प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह वर्ष 2006 से ही लगातार नक्सलियों को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताते रहे हैं। गृहमंत्री पी चिदंबरम भी अपना नज़रिया पेश करते रहे हैं, जबकि नार्थ ब्लॉक के हुक्मरान नक्सलियों के ख़ात्मे की अंतिम रूपरेखा तैयार करने में तल्लीन रहे हैं। यहां तक कि जब गृह मंत्रालय नक्सलियों के विरुद्ध मुहिम के पहले चरण की तैयारी कर रहा था तो नक्सली देश के शहरी इलाक़ों में सफलतापूर्वक पैठ बना चुके थे। हाल ही में नई दिल्ली में सीपीआई (माओवादी) की केंद्रीय समिति और पोलित ब्यूरो के सदस्य कोबद घांदव की गिरफ़्तारी आंखें खोल देने वाली घटना थी। घांदव शहरी क्षेत्रों में अतिवादी विचारधारा के प्रसार का प्रभारी था। शासन और उसका ख़ु़फ़िया अमला घांदव की गिरफ़्तारी को अपनी कामयाबी बता रहा है तो सीपीआई (माओवादी) इसे महज़ तात्कालिक कामयाबी बताकर शासन के दावे को अंगूठा दिखा रही है। अगर हरियाणा के यमुना नगर ज़िले में नक्सलियों और माओवादियों की गतिविधियों की तह में जाएं तो उनके आत्मविश्वास के कुछ आधार अवश्य नज़र आते हैं। अप्रैल 2009 में यमुना नगर में 30 नक्सलियों की गिरफ़्तारी हो चुकी थी और हरियाणा पुलिस उनके क़ब्ज़े से 37 कारतूस, चार देसी पिस्तौल, दो नाइन एमएम पिस्तौल, दो थ्री नॉट थ्री राइफल, चार डेटोनेटर, दो ग्रेनेड और नक्सली साहित्य के अलावा भारी मात्रा में गोला बारूद बरामद कर चुकी थी।
नक्सली हरियाणा में किस तरह अपनी शक्ति ब़ढा रहे हैं और किस तरह शासन के लिए चुनौती बनकर सामने आ रहे हैं, यह जानने के लिए हमने वहां की यात्रा की. दिल्ली से 250 किलोमीटर दूर यमुना नगर ज़िला मुख्यालय के समीप छछरौली उपनगरीय इलाक़े में दीवारें क्रांतिकारी नक्सली नारों से पटी दिखाई देती हैं- वोट नहीं, चोट दो; चुनाव का करो बहिष्कार, क्रांति के लिए हो जाओ तैयार; जनता की आज़ादी की राह है माओवाद! माओवाद!! यहां तक कि नक्सलियों ने यहां लोगों के बीच चुनाव का बहिष्कार करने का आह्वान करते हुए परचे तक बंटवाए हैं.
दिलचस्प तो यह है कि छछरौली और इसके आसपास के इलाक़े में सामाजिक आंदोलन या विस्थापन आदि का कोई इतिहास नहीं रहा है, जिससे नक्सलियों की पैठ की कोई ग़ुंजाइश भी नज़र आए. यमुना नगर कोई अकेला उदाहरण नहीं है.
2005 के बाद से पूरे हरियाणा में 11 मामले सामने आ चुके हैं. इनमें से तीन नरवाना, एक उचाना, चार कैथल, दो कुरुक्षेत्र और एक मामला करनाल से जुड़ा है.
सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ अजय साहनी के मुताबिक़, देश के शहरी इलाक़ों में अपने प्रभाव का विस्तार काफी लंबे समय से नक्सलियों की रणनीति का हिस्सा रहा है. अगर मैं सही याद कर पा रहा हूं तो आप इसे पीपुल्स वार ग्रुप के 2002 के दस्तावेज़ में देख सकते हैं. 2007 में पार्टी यूनिटी कांग्रेस में भी इस संकल्प को दोहराया गया. 36 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद 2007 में प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (माओवादी) की नौवीं पार्टी यूनियन कांग्रेस का आयोजन हुआ. सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि वर्ष 2004 में पीपुल्स वॉर ग्रुप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर के विलय के बाद दोनों की यह पहली बैठक थी. यूनिटी कांग्रेस ने दलित विरोध आंदोलन और विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसइजेड या सेज) के ख़िला़फ प्रदर्शन की कामयाबी की ज़ोरदार चर्चा की और माना कि जन आंदोलन ही पार्टी की जड़ को मज़बूत करने का ज़रिया हो सकता है. यूनिटी कांग्रेस ने इसे दूसरी पार्टियों के लिए एक दस्तावेज़ के तौर पर अहम मुद्दा दे दिया. वह भी यह कहते हुए कि सामंतवाद या अर्द्ध सामंतवाद का मसला जातिवाद और ब्राह्मणवादी विचारों से जुड़ा हुआ है. इसलिए माओवादी-नक्सलवादी प्रभाव को कम करने के लिए जातियों के संघर्ष को कम करने की ज़रूरत है.
जाति एक महत्वपूर्ण कारक है, यह इस तथ्य से पता चलता है कि हरियाणा से गिरफ़्तार किए गए 29 नक्सली-माओवादियों में से 13 हरिजन थे, जबकि शेष दूसरी पिछड़ी जातियों से ताल्लुक रखते थे. 2007 में यमुना नगर के नज़दीक इस्माइलपुर में गुर्जर लड़के और हरिजन लड़की के बीच प्रेम संबंध को लेकर दोनों जातियों के बीच ठन गई. नक्सलियों ने इस विवाद का ख़ूब फायदा उठाया. उस समय यमुना नगर के पुलिस अधीक्षक रहे के वी रमणा के मुताबिक़, हरियाणा में नक्सली गतिविधियों के पीछे मास्टर माइंड प्रदीप कुमार था, जो कुरुक्षेत्र में डॉक्टरी पेशे में है. वह इस्माइलपुर के वाशिंदे सिमरत सिंह के संपर्क में आया और शिवालिक जनसंघर्ष मोर्चा के बैनर तले जनसभाएं और बैठकें आयोजित करने लगा. प्रदीप के नेतृत्व में वे स्थानीय निवासियों के पक्ष में विभिन्न मुद्दों को उठाने लगे, इससे उन्हें लोगों का भी समर्थन मिलने लगा. उसी दौरान हमें उनकी दूसरी गतिविधियो के बारे में जानकारियां मिलीं कि वे किस तरह दुष्प्रचार के कामों में लगे हैं और आग्नेयास्त्र (असलहे) आदि जुटा रहे हैं. इसके बाद संगठन भूमिगत होकर कार्य करने लगा. इस्माइलपुर के निवासी भी पुलिस के इस कथन की पुष्टि करते हैं. गांव के सरपंच 44 वर्षीय नरेंद्र सिंह कहते हैं, कुछ माह पहले तक यहां हमने नक्सली गतिविधियां देखी हैं. चुनाव के बहिष्कार के लिए वे अभियान चलाते थे. बैठकें करते थे और पोस्टरबाज़ी करते थे. इसकी शुरुआत गुर्जर और हरिजनों के बीच एक छोटी सी झड़प से हुई थी. 16 जून 2009 को नक्सलियों ने एक ग्रामीण नीतू की हत्या कर दी. उन्हें शक़ था कि वह पुलिस को उनकी गतिविधियों की जानकारी देता है. पुलिसिया जांच की रिपोर्ट के मुताबिक़, प्रदीप वर्ष 2006 में हरियाणा में बाढ़ राहत कार्यों में सक्रिय था. उसी दौरान वह माओवादियों के संपर्क में आया. इसके बाद वह हरिद्वार में आयोजित क्षेत्रीय बैठक में शामिल हुआ. प्रत्येक माह की पांच या छह तारीख़ को वह नई दिल्ली के अंतरराज्यीय बस अड्डे पर विशेष दूत के जरिए केंद्रीय नेतृत्व का निर्देश, प्रचार सामग्री, रक़म और हथियार प्राप्त करता था.
पुलिस सूत्रों के मुताबिक़, इस्माइलपुर में प्रदीप कुमार का ख़ासमख़ास सिमरत सिंह बहुत ही शातिर और तेज़तर्रार था. नक्सली गतिविधियों में संलिप्तता के कारण पुलिस द्वारा मोस्ट वांटेड करार सिमरत सिंह फ़िलहाल पुलिस की गिरफ़्त में है. सातवीं कक्षा में ही पढ़ाई छोड़ चुका सिमरत अंग्रेज़ी जानता है. हथियार चलाने और देसी बम को बनाने की ट्रेनिंग उसे झारखंड के जंगलों में मिली है. यमुना नगर के आसपास के इलाक़ों में कई लोगों को नक्सली विचारधारा और गतिविधियों से जोड़ने में सिमरत और प्रदीप कामयाब रहे थे.
इसे महज़ संयोग ही कहेंगे कि प्रदीप और सिमरत दोनों एक बार धरे गए थे. दोनों के पास से देसी हथियार मिले थे. लेकिन निचली अदालत ने दोनों को रिहा करने का आदेश दे दिया. रिहाई के बाद से ही पुलिस उन पर निग़ाह रख रही थी. दोनों ने क़रीब दस संगठनों की नींव रखी (देखें बॉक्स). जून 2009 में सिमरत फिर से गिरफ़्तार हो गया. सुरक्षा विशेषज्ञ साहनी के मुताबिक़, माओवादी अपना आधार बनाने के लिए किसी भी मौक़े का इस्तेमाल करने से नहीं चूकते. जाति का इस्तेमाल भी उन्होंने रणनीतिक तौर पर ही किया. छिपी गतिविधियों को अंजाम देने से पहले कई सालों तक सुनियोजित तरीक़े से वे लोगों के बीच काम करते रहे. शहरी भारत में नक्सली और माओवादियों के प्रभाव ब़ढाने की गुप्त योजना से वाक़ि़फ एक स्रोत ने अपनी पहचान छिपाने के अनुरोध पर इस संवाददाता से कहा कि माओवादियों की मंशा में बदलाव पिछले यूनिटी कांग्रेस के बाद से ही नज़र आने लगा था. आदिवासी इलाक़े तो परंपरागत तौर पर नक्सलियों के गढ़ रहे हैं, लेकिन इस सीमा से निकल कर अपने साम्राज्य को और ज़्यादा विस्तार देने के सपने को वे साकार करना चाहते थे. यूनिटी कांग्रेस में यह भी निर्णय लिया गया कि संघर्ष में वैसी शक्तियों के साथ जुड़ने की भी कोशिश की जाएगी, जो कम्युनिस्ट विचारधारा में विश्वास नहीं रखती हैं.
सूत्रों की मानें तो नक्सली शहर के आसपास के गांवों को ब़फर ज़ोन बनाने की कोशिश में थे, जहां रहकर शहरी जीवन को प्रभावित करने की मुहिम को अंजाम दिया जा सके. नक्सलियों ने यमुना नगर को अपना केंद्र क्यों बनाया, इसे समझ पाना कोई मुश्किल नहीं है. एक तो यह राष्ट्रीय राजमार्ग से कई किलोमीटर दूर है. चंडीग़ढ और देहरादून यहां से 70 किलोमीटर से भी कम दूरी पर हैं तथा राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली भी यहां से ज़्यादा दूर नहीं है. यमुना नगर में जंगल है और नदी का किनारा भी, जो नक्सलियों को पुलिसिया कार्रवाई से बचने के लिए छिपने की सुरक्षित जगह उपलब्ध कराता है. सूत्रों का कहना है कि नक्सलियों ने दिल्ली और मुंबई के आसपास के इलाक़ों के औद्योगिक क्षेत्र को अपना निशाना बनाने की योजना बना रखी है.
सीपीआई (माओवादी) के महासचिव गणपथि ने 2007 में एक साक्षात्कार दिया था, जिसे दल के प्रवक्ता आज़ाद ने जारी किया था. इस साक्षात्कार में शहरी भारत में नक्सलियों की योजना का संकेत दिया गया था. साक्षात्कार में कहा गया था कि यह सच है कि भारतीय मध्य वर्ग की संख्या में ब़ढोतरी हुई है, लेकिन साथ ही भारतीय मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा महंगाई, बेरोज़गारी और जीवन की असुरक्षा जैसी समस्याओं से जूझ रहा है.
शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन के मद में ख़र्च बढ़ गए हैं. कहने का मतलब यह है कि मध्य वर्ग की संख्या भले बढ़ी हो, परेशानियां बढ़ीं तो उनकी हताशा भी बढ़ी. छात्र, शिक्षक और सरकारी कर्मचारी तक अपनी मांग मनवाने के लिए सड़कों पर उतर आए. यहां तक कि शॉपिंग मॉल और खुदरा क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से आहत दुकानदारों ने भी आंदोलन की राह पकड़ी.
एक बात और भी ग़ौर करने वाली है. कल तक जो चीज़ें विलासिता की वस्तु समझी जाती थीं, आज वे जीवन की ज़रूरत बन गई हैं और बाज़ार में हर रोज़ उपभोक्ता वस्तुओं के नई आमद से लोगों के ज़रूरत की सूची दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है. लोगों में हताशा इसलिए भी बढ़ रही है, क्योंकि वे इन वस्तुओं को हासिल कर पाने में ख़ुद को असहाय पा रहे हैं. वजह, उनकी सारी आमदनी तो भोजन, आवास, वस्त्र आदि पर ही ख़र्च हो जाती है. भारत का मध्य वर्ग महंगाई, मंदी और बेरोज़गारी से सर्वाधिक प्रभावित हुआ है. इन बातों को ध्यान में रखते हुए हमारी पार्टी ऐसे मसलों पर मध्य वर्ग को संघर्ष के लिए तैयार करने की योजना बना रही है. गृह मंत्रालय के उच्च पदस्थ सूत्रों से मिले संकेत के मुताबिक़, शहरी भारत में नक्सलियों से मुक़ाबला करने की कोई सुनिश्चित योजना नहीं है. साहनी के मुताबिक़, गृह मंत्रालय के पास तो आदिवासी इलाक़ों में भी बचाव के उपाय की कोई कारगर योजना नहीं है. वह समझता है कि समस्याग्रस्त इलाक़ों में अर्द्धसैनिक बलों की बटालियन भेज देने भर से समस्या का हल निकल आएगा. आंदोलन के खड़ा होने में व़क्त लगा है तो इसे इस तरह से ख़त्म भी नहीं किया जा सकता है. मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा भी साहनी की बातों से सहमति जताते हैं. वह कहते हैं कि यह विध्वंसकारी है. सरकार के रवैये से पता चलता है कि वह लोगों के दुखदर्द से कितनी दूर हो चुकी है. यह सरकार ही है, जो कहती है कि पाकिस्तान के साथ युद्ध समस्या का समाधान नहीं है. लेकिन अपने ही नागरिकों के लिए जंग का ऐलान करने में वह बेशर्मी पर उतर आती है. जिन स्थानों को नक्सलियों का गढ़ माना जाता है, संयोगवश वहां बड़े उद्योगपतियों के कल कारखाने भी हैं. और, इन कल कारखानों का मतलब है खनिज और वन्य संसाधनों का भरपूर दोहन और लूट. इन समस्याओं का समाधान खोजने की जगह सरकार नक्सली हिंसा की आड़ में इन इलाक़ों में विरोध की आवाज़ को दबा कर उद्योगपतियों की परेशानी दूर करना चाहती है. यहां सवाल यह है कि नक्सलियों के नाम पर निरीह ग्रामीणों को तबाह करने के अलावा क्या सरकार के पास इस समस्या का कोई ठोस समाधान भी है? नक्सली समस्या जटिल ज़रूर है, लेकिन इसका समाधान असंभव नहीं है. बशर्ते सरकार की मंशा सा़फ और इरादे मज़बूत हों और उसमें नेकनीयती ज़रूर हो.
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