां है। ऐसी स्थिति में यह बात सच साबित होती है कि भगत सिंह जिस आजादी की तीमारदारी करते थे वह आजादी देश को नही मिल पायी है।
भगत सिंह देश, दुनिया को लेकर एक मुकम्मल समाज बनानें का सपना देखते थे जिसमें वे अन्तिम आदमी को आगे नहीं लाना चाहते थे बल्कि सबको बराबरी पर लाना चाहते थे। जहॉ जाति, धर्म भाषा के आधार पर समाज का विभाजन न हों। वे शोषण व लूट खसोट पर टिके समाज को खत्म करना चाहते थे, वे किसी प्रकार के भेदभाव को खारिज करते थे। उनका मानना था कि दुनियां में अधिकांश बुराइयों की जड़ निजी सम्पत्ति है। इस सम्पत्ति को शोषण व भ्रष्टाचार के जरिये जुटाया जाता है जिसके सुरक्षा के लिये शासन की जरूरत पड़ती है यानि निजी संम्पत्ति के ही कारण समाज में शासन की जरूरत पड़ती है।
एक लम्बे अर्से तक भगत सिंह को आतंकी की नजर से देखा जाता रहा जिसको भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ विचार-विर्मश करते हुए कहा कि मैं आतंकी नहीं हूं। आंतकी वे होते है जिनके पास समस्या के समाधान की क्रांतिकारी चेतना नही होती। हमारे भीतर क्रांतिकारी चिंतन के पकड़ के आभाव की अभिव्यक्ति ही आतंकवाद है पर क्रांतिकारी चेतना को हिंसा से कतई नही जोड़ा जाना चाहिये, हिंसा का प्रयोग विशेष परिस्थिति में ही करना जायज है वर्ना किसी जन आंदोलन का मुख्य-हथियार अहिंसा ही होनी चाहिये। हिंसा-अहिंसा से किसी व्यक्ति को आंतकी नही माना जा सकता। हमें उसकी नीयति को पहचानना होगा क्योंकि यदि रावण का सीता हरण आतंक था तो क्या राम का रावण वध भी आतंक माना जाय। अपने अल्प कालिक जीवन के दौरान भगत सिंह ने कई विषयों पर लिखा, पढ़ा व सोचा समझा, और यह कहते गये कि-
हवा में रहेगी, मेरे ख्याल की बिजली।
ये मुस्ते खाक है फानी रहे, रहे न रहे।।

image विधायक का पत्र

13 वर्षीय दलित से गैंगरेप के 11 साल बाद


इन दिनों रूचिका गिरहोत्रा की दुखद दास्तान से पूरे देश के लोग सकते में हैं और सरकार के कान कुछ खड़े हुए हैं; ऐसे में आइए एक दशक पुरानी उस दास्तान से भी धूल की परतें हटा लेते हैं जिसमें धूलेटी त्यौहार की रात को 13 साल की दलित लड़की के साथ, स्थानीय विधायक के रिश्तेदार और उसके साथी ने बलात्कार किया था।

11 सालों बाद, आज भी यह केस जहां से शुरू हुआ था वहीं अटका पड़ा है- यानि जब वह लड़की नाबालिग थी तो दबंगों ने अपना दम भरते हुए धरदबोचा था। तथ्यों के हिसाब से साफ होता है कि पुलिस ने किस तरह से पूरे मामले को अनदेखा किया था। हालांकि मामला अदालत भी पहुंचा, जो दशक भर से अपनी स्थिर अवस्था में विद्यमान है। अवस्था की स्थिरता को जानने के लिए यही तथ्य काफी है कि 4000 दिनों के गुजरने के बावजूद गवाहों को सम्मन भेजे जाने अभी बाकी हैं। जबकि अदालती लड़ाई में लड़की के दादा अपने हिस्से की ज्यादातर जमीन बेच चुके हैं। जबकि लड़की अब 24 साल की हो चुकी है और उसकी शादी के बाद दो बच्चे भी हैं।

11 साल पहले, विधायक खुमानसिंह चौहान ने कथित तौर पर उस रिश्तेदार को बचाने के लिए पुलिस सब-इंस्पेक्टर को अपने अधिकारिक लेटरहेड पर हाथ से लिखी हुई एक चिट्ठी भेजी थी। खुमानसिंह चौहान सावली विधानसभा क्षेत्र से लगातार कांग्रेस के विधायक रहे हैं। 13 मार्च, 1998 को रमेश बारिया और उसके साथी ने कथित तौर पर मोक्षी गांव की दलित लड़की को उसके घर से अगवा किया और फिर बारी-बारी से बलात्कार किया। अगली सुबह यह दोनों खून से लथपथ उस लड़की को पोण्ड गांव में ही छोड़कर भाग निकल थे। यह लड़की अपने मां-बाप के अलग-अलग हो जाने के बाद से दादा वशराम वंकर के साथ रहती थी। वारदात वाले दिन दादा के बाहर जाने की वजह से यह लड़की घर में अकेली थी। लड़की के दादा वशराम वंकर ने बताया कि ‘‘जैसे ही मालूम चला, हम उसे पास की पुलिस चौकी ले गए। वहां के पुलिस वालों ने हमसे कहा कि उसे भदरवा पुलिस स्टेशन ले जाओ। जब हम भदरवा पुलिस स्टेशन ले गए तो वहां केस दर्ज करने से मना कर दिया गया। कहा गया कि उसे मेडीकल जांच के वास्ते अस्पताल ले जाओ।’’vishesh01.jpg

एसएसजी अस्पताल के डाक्टर पहले तो यह सोचने लगे कि गहरे सदमे में डूबी यह कौन लड़की है, यहां से उसे मानसिक उपचार के लिए वडोदरा अस्पताल में रेफर किया गया। मगर जब वडोदरा अस्पताल के डाक्टरों को लगा कि इस लड़की के साथ बलात्कार हुआ है तो उसे वापस भेज दिया गया। इसके बाद मेडीकल जांच पड़ताल में उसके साथ बलात्कार होने की पुष्टि हुई। इसकी शिकायत चार दिनों बाद पुलिस स्टेशन में दर्ज हो सकी। वशराम वंकर ने बताया कि ‘‘जब पुलिस वाले लीपापोथी करने लगे तो हम वड़ोदरा जाकर पुलिस अधीक्षक साब से भी मिले, पर साब ने उल्टा यह ईल्जाम लगा दिया कि हम पैसा वसूलने के लिए ऐसा रहे हैं।’’ वशराम वंकर की लड़ाई को गैर सरकारी संस्था ‘कांउसिल फार सोशल जस्टिस’ की तरफ से गुजरात हाई कोर्ट तक ले जाया गया। इसके पहले तक पुलिस वालों का रूख बहुत सख्त और गैर जिम्मेदाराना ही रहा। लड़की के परिवार वालों का मानना है कि 14 मार्च, 1998 को विधायक के लेटरहेड पर हाथ से लिखी गई उस चिट्ठी का यह असर हुआ कि बदरवा पुलिस स्टेशन में बलात्कार का मामला दर्ज नहीं किया गया।

देखा जाए तो उस लेटरहेड पर विधायक खुमानसिंह चौहान के दस्तखत भी हैं। वैसे खुद चौहान का यह दावा है कि उनके लेटरहेड का किसी ने ‘गलत इस्तेमाल’ किया है और वह किसी रमेश बरिया नाम के आदमी के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं। खुमानसिंह चौहान के मुताबिक ‘‘मैं नियमित रुप से कई सिफारिश पत्रों को लिखता रहता हूं, मगर ऐसे किसी सिफारिश पत्र के बारे में मुझे तो याद नहीं आ रहा है।’’ उन्होंने आगे कहा कि ‘‘ऐसा मैं कभी नहीं कर सकता, बलात्कार जैसे गंभीर मुद्दे पर तो बिल्कुल भी नहीं।’’ दूसरी तरफ ‘कांउसिल फार सोशल जस्टिस’ के सचिव वालजी भाई पटेल के मुताबिक ‘‘चौहान साब सच नहीं कह रहे हैं, रमेश बरिया उनके खास रिश्तेदार हैं, उनके मां के पक्ष से।’’ इस केस के संबंध में वालजी भाई पटेल ‘सोऊ मोटू कांग्निसेंस (स्वतः संज्ञान)’ लिए जाने के पक्ष में हैं। जिससे मामले को और लंबा खींचने की बजाय तुरंत न्याय मिल सके।

पड़ताल से जान पड़ता है कि इस केस में पुलिस ही पहली बाधा बनी। उसने हर स्तर पर लापरवाही और उदासीनता बरती थी :

> पुलिस ने एक महीने की देरी से 25 अप्रेल, 1998 को सेशन कोर्ट के सामने चार्टशीट दाखिल की। इसमें रमेश बरिया और उसके साथी को आरोपी बनाया गया था।
> एक साल बाद, 14 अप्रेल, 1999 को एडिशनल सेशन जज ने कहा कि यह केस सेशन कोर्ट की बजाय लोक अदालत में जाना चाहिए। यह नाबालिग लड़की से सामूहिक बलात्कार का मामला है और इसमें दोनों पक्षों के बीच ‘समझौता’ होने की गुजांइश भी है। मगर लड़की के परिवार वालों ने समझौता करने से साफ मना कर दिया।
> आठ साल गुजरने के बाद, 30 मई, 2007 को, मुकदमा खत्म होने से पहले, कोर्ट को यह एहसास हुआ कि इस केस की सुनवाई के दौरान अपनाई गयी कार्यप्रणाली सही नहीं थी। इसमें पुलिस ने सीधे सेशन जज को ही चाटशीट दे दी थी। कायदे से उसे यह चार्टशीट ज्यूडीशियल फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट को सौंपनी चाहिए थी। इस केस के सारे दस्तावेज इंवेस्टीगेटिंग आफीसर को वापिस दिये गए। उससे कहा गया कि यह सारे दस्तावेज ज्यूडीशियल फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट तक पहुंचाए जाए।
> पुलिस ने 5 महीने का वक्त गुजारने के बाद, 9 अक्टूबर, 2007 को यह केस मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया।
> अब जो स्थिति है उसके मद्देनजर सेशन कोर्ट को और सुनवाई करनी पड़ेगी। इस केस की सुनवाई की अगली तारीख 23 जनवरी, 2010 है।

गुजरात हाई कोर्ट के भूतपूर्व जज जस्टिस एस एम सोनी के मुताबिक ‘‘यह एक बहुत गंभीर मामला है जिसे लोक अदालत में नहीं भेजा जाना चाहिए। यह सेशन कोर्ट कि गलती है कि उसने इस मामले को लोक अदालत में भेजे जाने की बात कही थी। साथ ही इस मामले से जुड़े सारे दस्तावेजों को इंवेस्टीगेटिंग आफीसर को नहीं लौटाए जाने चाहिए थे।’’

‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ के ‘विकास सहयोग’ विभाग की गुजरात टीम में मैनेजर प्रवीण सिंह के मुताबिक ‘‘यह तो प्रकाश में आने वाला एक मामला है। बहुत सारे मामले तो प्रकाश में ही नहीं आते। इसलिए हम वालजी भाई पटेल जैसे सामाजिक कार्यकताओं के अलावा बहुत सी संस्थाओं के साथ मिलकर ऐसी वारदातों के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। हम चाहते हैं कि न केवल दोषियों बल्कि ऐसे मामलों में लापरवाही करने वाले सभी अधिकारियों जैसे इंवेस्टीगेटिंग आफीसर, कोर्ट रजिस्टार्ड, चीफ पब्लिक प्रोस्टिक्यूटर और स्पेशल ट्रायल जज के खिलाफ भी कार्रवाई की जाए। जिससे ऐसे मामले हतोत्साहित हों।’’

लड़की के दादा वशराम वंकर की उम्र अब 70 को पार का चुकी है; उनके साथ इस अदालती लड़ाई में लड़की के मामा सुरेश वंकर भी भागीदार हैं। सुरेश वंकर कहते हैं ‘‘अभियुक्त के रिश्तेदारों ने हमें 50,000 रूपए देने की पेशकश की थी..... जिसे हमने ठुकरा दिया है।’....‘‘काश कोई हमारे दर्द को समझ सकता।’’ दादा वंशराम वंकर एक बात और जोड़ते हुए कहते हैं ‘‘हमारे हिस्से में इतनी राहत तो है कि बच्ची को बहुत प्यार देने वाला पति और ससुराल मिला है। ससुराल वालों को बच्ची के बार-बार अदालत आने-जाने पर भी कोई ऐतराज नहीं है।’’

चौथी दुनियां अखबार के सम्‍पादक पर राज्य सभा का विशेषाधिकार हनन का नोटिस


chothi duniya


साप्ताहिक अखबार ‘चौथी दुनिया’ और इसके संपादक संतोष भारतीय पर राज्यसभा सदस्यों के सँज्ञान पर राज्य सभा ने विशेषाधिकार हनन का नोटिस भेजा है. नोटिस देने वाले सांसदों और उनकी पार्टी के नाम हैं- अली अनवर (जद-यू), अजीज़ पाशा (सीपीआई), राजनीति प्रसाद (आरजेडी) और साबिर अली (लोकजनशक्ति पार्टी). इन सांसदों ने यह नोटिस उप-राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति हामिद अली अंसारी को दी है. नोटिस को संज्ञान लेते हुए उप-राष्ट्रपति ने इन सासंदों को विश्वास दिलाया है कि ‘चौथी दुनिया’ और इसके संपादक के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई की जाएगी.

ज्ञात हो कि ‘चौथी दुनिया’ के 7-13 दिसंबर 2009 के अंक में इस हिंदी साप्ताहिक के प्रधान संपादक संतोष भारतीय ने जो कवर स्टोरी लिखी है, उसका शीर्षक है- ‘रंगनाथ कमीशन : रिपोर्ट पेश न होना राज्यसभा का अपमान‘. इसे पढ़ने के बाद राज्यसभा के सासंदों को लगा कि ‘चौथी दुनिया’ और इसके संपादक ने राज्यसभा और उसके सदस्यों का घोर अपमान किया है.

हमें यह भी समझना होगा कि मनमोहन सिहं इस दलील को मानने वालों मे से हैं कि देश के संसाधनों पर समाज के अल्पसंख्यकों का सबसे पहला हक है. मनमोहन सिंह सरकार ने रंगनाथ मिश्र कमीशन का गठन किया. रंगनाथ मिश्र कमीशन को मुसलमानों और इसाईयों में दलितों और पिछड़ों को पहचान करने की दी गई थी. साथ ही उनके लिए सरकारी रोजगार में आरक्षण का भरोसा कांग्रेस की सरकार ने दी थी. अजीब बात है जब कमीशन ने रिपोर्ट दे दी तो उसे अलमारी में बंद कर दिया गया. इसका मतलब साफ है मनमोहन सरकार इस मामले में देश के अल्पसंख्यको धोखे में रखना चाहती है. कमीशन की सिफारिशों को लागू करना नहीं चाहती है. ऐसे में कोई पत्रकार सरकार के आचार और विचार पर अपनी प्रतिक्रिया देता है तो उसमें बुराई क्या है. क्या मनमोहन सिंह की सरकार पत्रकारों से यही उम्मीद रखती है कि वे सिर्फ सरकार की चापलूसी करें. संतोष भारतीय ने जो बात चौथी दुनिया के अपने लेख में लिखा है यह देश के अल्पसंख्यकों की आवाज है. समझने वाली बात यह है कि लिबरहान कमीशन की रिपोर्ट पर संसद में इसलिए बहस होता क्योंकि यह सीधे चुनावी राजनीति से जुड़ा है. सरकार रंगनाथ कमीशन की रिपोर्ट को इसलिए दबाया जाता है क्योंकि गरीबों और लाचारों की आवाज उठाने वाला कोई नहीं है. राजनेताओं की नजर में देश के गरीब सिर्फ वोट हैं. यही वजह है कि आजादी के बाद से राजनीतिक दल उनके वोट तो लेती रही लेकिन उनका विकास नहीं किया. यही सच संतोष भारतीय ने लिखा है. संतोष भारतीय ने अपने लेख संसद की खत्म हो रही साख पर चिंता जताई है. कड़े शब्दों में राज्य सभा के सदस्यों को ललकारा है कि अगर वे अपने कर्तव्य का निर्वाह करने में चूक गए तो लोगों का भरोसा टूट जाएगा. संतोष भारतीय के लिखने का अपना तरीका है. जनता की भावनाओं को अपने लेखों में समेटने की कला में वे माहिर हैं. इस लेख के जरिए उन्होंने यह साबित किया है कि वे एक निर्भीक और विश्वसनीय पत्रकार हैं.