Tuesday, January 12, 2010

लालगढ़

लालगढ़ और प्रतिरोध का रेडिकल रूप लेना
सरोज गिरी
सिंगूर, नंदीग्राम और लालगढ़ .......... दमन और प्रतिरोध का अटूट सिलसिला । वे कौन से कारण हैं जो समाज के हाशिए पर पड़े लोगों को सर्वशक्तिमान सरकार के खिलाफ हथियार उठाने को मजबूर कर देते हैं ? क्या लालगढ़ के आंदोलन को माओवादियों द्वारा प्रेरित कह कर खारिज किया जा सकता है ? क्या लालगढ़ संघर्ष जनता के जनतांत्रिक संघर्ष का ही उन्नत रूप नहीं है ? वे कौन सी परिस्थितियां हैं जो किसी शांतिपूर्ण संघर्ष को हिंसक रूप लेने के लिए विवश कर देती हैं ?
लालगढ़ मंे हुए प्रतिरोध की एक तस्वीर इस प्रकार है। छत्रधर महतो जो ‘पुलिस संत्रास विरोधी जन समिति’ के सबसे चर्चित नेता हैं, सामान्य ग्रामीणों के बीच खाने का सामान बांटते हुए दिखाई देते हैं। दान देने वाले किसी बड़े नेता की तरह नहीं बल्कि उन्हीं के बीच के ही किसी व्यक्ति की तरह। क्या यह माओवादियांे की एक ‘नयी’ छवि है? लेकिन हो सकता है कि छत्रधर महतो माओंवादी न हों - वह ऐसा ही कहते भी हैं? लेकिन अगर सचमुच वह माओवादी नहीं हैं तो उनकी ताकत और पूरे इलाके मंे उनका प्रभाव है उसे देखते हुए ‘तानाशाह’ माओंवादियों को अब तक उनका सफाया कर देना चाहिए था। लेकिन यह भी तो हो सकता है कि वे लोग महतो का इस्तेमाल कर रहे हों और महतो डर की वजह से माओवादियांे के ‘आदेश’ का पालन करने पर मजबूर हों। लेकिन यहां एक सवाल यह पैदा होता है कि एक ऐसा व्यक्ति जो जनता के बीच इतना लोकप्रिय हो और जिसे जनता का भरपूर प्यार मिला हो वह माओवादियों से भला क्यों डरेगा । इसलिए यह सवाल बना ही रहता है कि क्या छत्रधर महतो माओवादी हैं या वह माओवादियों की तरह हैं। एक ऐसे माओवादी की तरह जो जनता के बीच बहुत लोकप्रिय हैं और जिससे जनता तनिक भी आतंकित नहीं महसूस करती । इस तरह के सवाल बहुत उलझन पैदा करने वाले हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि लालगढ़ मंे जिस तरह का प्रतिरोध देखने को मिला उसमंे एक अनूठापन है। यह किसी बंधे-बंधाए फार्मूले पर नहीं चला है। लालगढ़ के प्रतिरोध ने न केवल स्थानीय सरकार संबंधों और राज्य की ताकतों को उलझा दिया बल्कि इसने चुनौती दी प्रतिरोध आंदोलनों के स्वीकार्य विचारों और व्यवहारों को, उनके आंतरिक संविधान को और सबसे बड़ी बात यह है कि जनता की पहलकदमी की अनेक क्रांतिकारी संभावनाओं का मार्ग इसने प्रशस्त किया। इसकी झलक आंशिक रूप से लीक से हटकर बनी महतो की छवि मंे और माओवादियों के बरक्स ‘पुलिस संत्रास विरोधी जनसमिति’ के संबंधों मंे देखने को मिली। महत्वपूर्ण बात यह है कि लालगढ़ की घटने ने संघर्ष के ‘शांतिपूर्ण’ और ‘हिंसक’ स्वरूप के बीच संबंध के परंपरागत विचार को किनारे कर दिया और प्रतिरोध की ऐसी संभावनाओं की शुरुआत की जो राजनीतिक मनोगतवाद या ‘कानून के शासन’ की अधीनता से बंधी नहीं है।
लालगढ़ ने देश मंे चल रहे सामाजिक आंदोलनों पर लंबे समय से लगाए गए प्रतिबंधो का उल्लंघन किया। उन प्रतिबंधों का जो अंततः हिंसा पर इजारेदारी का हक जताने वाले भारतीय राज्य के आदेशों के अनुरूप अपने संघर्ष को चलाने से इन्कार करते हैं। लालगढ़ ने यह भी दिखाया कि आम जनता का जनतांत्रिक संघर्ष जब जनतांत्रिक वैधता खो चुके राज्य के दमनकारी तंत्र के साथ संघर्ष के मुकाम पर पहुंचता है तो यह एक हिंसक जनआंदोलन का रूप ले लेता है। यह हिंसक कार्यवाही जनता के जनतांत्रिक संघर्ष के अत्यंत उन्नत स्वरूप को व्यक्त करती है और अपने सभी आधारों को खो चुके ढांचे को ढहाते हुए राजनीतिक संघर्ष कह सकते हैं। लेकिन इसे किसी भी मायने मंे तथाकथित ‘संघर्ष वाली स्थिति’ नहीं कहंेगे जहां यह दिखाया जाता है कि आम आदमी इसमंे फंस गया है और पिस रहा है।
19 जून को धरमपुर मंे हुई हिंसक जनकार्रवाई पर गौर करें। इस घटना को वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों खेमों के अनेक लोगों ने माओवादी कार्यवाही बताते हुए एलान कर दिया कि अब यहां जनतांत्रिक सघर्ष समाप्त हो गए हैं। इस कार्यवाही से उत्तेजित होकर जब सुरक्षा बलों ने इलाके पर ‘फिर से कब्जा’ करने के लिए हमलावार रुख अख्तियार किया तो क्या उस समय राज्य और सषस्त्र माओवादियों के बीच एक ऐसा संघर्ष तैयार हो गया जिसमंे सामान्य नागरिक फंस गए हों और इस इंतजार मंे हों कि बाहर से कोई मदद आवे और उन्हंे निजात दिलाए। संघर्ष का यह एक महत्वपूर्ण मुकाम था। लालगढ़ ने उस परंपरा को मानने से इंकार किया जिसके अंतर्गत हर तरह के संघर्ष का अराजनीतिकरण करते हुए उसे एक ‘संघर्ष क्षेत्र’ के रिूप मंे चित्रित किया जाता है जहां इसकी चपेट मंे पड़े बच्चों और महिलाओं को ऐसे दिखाया जाता है गोया वे इस इंतजार मंे हों कि कब अंतर्राष्ट्रीय समुदाय और गैर सरकारी संगठनों के कार्यकर्ता आएं और उन्हंे मुक्ति दिलाएं या इस संकट से उबारेें।
यहां सामान्य नागरिक की छवि ऐसी नहीं थी जो किसी का पक्ष लेने से इनकार कर रहा हो और राहत सामग्री को झपटने के लिए लालायित हो। यहां जो छवि दिखाई दी उसकी मिसाल मालती ने पेश की । अपनी राजनीतिक सहानुभूति को स्पष्ट रूप से दिखाते हुए मालती पुलिस संत्रास विरोधी जनसमिति द्वारा चलाए जा रहे शिविर मंे पड़ी रही और उस समय भी प्रशासन की चिकित्सा सहायता लेने से इनकार किया ज बवह एक बच्चे को जन्म दे रही थी। सरकार की तरफ से भेजी गई ऐम्बुलेंस को खाली ही वापस जाना पड़ा (दि स्टेट्समैन, कोलकाता, 30 जून 2009 ) मालती की मानवीय जरूरतों की पूर्ति उसी संघर्ष के लोगों द्वारा की गई जो ‘हिंसक जनकार्यवाही’ चला रहे थे। यहां गैर सरकारी संगठनों और कल्याणकारी होने का दावा करने वाले राज्य के लिए कोई जगह नहीं थी। इस घटना ने प्रतिरोध के स्वायत्त चरित्र को उजागर किया। यहां महज सामान्य नागरिकों और आदिवासियों ने माओवादियों को समर्थन ही नहीं किया बल्कि माओवादियों की छवि मंे जबर्दस्त परिवर्तन देखने को मिला। जिसमंे कहा जा सकता है कि महिलाओं और बच्चों सहित सभी माओवादी थे।
यहां जरूरत इस बात को रेखांकित करने की है कि हिंसक माओवाद वस्तुतः लालगढ़ के सामान्य ग्रामीणों अथवा आदिवासियों के जनतांत्रिक संघर्ष और स्वायत्त राजनीतिक व्यवहार की नयी खूबी है। जैसे ही इन दोनों को आप अलग करेंगे आप जनतंत्र के एक अजीबो-गरीब दुष्चक्र मंे फंस जाएंगे जिसे एनजीओवाद का शिकार कहा जाएगा। यहां हमंे राज्य से यह सवाल करना चाहिए कि सामान्य ग्रामीणों और आम नागरिकों की हत्या करने के लिए वह क्यों माओवाद का हौवा खड़ा करता है ।
सामान्य नागरिक, माओवादी
इन बातों से एक सवाल पैदा होता है। क्या सामान्य नागरिक माओवादियों से अलग थे और उनका विरोध कर रहे थे ? यह सवाल एक नजरिए से महत्वपूर्ण हो जाता है । लालगढ़ मंे हुए विद्रोह को कानून और सुरक्षा का सवाल बनाकर समाधान का विरोध करने वाली ढेर सारी जनतांत्रिक शक्तियां हमेशा इस बात पर जोर देती रही हैं कि सामान्य ग्रामवासियों / आदिवासियों को माओवादियों से अलग करके देखा जाए। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य पर इसलिए प्रहार किया िकवह इन दोनों को गड्मड् कर रहे थे और सामान्य नागरिकों को प्रताड़ित करने तथा जनता के जनतांत्रिक संघर्ष का दमन करने के लिए माओवादियों का हौवा खड़ा कर रहे थे।
इस प्रकार लालगढ़ ने अनेक सवालों को जन्म दियाः क्या आदिवासी जनता माओवादियों के खेमे मंे जा रही है ? क्या माओवादियों के समर्थन का आधार इतना ठोस हो गया है कि आदिवासियों बहुसंख्यक आबादी माओवादी हो गई है ? आज के हालात मंे क्या यह संभव है कि माओवादी हुए बगैर उस तरह के राजनीतिक प्रतिरोध और राजनीतिक स्वायत्तता की मिसाल कायम की जा सके जैसी कि लालगढ़ की जनता आज पेश कर रही है ?
कुछ और भी सवाल हैं: प्रतिरोध मंे लगे आदिवासी माओवादियों के बरक्स कहां और कैसे खड़े हैं ? क्या माओवादियों के प्रति फिलहाल जो जड़ दृष्टिकोण है जिसके तहत आदिवासियों और माओवादियों के बीच अलगाव जरूरी हो जाता है, उसे गढ़ कर तैयार किया गया जबकि यथार्थ मंे ऐसा नहीं था ? अ्रगर ऐसा है तो राज्य मंे इस अलगाव को अमली रूप देने और ‘निर्दोष नागरिकों ’ को अलग रखने का जनतांत्रिक अधिकारों का नजरिया एक खतरनाक दुधारी तलवार की तरह है।
दरअसल लालगढ़ से हमंे यह पता चलता है कि माओवादियों से आदिवासियों को अलग करना कोई महान जनतांत्रिक कार्य नहीं है - इससे वस्तुतः राज्य को जबरदस्त दमन करने की छूट मिल जाती है और साथ ही वह इस तरह का दावा करने लगता है कि इसने आम नागरिकों के हित मंे दमनात्मक कार्यवाही की। जहां यह अलगाव संभव नहीं हो सकता वहां राज्य अलगाव की स्थितियां पैदा करता है। सरकारी अफसरों के रवैये से यह स्पष्ट हो गया। जब पश्चिम बंगाल के गृह सचिव अर्धेंदु सेन ने यह स्वीकार किया कि ‘पुलिस संत्रास विरोधी जनसमिति और माओवादियों के बीच भेद करना कठिन है’ तो उन्होंनें यह भी साफ कर दिया कि दोनों के बीच कोई अलगाव नहीं है (द स्टे्टसमैन, 28 जून 2009)। और हालांकि आम लोगों को माओवादियों से अलग नही किया जा सकता इसलिए राज्य के मुख्य सचि ने उस समय इस अलगाव का आविष्कार किया जब उन्होंने उसी समाचार मंे यह कहा कि सुरक्षा बल के लोग ‘आम लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे’। इसके आगे उन्होंने यह भी कहा कि ‘सामान्य ग्रामवासी प्रत्यक्ष तौर पर हिंसा भी शामिल नहीं हैं लेकिन वे माओवादियों की हिंसक गतिविधियों के शिकार हैं। ’
‘महिलाओं और बच्चों मंे माओवादियों के समर्थन के आधार’ से संबंधित भी कुछ खबरे देखने मंे आयीं ( दि स्टे्टसमैन, 28 जून 2009) । समर्थन के इस आधार का मतलब यह था कि राज्य के अधिकारियों को बमुश्किल ऐसा कोई स्थानीय व्यक्ति मिल पाता जो माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ढांचे के ढह जाने के बाद खुफियागिरी करके माओवादियों के खिलाफ सरकार को जानकारी मुहैया करता। राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी को यह कहते सुना गया कि ‘जब तक हमारे पास स्थानीय स्रोत नहीं होंगे, माओवादियों की पहचान कर पाना बेहद कठिन है क्योंकि वे गांव वालों के साथ घुल मिल गए हैं। हालांकि ये लोग भी लालगढ़ के ही हैं लेकिन हमारे पास मुख्य इलाके के लोग नहीं हैं। इस इलाके के गांवों के लोग अभी भी पहुंच से बाहर हैं। ’ ( दि टेलीग्राफ, शुक्रवार 26 जून 2009)।
इन बातों की रोशनी मंे देखें तो जैसा कि हमने मालती के मामले मंे देखा, लालगढ़ मंे सबसे ज्यादा खतरा उन हथियारबंद माओवादियों से नहीं है बल्कि ‘आम नागरिकों’, पुलिस संत्रास विरोधी समर्थकों से है जिन्हंे माओवादियों से अलग कर पाना मुश्किल है ? अगर उसने अपने जीवन के अत्यंत नाजुक क्षण मंे भी सरकार द्वारा पेश की गई चिकित्सा सहायता को लेने से इनकार किया तो ऐसी हालत मंे राज्य को उसका समर्थन फिर से पाने के लिए क्या करना चाहिए ? अगर ‘आम नागरिक’ यह नहीं चाहता कि वह ‘संघर्ष के क्षेत्र’ से बाहर जाए और किसी एक का पक्ष लेना चाहता है जो हिो सकता है कि किसी नाटकीय अंदाज मंे न हो लेकिन कम से कम ‘हिंसक माओवादियों’ के पक्ष मंे हो तब ऐसी हालत मंे नागरिकों से माओवादियों को अलग करने का काम करना बहुत कठिन हो जाता है और सच्चाई तो यह है कि राजनीतिक तौर पर देखें तो यह अत्यंत प्रतिक्रियावादी काम होता है।
‘गण प्रतिरोध’ मंच के नेता गौर चक्रवर्ती एक सम्मानित कम्युनिस्ट क्रान्तिाकारी हैं जो 1970 के दशक के प्रारंभिक दिनों से ही अपनी जनपक्षधरता के लिए चर्चित रहे हैं। यह मंच वामपंथी क्रान्तीकारी समूहों का एक संयुक्त मोर्चा है। 26 दिसंबर 2008 को पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कहा कि उनकी सरकार लालगढ़ के विद्राहियों से ‘राजनीतिक स्तर पर’ बातचीत करना चाहती है ताकि समस्या का समाधान हो सके। गौर चक्रवर्ती ने गण प्रतिरोध मंच से अलग होने की घोषणा की और पश्चिम बंगाल मंे भाकपा( माओवादी ) के प्रवक्ता के रूप मंे खुद को प्रस्तुत करते हुए मुख्यमंत्री से मिलने की इच्छा जाहिर की । उन्होंने कहा कि ‘हम माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को यह अवसर देने को तैयार हैं िकवह राजनीतिक तौर पर समस्या का समाधान ढंूढे’ । पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के अन्य घटकों ने भी अपने ढंग से प्रयास कि या लेकिन माक्र्सवादी कम्युनिस्व्ट पार्टी के नेतृत्व ने गौर चक्रवर्ती के साथ राजनीतिक वार्ता मंे भाग लेने से इनकार कर दिया। 23 जून 2009 को पश्चिम बंगाल सरकार ने आतंकवाद विरोधी कुख्यात कानून ‘गैरकानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम’ का इस्तेमाल करते हुए गौर चक्रवर्ती को उस समय गिरफतार कर लिया जब वे एक स्थानीय टीवी कंेद्र से एक कार्यक्रम मंे भाग लेकर लौट रहे थे।
दरअसल लालगढ़ मंे राज्य ने यह महसूस किया कि अगर कोई भी व्यक्ति माओवादी हो सकता है और अगर अलगाव का कोई अर्थ नहीं है तो किसी जनतंत्र मंे आगे बढ़ने का रास्ता यही होगा कि तकनीकी तौर पर ‘अलगाव’ थोप दिया जाए। एक तकनीकी समाधा8न - खबरों से पता चलता है कि लालगढ़ के कुछ हिस्सों मंेे सुरक्षा बल, खासतौर से उन इलाकों मंे जहां माओवादियों की मौजूदगी है, हेलिकाप्टर से एक खास तरह के आयात किए हुए रंग का छिड़काव करेंगे। यह रंग लगभग एक वर्ष तक त्वचा पर बना रहेगा। जाहिर है कि आप इस प्रकार ‘सामान्य नागरिकोें’ से माओवादियों को अलग कर देंगे ।
इस तरह देखें तो एक अलगाव का आविष्कार कर उसे लागू करने से राज्य को इस बात की इजाजत मिल जाएगी िकवह सामान्य नागरिकों का दिल जीतने अथवा उनकी रक्षा करने के नाम पर एक लोकप्रिय जनआंदोलन का दमन कर सके । थोंपा गया अलगाव ऐसा होगा कि लालगढ़ मंे अगर कोई आदिवासी माओवादियों के साथ खड़ा होता है , तो इसे उस संकटपूर्ण संयोग मंे उसे उसके आदिवासी होने की स्थिति के रूप मंे नहीं बल्कि सरकारी नीतियों के कुपरिणाम के रूप मंे देखा जाएगा। इस प्रकार किसी आदिवासी माओवादी को इस नजरिए से देखा जाएगा गोया वह इस इंतजार मंे पड़ा है कि उदारनीतियों के जरिए उसे कब जनतांत्रिक मुख्यधारा मंे शामिल कर लिया जाए।
आदिवासी छवि और संघर्ष के स्वरूप
अब सवाल यह है कि किसी माओवादी कार्यकर्ता को सामान्य ग्रामीण या आदिवासी से अलग किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। तो भी खेमों मंे इस तरह का भेदभाव नहीं किया जा रहा है लेकिन वे इन दोनों को अलग करने मंे जी जान से लगे हैं और अपनी इस कवायद के जरिए ही लालगढ़ को समझना चाहते हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि इस अलगाव को कम से कम दो अन्य स्थापित छवियों का सहारा प्राप्त है। यह छवियां ‘सामान्य ग्रामीण’ और खास तौर पर आदिवासी से संबद्ध हैं।
एक मामले मंे इस अलगाव को बल देने के लिए सामान्य ग्रामीण अथवा आदिवासी को एक प्रताड़ित व्यक्ति के रूप मंे पेश किया जा रहा है- ऐसा व्यक्ति जिसे विस्थापित कर दिया गया हो और जो विज्ञान एवं औद्योगिक विकास की नेहरूवादी अवधारणा के नकारात्मक नतीजे के रूप मंे मौजूद हो । दूसरे मामलें में यह छवि एक ऐसे आदिवासी की है जो ‘आधुनिक विकास एवं औद्योगीकरण’ का विरोध करता हो और संघर्ष के जनतांत्रिक तौर तरीकों को अपनाता हो, तथा राज्य से परे स्वायत्त कल्याणकारी गतिविधियों मंे लगा हुआ हो।
पहली छवि मंे हमंे यह जानकारी मिलती है कि सरकार गरीबों की कितनी हितैषी है, राज्य की नीतियां कितनी कल्याणकारी हैं और इसके जरिए आदिवासियों के जीवनस्तर को कितना उन्नत किया जा रहा है। ये वही बाते हैं जिन्हंे गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों अथवा पुनर्वास योजनाओं मंे घोषित किया जाता है। दूसरी छवि उस असंतुष्ट राज्य विरोधी वामपंथी की जिसे हाशिए पर डापल दिया गया है। और जो अपने - आप मंे राजनीतिक संघर्ष का आधार समझा जाता है। ये दोनों छवियों प्रायः एक दूसरे की विरोधी हैं लेकिन आगे चलकर ऐसा लगता है कि ये कहीं एकाकार हो रही हैं और अपने होने की तक्रसंगतता इस बात से प्रमाणित कर रही हैं िकवे माओवादियों की हिंसात्मक एवं दमनकारी गतिविधियों के मुकाबले जनतंत्रप्रेमी ग्रामीणों अथवा आदिवासियों को खड़ा करने मंे सक्षम हैं।
जो भी हो लालगढ़ की घटनाओ ने दिखा दिया है िकइस तरह का अलगावा सामान्य ग्रामीणों को एक राजनीतिक अधकचरेपन मंे डाल देता है और वे इस बात की इजाजत नहीं पाते कि संसदीय राजनीति के दलदल से अपने को बाहर ला सकें। इसकी वजह यह है कि जैसे ही सामान्य ग्रामीण अथवा आदिवासी उत्पीड़न का शिकार होने से अपने को बचाएंगे और एक राजनीतिक इकाई के रूप मंे स्वायत्त ढंग से काम करेंगे वैसे ही उनके सामने उस तक्र का संघर्ष शुरू हो जाएगा जिसके आधार पर दमनकारी सŸाासंबंधों की नींव पड़ती है। समाज मंे गहरी पैठ बनाकर खड़ा किया गया सŸााका ढांचा जिसे अमूर्त ढंग से राज्य कह दिया जाता है जनतांत्रिक व्यवहार के जरिए समाप्त नहीं होता। इसकी मौजूदगी एक जरूरत बन जाती है। इसकी गांठे इतनी मजबूत हो जाती हैं जिन्हें आसानी से खोला नहीं जा सकता। इस तरह की गांठ खोलनें मंे वह धागा कमजोर होगा ही।
धरमपुर मंे यह कमजोरी देखी गयी जहां सरकार के ढांचे को ढहाने के लिए ताकत का इस्तेमाल किया गया और इसके लिए जनतांत्रिक संघर्ष का सहारा लिया गया । दीर्घकालीन संघर्ष के नजरिए से देखें तो इस चरण मंे हिंसा का इस्तेमाल बेहद कमजोर दमनकारी ढांचे को आराम के साथ ध्वस्त करने के लिए किया गया । धरमपुर मंे जो सामूहिक हिंसा हुई वह लालगढ़ के आदिवासियांे के स्वायत्त व्यवहारों का सघन रूप लेना था। यह सामान्य ग्रामीण अथवा आदिवासी जो अपने जनतांत्रिक तौर तरीकों और संघर्ष को राज्य द्वारा जारी किए गए निर्देशों की सीमा मंे रखने से इनकार करता है, माओवादी के रूप मंे उभर कर सामने आ गया । इन परिस्थितियों मंे देखों तो एक सामान्य ग्रामीण अथवा आदिवासी का ‘माओवादी’ होना उसके अस्तित्व को एक राजनीतिक स्वरूप प्रदान करना है।
लालगढ़ मंे यह देखने मंे आया कि संघर्ष के ‘शांतिपूर्ण’ और ‘हिंसक’ तरीकांे के बीच किस तरह के आपसी संबंध होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि माओवादी आंदोलन से जनतांत्रिक संघर्ष को अलग करना संभव नहीं है। लेकिन सामान्यीकरण के तौर पर दमनकारी संबंधों के रक्षक के रूप मंे राज्य ने माओवादियों के हिंसक तरीकों को अलग कर दिया और उत्पीड़न के खिलाफ जनता के व्यापक संघर्ष से भिन्न करके इसे पेश किया । इसने सामान्य ग्रामीणों को इस बात के लिए मजबूर किया िकवे अपने जनतांत्रिक संघर्ष को उन सीमाओं के भीतर रखें जिसे राज्य ने निर्धारित कर रखा है, जिसे संसदीय जनतंत्र के दायरों मंे बांध दिया गया है और इसके बाद माओवादियों को आसानी से निशाना बनाया जाए। यही वह बिन्दु है जहां राज्य और आश्चर्य नहीं कि नागरिक अधिकार से जुड़े कार्यकर्ता अपने उत्थान की प्रतीक्ष ामंे आतुर सामान्य ग्रामीणों तथा इनकी पीड़ा का लाभ उठाने वाले उग्र माओवादियों के बीच भेद करते हैं।
यहां जरूरत इस बात को रेखांकित करने की है कि हिंसक माओंवाद वस्तुतः लालगढ़ के सामान्य ग्रामीणों अथवा आदिवासियों के जनतांत्रिक संघर्ष और स्वायत्त राजनीतिक व्यवहार की नयी खूबी है। जैसे ही इन दोनों को आप अलग करेंगे आप जनतंत्र के एक अजीबो-गरीब दुष्चक्र मंे फंस जाएंगे जिसे एनजीओवाद का शिकार कहा जाएगा। यहां हमंे राज्य से यह सवाल करना चाहिए कि सामान्य ग्रामीणों और आम नागरिकों की हत्या करने के लिए वह क्यों माओवाद का हौवा खड़ा करता है। यह भी देखा गया है कि राज्य हमेशा न तो नागरिकों की हत्या करता और न उनके पीछे पड़ जाता है जो खुद को माओवादी कहते हैं। (क्या बंगाल सरकार ने गौर चक्रवर्ती को उचित समय आने पर ही गिरफतार नहीं किया ?) हमने लालगढ़ मंे यह भी देखा कि जब सामान्य नागरिक , ग्रामीण अथवा आदिवासी माओवादियों के साथ प्रतीकात्मक संबंध स्थापित कर लेते हैं या जब माओवादी लोग सामान्य ग्रामीणों के साथ इस तरह के संबंध स्थापित करते हैं उस हालत मंे राज्य बिना सोचे-समझे हत्याओं का सहारा लेता है। सरकार यह निष्कर्ष निकालती है कि जिन्हंे सामान्य ग्रामीण कहा जा रहा है वे जनतंत्र मंे या ग्रामीण सशक्तिकरण मंे लगे सामान्य जन नहीं हैं बल्कि ये ऐसे लोग हैं जो राज्य के ढांचे को ही चुनौती दे रहे हैं। इसी प्रकार माओवादी भी किसी अमूर्त विचारधारा मंे विश्वास करने वाले इस तरह के गिरोह के सदस्य नहीं हैं जो देशभर मंे अनाप-शनाप हिंसा करते घूम रहे हों और गांवों मंे गरीबी के शिकार आदिवासियांे तथा बच्चों को किसी उद्देश्य का लालच देकर अपनी जमात मंे भर्ती कर रहे हों बल्कि वे लोग हैं जो जनता के पक्ष मंे चलाए जा रहे वास्तिविक संघर्ष के साथ जुड़े हुए हैं।
जो वामपंथी लालगढ़ के जनतांत्रिक संघर्ष का समर्थन कर रहे हैं लेकिन यहां माओवादियों के कब्जे से दुखी हैं वे भी घुमा-फिरा कर अलगाव के इस सिद्धांत को ही मान रहे हैं। यह अलगाव संघर्ष के विभिन्न रूपों अर्थात ‘शांतिपूर्ण’ और ‘हिंसक’ के बीच अतंर्सबंध मंे रुकावट डालता है और राज्य सरकार द्वारा तैयार की गयी सीमाओं के अंदर ही काम करता है। निरंकुश माओवादियों से जनतांत्रिक संघर्ष की रक्षा करने के नाम पर वस्तुतः इस संघर्ष के स्वायत्त उभार के महत्व को कम करके आंका जाता है।

इसलिए राज्य वस्तुतः माओवादियों की हत्या के नाम पर सामान्य ग्रामीणों की हत्या नहीं करता बल्कि उन लोगों की हत्या करता है जो माओवादियों के ‘समर्थक’ हैं, जो व्यापक और दीर्घकालिक संघर्ष के अंग हैं जो आगे चलकर किसी मौके पर माओवादी का विशेषण ग्रहण कर सकते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि दोनों तरह के ही लोग हैं और इनमंे भेद करना जरूरी है-सशस्त्र माओवादी योद्धा और निःशस्त्र नागरिक । लेकिन बात यह है अगर जनतांत्रिक संघर्ष और ‘हिंसक’ संघर्ष प्रायः एक दूसरे से घुल-मिल जाते हैं । और अगर माओवादी आंदोलन समग्र संघर्ष का एक अभिन्न हिस्सा बन जाता है तो नि: शस्त्र नागरिक माओवादी आंदोलन के एक अभिन्न अंग के रूप मंे नजर आते हैं।
सामान्य ग्रामीणों/आदिवासियों को एक राजनीतिक इकाई के रूप मंे चित्रित करने के लिए माओवादी शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है- ऐसा कहने का अर्थ यह है कि एक बार जब दमनकारी राज्य मशीनरी सक्रिय हो जाती है तो स्वायत्त जनतांत्रिक व्यवहार समाप्त नहीं हो जाते। संघर्ष के स्वरूप प्रायः कभी ‘शांतिपूर्ण’ और कभी ‘हिंसक’ रूप ले लेते हैं। कभी इस संघर्ष मंे सशस्त्र क्रांतिकारियों की हिस्सेदारी होती तो कभी निःशस्त्र नागरिक इसमंे भाग लेते हैं। इस प्रकार लालगढ़ का प्रतिरोध ऐसा था कि माओवादियों और आदिवासी जनता के बीच अलगाव करना बेहद कठिन था।
उदार सरकार
भले ही इस बात के पर्याप्त प्रमाण हों कि संबद्ध इलाके मंे सामान्य आदिवासी माओवादी राजनीति के अंग हैं, सरकार आज किसी न किसी रूप मंे ऐसा करने के लिए मज़बूर है गोया आदिवासियों को इस बात का इंतजार हो कि सही विकास नीतियों, रोजगार अवसरों आदि के जरिए उन्हंे जीत लिया जाएगा। पहले तो माओवादियों का सफाया करने के लिए सुरक्षा बलों को भेजा गया। इन सुरक्षा बलों की माओवादियों से किसी तरह की मुठभेड़ तो नहीं हुई लेकिन इनके जवान एग गांव से दूसरे गांव तक खाली पड़े खेतों से खाली पड़े मकानों तक लगातार परेड करते रहे और इन्होंने पाया कि इन इलाकों से पुरुषों की आबादी आम तौर पर भाग चुकी है। कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि इन इलाकों के पुरुष सदस्य कहां गए। इस सफाया अभियान की ‘सफलता’ के बाद तरह-तरह की विकास योजनाओं और रोजगार के अवसर पैदा करने से लकर खाद्य तथा चिकित्सा सुविधाओं के साथ जनता तक पहुंचनें के ईमानदार प्रयास किए गए। मुख्यमंत्री के निर्देशों के अनुसार विभिन्न मंत्रालयों के सचिवों को विभिन्न गांवों मंे तैनात किया गया ताकि वे वहां के लोगों की समस्याओं और जरूरतों को समझ सकें।
यहां माकपा की इस मामले मंे ईमानदारी पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए कि उसने सामान्य ग्रामीणों और माओवादियों को एक दूसरे से अलग करने मंे जनतांत्रिक अधिकारों के परिप्रेक्ष्य पर सचमुच ध्यान दिया। वस्तुतः इसने ऐलान किया कि यह राजनीतिक तौर पर माओवादियों से लड़ना चाहती है और थोड़ी हिचकिचाहट के साथ माओवादियों के विरुद्ध केन्द्र द्वारा लगाए गए प्रतिबंध को स्वीकार कर लिया। यहां तक कि राज्य सरकार ने ऐलान किया कि कुछ अत्यंत अनिवार्य मामलों को छोड़कर वह यूपीए का इस्तेमाल नहीं करना चाहती। इसके साथ ही उसने यह भी कहा कि इसके इस्तेमाल का अधिकार पुलिस के पास भी नहीं होगा और सरकार ही सर्वोच्च स्तर पर इस बारे मंे निर्णय लेगी।
हम देख सकते हैं कि ये सारे जन कल्याणकारी प्रस्ताव इस तक्र से उपजे हैं कि सामान्य ग्रामीण/आदिवासी माओवादियों से अलग कोई चीज़ हैं अथवा उन्हंे माओवादियों का समर्थन करने के लिए अस्थायी तौर पर फंसा लिया गया है। तो भी अलगाव के इस सिद्धांत को पूरी तरह पलटते हुए लालगढ़ मंे सामान्य ग्रामीणों ने ने केवल कल्याणकारी राज्य को खारिज किया बल्कि माओवादियों को उनके कथित हिंसक अवतार मंे उन्हंे समर्थन भी दिया।
यही वजह है कि एक तरफ तो हम मालती का मामला देखते हैं जिसमंे उसने राज्य द्वारा मां और नवजात शिशु को चिकित्सा सुविधा देने के उदार प्रस्ताव को ठुकरा दिया और दूसरी तरफ हमंे यह भी देखने को मिलता है कि धरमपुर मंेज ब माकपा नेता अनुज पांडे का घर ध्वस्त किया जा रहा था तो इलाके के ‘सामान्य नागरिक’ इस कार्रवाई पर खुशियां मना रहे थे। ऐसी हालत मंे राज्य द्वारा प्रस्तुत किए गए कल्याणकारी प्रस्तावों को महिलाएं अस्वीकार कर रहीं हों और इस तरह की घटनाएं माओवादियों के हिंसक कार्यक्रमों मंे भाग लेने मंे बढ़ कर हों तो सामान्य ग्रामीणों और ‘हिंसक माओवादियों’ के बीच हम विभाजन रेखा कैसे खींच सकेंगे। धरमपुर से ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ की रिपोर्ट मंे बताया गया कि ‘उस इलाके मंे जहां धारा 144 लागू है एक बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी हुई और सफेद दो मंजिलों मकान को गिराए जाने की कार्रवाई तालियां बजाकर देखती रही । यह मकान लालगढ़ पुलिस स्टेशन के उस इलाके मंे है जो पूरी तरह वंचितों की आबादी से बसा हुआ है। शाम होते-होते पहली मंजिल गिराई जा चुकी थी और सुबह तक जो आलीशान ( हिन्दुस्तान टाइम्स 16 ,जून 2009)।
निष्कर्ष
इस प्रकार यह दलील देते हुए कि सामान्य नागरिक माओवादियों के साथ नहीं है, जब राज्य इन सामान्य नागरिकों के मानव अधिकारों की रक्षा करने का प्रयास करता है तो इसके साथ ही उसे इस बात की भी छूट मिल जाती है कि इन नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर वह माओवादियों के विरुद्ध किए जा रहे दमन को न्यायोचित ठहरा सके। किन हालात मंे राज्य दस नीति को अपनाने पर मजबूर हुआ इसे हम नहीं कह सकते लेकिन यह तो देखा ही जा रहा है कि लालगढ़ मंे इसका इस्तेमाल हो रहा है। लालगढ़ ने यह भी दिखाया कि जब ‘सामान्य नागरिकों’ ने राज्य को उसके सर्वोतम कल्याणकारी स्वरूप मंे भी खारिज कर दिया और माआवादियों से अलगाव की नीति लागू करना कठिन हो गया तो राज्य ने इस अलगाव के लिए तकनीकी तरीका निकाला। ( एक खास तरह के रंग का छिड़काव जिससे माओवादियों की पहचान की जा सके। ) लेकिन इसने काम नहीं किया।
जो वामपंथी लालगढ़ के जनतांत्रिक संघर्ष का समर्थन कर रहे हैं लेकिन यहां माओवादियों के कब्जे से दुखी हैं वे भी घुमा-फिरा कर अलगाव के इस सिद्धांत को ही मान रहे हैं। यह अलगाव संघर्ष के विभिन्न रूपों अर्थात ‘शांतिपूर्ण’ और ‘हिंसक’ के बीच अंर्तसंबंध मंे रुकावट डालता है और राजसŸााद्वारा तैयार की गयी सीमाओं के अंदर ही काम करता है। निरंकुश माओवादियों से जनतांत्रिक संघर्ष की रक्षा करने के नाम पर वस्तुतः इस संघर्ष के स्वायत्त उभार के महत्व को कम करके आंका जाता है। यह नहीं देखा जाता कि यह एक पूरी तौर पर शुरू किया गया राजनीतिक संघर्ष है जिसने राजसŸााद्वारा निर्धारित सीमाओं को पार कर लिया है।
लालगढ़ ने यह दिखाया कि यहां जनतांत्रिक संघर्ष को अभिव्यक्ति देने के लिए माओवादी शब्द का इस्तेमाल किया गया है जो हिंसा पर एकाधिकार बनाए रखने के राज्य के अधिकार को चुनौती दे रहा है। माओवादी पार्टी और जनप्रतिरोध के अंतर्सबंधों के बीच एक नया अध्याय खोलते हुए जनतांत्रिक संघर्ष को माओवादियों ने अपने दायरे मंे ले लिया और इस प्रकार सत्त्ता द्वारा तैयार किए गए दायरों को तोड़ दिया। इसने इसे एक आंदोलन और प्रतिरोध का रूप दिया जहां सामान्य नागरिक सामान्य नहीं रह जाते और माओवादी महज हिरावल दस्ते के रूप मंे नहीं देखे जाते। लालगढ़ ने आज हमें एक बार फिर इन मुद्दों पर विचार करने के लिए मजबूर किया है। राजनीतिक मनोगतवाद, पार्टी और जनता- ये सारे मुद्दे जनता से जुड़े हुए हैं और जनकार्रवाई के जरिए ही इन्हंे ठोस रूप से हासिल किया जा सकता है।

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