Tuesday, September 15, 2009

देख तमाशा लोकतंत्र का
‘‘अपने-आप से सवाल करता हू
क्या आजादी तीन थके हुए रंगों का नाम है ,
एक पहिया ढोता है,
या इसका कोई खास मतलब होता है?
न कोई पूजा है, न कोई तंत्र है,
यह आदमी के खिलाफ
आदमी का खुला षड्यंत्र है।’’-धूमिल
संविधान
यह पुस्तक मर चुकी है
इसे न पढ़ें इसके शब्दों मंे मौत की ठंडक है
और एक - एक पृष्ठ जिंदगी के आखरी पल
जैसा भयानक यह पुस्तक जब बनी थी तो मैं पशु था
सोया हुआ पशु ओर जब मैं जगा
तो मेरे इंसान बनने तक
यह पुस्तक मर चुकी थी
अब यदि तुम भी इस
पुस्तक को पढ़ोगे तो
पशु बन जाओगे सोए हुए पशु।
-अवतार सिंह पाश
हमारा लोकतन्त्र

आज के समय मंे हम यदि लोकतन्त्र के बारे मंे बात करते हैं तो यह चीज़ निकल कर आती है जनता द्वारा जनता के लिए लेकिन सच भारत के संदर्भ मंे कुछ और ही है। आज लोकतन्त्र मंे इस बा के कोई मायने नहीं रह गए हैं। करोड़ांे रुपए खर्च करके हर गलत;शराब , विज्ञापन, जबरदस्तीद्ध रास्ते से जब कोई नेता आज चुनाव लड़ता है तो जाहिर है कि फायदा अरबांे मंे होने वाला है । यह लोकतन्त्र वास्तव मंे पूंजीपतियांे , दबंगांे के लिए है। जिसे पूरी स्वतन्त्रता है और कोई जवाबदेही नहीं । आम आदमी तो 1935 से चुनावी तमाशे देख रहा है । तब से आज तक कोई खासा परिवर्तन नहीं है। तब भी दलाल लोग कुर्सी पर बैठते थे और नीतियां ब्रिटिश साम्राज्यावादियांे के लिए और आज भी अगर कोई फर्क आया है तो वह यह कि आज साम्राज्यवादी एक नहीं कई देश हैं जहां से दलालांे को फायदा होता है उसी की गोद मंे जा बैठते हैं।

15वीं लोकसभा चुनाव पर विशेष

चुनावी महासंग्राम-लोकतन्त्र की त्रासदी और ढोंग

चुनाव बहिष्कार व क्रान्तिकारी हथियार बंद संघर्ष ही एकमात्र रास्ता।

देश मंे 15वें लोकसभा चुनावों की घोषणा होने के साथ ही चुनावी सरगर्मियां तेज होने लगी हैं। प्रत्येक पार्टी चुनावी चिलपौं के साथ बड़े जोर-शोर से झूठे फरेबवादियांे की झड़ी लगा रही है। इस समय जनता का सबसे बड़ा हितैषी बनना उसके ऐजण्डे मंे सबसे उपर है। चुनावी जंग जीतने के लिए वे कोई भी लुभावना तरीका अपनाना हीं भूल रही है। एक बार फिर फिल्मी कलाकारांे के चिकने चुपड़े चेहरे मैदान में उतार कर जनता की आंखांे मंे धूल झांेकने का प्रयास किया जा रहा है। ‘भेड़ की खाल मंे भेड़िये’ को चरितार्थ करते हुए नकाब पहन कर हमसे हमंे ही खाने की इजाजत लेना चाहते हैं। वे अपनी असलियत को सुन्दर , लुभावने वायदांे -आश्वासनांे, आरोप-प्रत्यारोपांे, चिकनी चुपड़ी बातांे , तथाकथित विकास के नारांे स ढक देना चाहते हैं ताकि वे अपना उल्लू सीधा कर सकंे। वास्तव मंे ये एक ही थाली के चटट्े-बटट्े हैं। जनता को नौंचने के मुदद्े पर ये सब एकमत हैं।संसदीय पार्टियों की वास्तविकतासंसदीय पार्टियांे का चरित्र आज मुख्यतः तीन ही राष्टीय दल भारत मंे दिखाई पड़ते हैं जिनका उपरी तौर पर देखने से तो लगता है कि इनके एजेण्डे अलग हैं पर वास्तविकता कुछ और ही है । कांग्रेस, भाजपा और वाम मोर्चा जिनमंे सबसे पुरानी कांग्रेस जिसका जन्म ही साम्राज्यवादियांे के साथ चलते हुए कुछ सुविधांए और जनता को भ्रमित करने के लिए हुआ, दूसरी भाजपा जिसको अपने पहचान के लिए साम्प्रदायिकता और राम मंदिर का सहारा लेना पड़ा और तीसरी वाम मोर्चा कहा जाने वाला सी.पी.आई,सी.पी.एम जिनका काम रहा जैसे तैसे कुर्सी हथियाना । आज तक के यदि इन सभी के शाासन कालांे और राज्यांे मंे लागू किए गए इनके एजेण्डे पर यदि नजर डाली जाए तो वास्तविकता मंे सभी पार्टियां उदारीकरण निजीकरण,भूमण्डलीकरण की साम्राज्यवादपरस्त नीतियांे पर सहमत हैं। खासतौर पर 1991 के बाद बनी तमाम सरकारांे ने इन्हीं नीतियांे को सिदांततः अपनाया है। पिछले 18 सालांे मंे विदेशी कंपनियांे ने लगभग 37254 करोड़ रुपए का निवेश भारत मंे किया है। चाहे नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह नीत कांग्रेस रही हो या वाजपेयी के नेतृत्व मंे भारतीय जनता पार्टी अथवा देवेगौड़ा के नेतृत्व मंे सी.पी.एम. समर्थित सरकार सभी ने भारत मंे विदेशी निवेश को बढ़ावा देने को विकास का मूलमंत्र के रूप मंे स्वीकार किया है। उन्हांेने खनन सहित लगभग तमाम क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोल दिया। लोहा, कोयला, बाक्साइट आदि के खनन के साथ-साथ शोधन और निर्माण के प्लांट लगाने के रास्ते खोल दिए। साथ ही ढांचागत सुविधांए उपलब्ध कराने के लिए पावर प्लांट, हवाई अडडे, सड़क, रियल स्टेट द्वारा आवास , पयर्टन क्षेत्र तथा बड़े बांध बनाने की प्रक्रिया को तेज कर दिया गया। यहां तक कि इस निवेश के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम पर भारत मंे औपनिवेशिक टापू बनाने की मंजूरी भी भारतीय संसद ने दे दी। अैर इस निर्माण को सभी पार्टियांेे ने बगैर कोई सवाल उठाए सहमति प्रदान कर दी। विदेशी निवेश के इस खुले आमंत्रण ने खासतौर पर इन परियोजनाआंे के माध्यम से विस्थापन की समस्या को गहरा दिया और सभी संसदीय राजनैतिक दल विकास के इस माडल के लिए विस्थापन करने के लिए सहमत हैं। विदेशी निवेश के लिए रास्ता साफ करने के बाद लगभग सभी राज्यांे की सत्तारुढ़ राजनैतिक दलांे ने विभिन्न औद्योगिक घरानों के साथ 65 इकरारनामंे करने शुरु कर दिये। हरियाणा मंे कांग्रेस नीत हुड्डा सरकार ने सत्ता मंे आते ही बड़ी-बड़ी परियोजनाआंे के लिए किसानांे को उजाड़ने की योजना बनानी शुरु कर दी थी। गुड़गांव व झज्जर मंे विशेष आर्थिक जोनांे, पूंजीपतियांे को बिजली देने के लिए पावर प्लांटांे के लिए जमीन हड़पने का काम जारी है। जिसमंे सबसे बड़े पावर प्लांट के रुप मंे 2450 एकड़ जमीन किसानांे से छीनी जाएगी। इस योजना के प्रचार प्रसार पर भी करोडांे रुपए खर्च किए जा रहे हैं।उड़ीसा मंे बीजू जनता दल नीत सरकार ने पिछले चार सालांे मंे विभिन्न कंपनियांे के साथ 65 इकरारनामें किये। इन कंपनियांे मंे मित्तल, भूषण, वेदान्ता, होलसीम, पोस्को टाटा, जैसी विदेशी व देशी कंपनियां शामिल हैं। इन परियोजनाआंे से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित होने वालों की संख्या लाखांे मंे होगी। लाखांे लोेगांे को उनके जल जंगल जमीन से उजाड़ कर उत्पादन क्षेत्र से बाहर कर दिया जाएगा। कांग्रेस सहित अन्य दलांे की सरकारांे द्वारा विस्थापित लगभग 20 लाख लोग पुर्नवास नहीं हो पाया है। इसके बावजूद वहां प्रोजेक्ट लगवाने के लिए सरकार संरक्षण मंे पुलिस और कंपनी के गुण्डांे ने कई लोगांे की हत्या कर दी। झारखण्ड मंे भी पिछले चार सालांे मंे 90 इकरारनामंे हस्ताक्षरित किए गए। इन चार सालांे मंे हालांकि कई बार मुख्यमंत्री मंे फेर बदल हुए। परन्तु नए-नए इकरारनामे हर सरकार द्वारा किए गए। भाजपा के अर्जुन मुण्डा, निर्दलीय मधु कोड़ा सहित झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन के छोटे से कार्य काल की एकमात्र उपलब्धि है काठीकुण्ड मंे सीइएससी-आरपीजी ग्रुप की कंपनियांे के एस पावर प्लांट लगाने का विरोध करने वाली निरीह जनता पर दो-दो बार गोलियां बरसवाना जिसका इकरानामा 15.09.2005 को भाजपा नीत राष्टीय लोकतान्त्रिक गठबन्धन सरकार के शासनकाल मंे किया गया था।इसी तरह से छतीसगढ़ जहां राजनांदगांव लोकसभा के उपचुनाव के पूर्व 13 मार्च 2007 को मुख्यमंत्री ने किसान प्रतिनिधियांे को बुलवाकर आश्वासन दिया कि अधिग्रहण निरस्त करने के आदेश वे चुनाव के बाद जारी करवा देंगे। 21 जून 2007 को सयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधि फिर मुख्यमंत्री से मिले तो मुख्यमंत्री ने उसी ज्ञापन पर ‘स्थल परिवर्तन कियाज जाए’ टीप लिखकर उद्योग को भेजा। कलेक्टर राजनांदगांव द्वारा भूमि अधिग्रहण निरस्त करने के लिए 18 जुलाई 2007 को औेर 1 सितम्बर 2007 को पत्र लिखना भी बताया गया। परन्तु इसके बाद 5 सितम्बर 2007 को भूअर्जन अधिनियम की धारा 6 के तहत नोटिस निकाल दिया तथा किसानांे के साथ सरासर धोखाधड़ी की । बस्तर मंे लोहांड़ीगुड़ा, धुरली, रावघाट-चारगांव मंे जनता के तीव्र विरोध के बावजूद सरकार वहां की जमीन विभिन्न स्टील परियोजनाआंे को देने पर तुली हुई है। भाजपा नीत सरकार बस्तर की समस्त प्राकृतिक सम्पदा को विदेशी कम्पनियांे के हवाले करने और अपनी दलाली से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा या जेबें भरने को आतुर है। प.बंगाल मंे माकपा का कुकृत्य तो किसी से छिपा नहीं जिस तरह से वहां के किसानांे की अपनी जमीन की लड़ाई को फासीवादी तरीके से कम्युनिस्ट कही जाने वाली सरकार ने दबाया वह निहायती शर्मनाक रहा। वहां पर यह तथ्य साफ हो गया कि चाहे मोदी हो, करात हो या फिर हुडड्ा हो सब पूंजीपतियांे की चाकरी करने वाले हैं । वहीं से इन्हंे चुनाव लड़ने के लिए चंदा मिलता है और उन्हीं के लिए नीतियां बनाकर इन्हंे अपनी दलाली।नेताओं का काला धनचुनाव आयुक्त एन.गोपालस्वामी की बात पर गौर फरमाई जाए तो वे कहते हैं कि कुकरमुतांे की तरह उगती राजनैतिक पार्टियाॅं केवल अपना काला धन सफेद में बदलने के लिए हैं न कि राजनैतिक गतिविधियांे व जनहित के लिए। बेशक वे अपने दायरे मंे रहकर बोलते हैं लेकिन यह एक कड़वा सच है । उनके अनुसार देश मंे 967 राजनैतिक पार्टियां हैं जिसमंे से अधिकतर एक कमरे, एक मेज़ और चार कुर्सियांे के साथ चल रही हैं। जिनका एक ही मकसद है ष्बवदअमतज इसंबा उवदमल पदजव ूीपजमष् हाल ही में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनावांे पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि भारत मंे पैसा व शारीरिक शक्ति ;डवदमल ंदक उनेबसम चवूमतद्ध चुनाव की नियमित धुरी है।यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि 20 फीसदी सांसदांे पर अपराधिक मकद्दमंे चल रहे हैं। इसके अलावा ऐसे बहुत से काले कारनामंे होते हैं जो उजाग़र नहीं हुए। बिहार मंे 49 , यू.पी. मंे 39, तमिलनाडू मंे 33, झारखंड मंे 31, प.बंगाल मंे 16 प्रतिशत सांसदों पर अपराधिक मामले चल रहे हैं।स्विस बैंकिंग एसोसिएशन की 2006 मंे जारी रिपोर्ट के अनुसार वहाॅं के बैंक मंे काला धन जमा करने वाले दुनिया के पाॅंच उपरी देशांे मंे भारत सबसे उपर है। यह पैसा वो है जो यहां के दलाल, भ्रष्ट शासक वर्ग ने 1947 से अब तक जनता की लूट से जमा किया है । इस लूट मंे ब्यूरोक्रेटस , नेता और कुछ पूंजीपतियांे का पैसा शामिल है। काले धन पर जारी स्विस बैंकिंग ऐसोसिशन की रिपोर्ट मंे भारत शीर्ष पर था। वहां जमा 1456 बिलियन डाॅलर आम आदमी की लूट का जीता जागता ग़वाह है। 1456 बिलियन डाॅलर यानि 675 करोड़ रूपए, यह इतना धन है कि हम पंचर्षीय योजाआंे के लिए आवश्यक मुद्रा की पूर्ति कर सकता है।सबसे बड़े लोकतन्त्र की संसद का अनूठा खेल चैदहवीं लोकसभा के लिए 2008 पूरी तरह सियासत के खेल के लिए जाना जाएगा। इस साल मंे 100 दिन संसद चलाने की परंपरा के विपरीत केवल 32 दिन तक ही संसद चली। जबकि यह अन्तिम सत्र पांच महीने चला। यानि सबसे लम्बे सत्र में सबसे कम बैठकंे हुईं। यदि इतिहास पर निगाह डाली जाए तो आपातकाल के नाजुक दौर मंे भी 98 दिन संसद चली।कई बार तो संसद का कोरम पूरा नहीं होता, पार्टियाॅं अपने सांसदांे को भेड़-बकरियांे की तरह इकट्ठा करके लाती हैं। जब विधेयक बहस के लिए रखे जाते हैं तो अधिकांश सांसद तो मौजूद ही नहीं होते, वैसे भी सब कानून-विधेयकांें पर बहस संसद की दूसरी बैठक ;दोपह बादद्ध होती है तब तक मौजूदा सांसद भी चले जाते हैं। और जो बचते हैं वे भी गंभीरता से बहस मंे हिस्सा नहीं लेते। सच तो यह है कि उन्हंे कोई मतलब ही नहीं होता कि कोई कानून या विधेयक जनता के हित मंे है या नहीं । वे बस वही करते हैं जो उनके आक़ा उन्हंे आदेश देते हैं। इतने कम समय मंे इस संसदीय जनवाद पर इतने दाग़ लग गए कि कभी नहीं मिट पाएॅंगे। नोटांे के बंडलांे के बीच संसद की गरिमा कराहती रही। डैमोक्रेसी पैसांे मंे धुल गई और देखने को मिला कि उवदमल चवूमत और चवसपजपबंस चवूमत के बीच कितना नज़दीकी रिश्ता है।इस वर्ष तो लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी भी आरोपांे से नहीं बच पाई । संसदीय इतिहास मंे पहली बार किसी लोकसभा अध्यक्ष को अपनी ही पार्टी से निष्कासित होना पड़ा। लेेकिन संसद का वो सबसे काला दिन रहा जब हवा मंे हजार-हजार की गडिडयां लहराई गई वो भी उस मौके पर जब लोकतन्त्र की वाहक माने जाने वाली केन्द्र सरकार का परीक्षण हो रहा था।यहां तक कि इस पूरे मामले में जांच समिति व संसद भी अपने उपर दाग़ लगाने वालों को पकड़ नहीं पाई।चैदहवीं लोकसभा के अन्तिम सत्र मंे संसद की कार्यवाही बड़ी ऐतिहासिक तरीके से चली। संसद मंे बिना किसी बहस मनसूबे के 17 मिनट मंे 8 बिल पास कर दिए। इसका सीधा मतलब ये है कि किसी भी विधेयक के बारे मंे कुछ जानने की कोशिश नहीं की गई। और आंख बंद करके एकमत से हाथ खड़े करके पास कर दिए। यानि संसद मंे बैठे किसी सांसद को कोई लेना-देना नहीं कि कोई विधेयक जन के पक्ष मंे है या नहीं। ऐसे लोग जनप्रतिनिधि कैसे हो सकते हैं।जनता के पैसे का दुरुपयोगकरोड़ांे खर्च होते हैं, सांसदांे के भोग विलास पर।सांसदांे के ऐशो आराम के लिए सरकार लगातार रियायतें देती है। 1954 मंे एक सांसद का मासिक वेतन 400 रुपए था। जो अब 30 गुणा बढ़कर 12000 रुपए हो गया है। इस के साथ-साथ एक सांसद को 500 रुपए दैनिक भत्ता, 10,000 रुपए संसदीय क्षेत्र भत्ता, 14000 मासिक कार्यालय भत्ता व 8 रुपए प्रति किलोमीटर के हिसाब से यात्रा भत्ता दिया जाता है। इस सब के अलावा एक सांसद को दो टेलिफोन सैट मुफत मिलते हैं जिन पर 1,70,000 काल फ्री मिलती हैं। लोगांे के घरांे मंे बिजली रोशनी के लिए नहीं होती और इनके घरांे मंे 50,000 बिजली युनिट भी फ्री मिलते हैं। कभी भी कितनी ही बार प्रथम श्रेणी की रेल यात्रा मुफत और 40 हवाई जहाज के टिकट फ्री मिलते हैं। इस तरह से एक सांसद का मासिक खर्च 2.66 लाख बनता है। जो 32 लाख प्रतिवर्ष होगा। इस तरह से देखा जाए तो 534 सांसदांे की ऐश-परस्ती पर 835 करोड़ रुपए खर्च होते हैं।कितना महान् लोकतन्त्र है भारत देश का । लोकसभा चुनाव पर एक अनुमान के अनुसार इस बार 10 हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे। यह चुनाव अब तक का ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया का सबसे मंहगा चुनाव होगा। इतनी बड़ी रकम जो जनता के खून पसीने की गाढ़ी कमाई है उसे पानी की तरह खर्च करने वाले जनहितैषी या जनप्रतिनिधि कैसे हो सकते हैं।क्या वास्तव मंे भारत जनतान्त्रिक हैभारत का चरित्र अर्दसामंती अर्द औपनिवेशिक देश होने नाते, यहां बुर्जुआ जनवाद भी नहीं है जैसे कि दुनिया के अन्य पूंजीवादी देशांे मंे होता है। यहाॅं तो घोेेेेेेेेर तानाशाही पूर्ण शासन के उपर वोटिंग मशीने थांेप कर उसे जनवाद का नाम दे दिया गया है। ऐसा जनवाद जहां राजनैतिक व सामाजिक किसी भी तरह की कोई आजादी नहीं है। सरकारांे द्वारा टाडा,पोटा जैसे कानून पास करके व हड़तालों पर प्रतिबंध लगाकर लोगांे के मुॅंह पर ताले जड़ दिए गए है ताकि कोई भी आवाज न उठा सके । व्यक्तिगत जिन्दगी भी गुलामी की बेड़ियांे से जकड़ी है। महिलांए भेदभाव-शोषण का शिकार हैं। गावांे मंे उच्च जातियांे की दादागिरी के कारण दलितांे के पास कोई अधिकार नहीं है। नौकरशाही कहीं भी जवाबदेह नहीं है। पुलिस अपने आप मंे किसी माफिया से कम नहीं है जो आम लोगांे मंे जनवाद का तिनका भर नहीं है। यदि हम सच्चा जनवाद स्थापित करना चाहते हैं तो इस व्यवस्था को समूचे जड़ उखाड़ परिवर्तित करना होगा।आया राम गया राम की अवसरवादिता पूर्ण राजनीतिजैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते हैं राजनीतिक दलांे मंे खूब उठा-पटक दिखाई देने लगती है। कल तक जो मित्र थे वे दुश्मन और विरोधी सहयोगी दिखाई देने लग जाते हैं। घोर भ्रष्टाचार और अवसरवादिता के चलते नेता बड़ी तेजी से पार्टियां बदल रहे हैं टिकट मिलने की स्थिति मंे एक दूसरे का सिर फोड़ रहे हैं। ऐसी स्थिति में जब लोगांे का इस व्यवस्था से विश्वास उठने लगा है तो ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं कि इसे चुनाव से वैधता दिखाई जाए। ‘‘अपना कीमती वोट डालें, आचार संहिता तोड़ने पर कड़ी कार्यवाही की जाएगी, ऐसी बातांे का रेडियो , टी.वी. व अखबारांे से लगातार प्रचार। यह सब आम आदमी की रूचि पैदा करने के लिए है । लेकिन फिर भी आम आदमी की धारणा यही है कि ‘‘सब चोर हैं’’ इसका मतलब यह है कि लोगांे को विकल्प नजर नहीं आता इसलिए चोरांे मंे से किसी एक को चुनना पड़ता है । लेकिन तब विकल्प क्या हो!चुनाव बहिष्कार व जनसत्ता के निर्माण हेतु संघर्ष का आग़ाज करो।आमतौर पर यह प्रचारित किया जाता है कि जो लोग इस चुनावी महास्वांग का बहिष्कार करते हैं वे चुनावांे और जनवाद के खिलाफ हैंै । लेकिन सच यह नहीं हैं वास्तव मंे वही लोग असली लड़ाई लड़ रहे हैं। वे ही जनता के जनवाद और एक पारदर्शी व उचित प्रणाली के लिए खड़े हैं। इससे भी ज्यादा वे लोग तो हर स्तर पर, समूचे समाज का जनवादीकरण करने के पक्ष मेेें हैंै। न कि जनवाद के मुखौटे या दिखावे के । मौजूदा ढांचे मंे यह सम्भव नहीं है इसलिए इसका बहिष्कार किया जाना चाहिए। नौकरशाही जनता को प्रताड़ित करना, अपमानित करना ही अपना काम समझती है। देश की मुख्य राजनैतिक;वोट बटोरु पार्टियांद्ध जहां एक व्यक्ति की हकूमत चलती है ऐसी वन मैन आर्मी हैं। ऐसे में पांच साल मंे एक बा वोट डालने को लोकतन्त्र कहा जा सकता है। इसका मतलब चुनाव झूठे जनवाद को वैधता प्रधान करने के सिवा कुछ नहीं है। यह जनता को धोखे देने की तरकीबांे और अपनी जेबें भरने का ही एक हिस्सा है। चुनाव हो या न हो लेकि इस व्यवस्था चाहिए। कमजोर और बेकार नींव पर कभी भी मजबूत और अच्छी इमारत का निर्माण नहीं हो सकता। एक नया ढाॅंचा खड़ा करने के लिए इसे ढहाना ही होगा।और फिर नया ढाॅंचा खड़ा करना होगा। चलो मान लिया जाए एक अच्छा उम्मीदवार जीत भी जाता है, तो वो ऐसे मंे क्या कर सकता है जब समस्त नौकरशाही, प्रशासन, पुलिस, बल, सेना व बड़े व्यावसाइयांे के प्रभुत्ववाली आर्थिक व्यवस्था, सभी अच्छी इच्छाआंे के खिलाफ खड़े होंगे? या तो उन्हीं लोगांे मंे समाहित हो जाना होगा अन्यथा वहां से बाहर निकल जाना होगा।ााकपा/माकपा पहले ही उन्हीं मंे समाहित हो चुके हैऋ और आज शासक वर्ग का एक हिस्सा हैं। और वहां मौजूद बाकी भी उन्हीं के उन्हीं के रास्ते पर चल रहे हैं। बेशक बहिष्कार एक नकरात्मक कार्यवाही है ऋ लेकिन इसे अर्थपूर्ण बनाने हेतु इसका अनुसरण कुछ सकारात्मक तरीके से करना चाहिए। इस देश मंे कई ऐसी ताकते हैं जो एक नई व सच्ची जनवादी व्यवस्था का निर्माण करना चाहती हैं। स्वाभाविक है कि नई व्यवस्था का निर्माण करने मंे इन ताकतांे के साथ भागीदारी करना एक विकल्प हो सकता हैऋ या फिर कम से कम उनका समर्थन तो करना ही चाहिए । हमंे ज्यादा से ज्यादा चुनाव बहिष्कार का प्रचार करना चाहिए और लोगांे को अपने तर्क के साथ सहमत करवाना चाहिए। तभी हम इस दलाल शाासक वर्ग को कमजोर कर पांॅएगे।

Sunday, September 13, 2009

कुम्हरिया न्यूक्लियर पावर प्लांट हरियाणा (फतेहाबाद)

कुम्हारिया न्यूक्लियर पावर प्लांट
हर पल मरेंगे लोग
‘मौत के साए में रोशनी की तलाश’
भारत-परमाणु डील पिछले एक साल से मनमोहन सोनिया के भाषणांे मंें जनता की डील बनी रही जिसे इस समझौते के बारे मंे कुछ भी नहीं मालूम या यूं कहंे हमारे देश का इतिहास रहा है जनता को किसी भी योजना और कानून के लागू होने तक उसके दांव-पेंच और पेचीदगियां नहीं बताई जातीं। उसी तरह समझौते हो जाते हैं और लोगांे को केवल इतना पता चलता है कि सरकार ने उनकी जमीन किसी प्रोजेक्ट के लिए दे दी और वह वहां नहीं रह सकते। आज भी ऐसा ही हो रहा है केन्द्र सरकार ने परमाणु समझौते को पार लगा दिया। इस समझौते के बारे मंे पता तो उन्हंे भी नहीं जो इसे पार लगाने की कोशिशंे कर रहे हैं व उन्हंे जो विरोध तो बातांे मंे कर रहे हैं लेकिन जनता के सामने कोई तस्वीर साफ नहीं कर पा रहे है। इस शर्मनाक समझौते पर मोहर लगने के साथ ही हरियाणा मंे देश के सबसे बड़े 2600 मेगावाॅट के पाॅवर प्लांट का रास्ता भी साफ हो गया है अब इस प्लांट की प्रकिया मंे तेजी आएगी। इस प्लांट का प्रस्ताव केन्द्र सरकार को हरियाणा सरकार द्वारा बहुत पहले ही भेजा जा चुका है केवल केन्द्र की मोहर लगनी बाक़ी है । लेकिन यह बात ध्यान देने योग्य है कि इस प्लांट से संबंधित सारी योजना बन चुकी है बस इसे कार्यनीतिक रूप देना रह गया है। 2450 एकड़ भूमि मंे लगने वाले इस प्लांट को कुम्हारिया पाॅवर प्लांट के नाम से जाना जाएगा। इसका नाम कुम्हारिया इसलिए रखा गया है। इस प्रोजेक्ट के लिए जमीन फतेहाबाद जिले के गोरखपुर गांव की 1700 एकड़, कुम्हारिया की 300 व काजलहेड़ी की 200 एकड़ जमीन एक्वायर की जाएगी। यह जमीन कृषि उत्पादन की दृष्टि से उच्च उत्पादकता वाली जमीन है। इस सारी जमीन मंे पंचायती या सरकारी जमीन का कोई हिस्सा शामिल नहीं किया गया है। यदि इस जमीन का वर्गीकरण किया जाए तो 2000 एकड़ जमीन अच्छी उत्पादकता वाली है केवल गोरखपुर गांव की 450 एकड़ भूमि सेमग्रस्त है। जिसमंे से 200 एकड़ पूरी तरह खराब हो चुकी है। जिसकी उत्पादकता छपसस है यह भूमि आम्लिक ;एसिड ग्रस्तद्ध हो चुकी है। इसका कारण 1995 मंे बाढ़ का प्रभाव है, जिसे लगभग 12 साल बीत चुके हैं इतने लंबे अरसे के बाद भी इसका सरकार या कृषि विभाग द्वारा कोई उपचार न किए जाने के बाद यह आज पूरी तरह खराब हो चुकी है। इस सेम की समस्या के निपटान के लिए इस दौरान एक डेªन बनाई गई , इस डेªन का पानी फतेहाबाद ब्रांच मंे डाला जाना था लेकिन इस पानी को माईनर मंे डाला गया जिसका लोगांे ने विरोध किया। इसके अलावा किसी विभाग द्वारा कोई कदम नहीं उठाया गया। यदि इस जमीन के अधिग्रहण से प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित होने वाले लोगांे का वर्गीय विश्लेषण किया जाए तो केवल 10 जमींदार परिवार हैं जो प्रत्येक 50 एकड़ से अधिक भूमि के ये मालिक है, भूमिहीन हो जाएंगे। इसके अलावा 10ः धनी किसान, 20ः मध्यम किसान प्रभावित हांेगे। बाकी 65: गरीब किसानांे की जमीन इस प्लांट के लिए एक्वायर होगी। यह स्थिति तो केवल जमीन की है। जब इतने बड़े इलाके से जुड़े रोजगार की बात करते हैं तो हम देखते हैं कि खेती का काम ऐसा काम जिसमंे कुछ लोग प्रत्यक्ष रूप से काम करते हैं और एक बड़ी संख्या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होगी । प्रत्यक्ष रूप से 350 परिवारांे के 1500 लोगांे का रोजगार भी छिन जाएगा। जिसमंे ज्यादातर परिवार खेती पर ही निर्भर करते हैं। अब तक यह देखा गया है कि जहां भी भूमि का अधिग्रहण किया गया है वहां पर एक बड़ी समस्या खेत मजदूरांे की बनकर उभरी है। 6ध्12ध्2007 को ‘जागरण’ मंे छपी एक रिपोर्ट मंे ‘नवदान्या और एक्शनैड’ नामक गैर सरकारी संस्थाआंे के सर्वे के अनुसार कुछ महत्वपूर्ण तथ्य साफ हुए हैं। उनकी रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार भूमि अधिग्रहण करने से अब तक लाखांे खेत मजदूर बेरोजगार हो गए हैं। शहरी आवासीय कालोनियां बनाने, बांधांे, विशेष आर्थिक जोनांे व पावर प्लांटांे के निमार्ण हेतु जमीन अधिग्रहण करते समय खेतिहर मजदूरांे को शुरू से ही नज़रअंदाज किया जाता रहा है। क्या जनता जमीन देना चाहती है ? इस पूरे प्रोजेक्ट के लिए एक्वायर की जाने वाली कुल 2450 एकड़ जमीन मंे से केवल 450 एकड़ भूमि जो सेमग्रस्त है केवल इसके मालिक ही जमीन देना चाहते हैं। चूंकि 200 एकड़ भूमि जो पूरी तरह अम्लीय हो चुकी है उसमंे कुछ भी पैदावार नहीं होती और 250 एकड़ भूमि मंे औसत पैदावार का 1/3 हिस्सा भी मुश्किल से पैदा होता है। इसके अलावा 2000 एकड़ जमीन के मालिक बिल्कुल भी अपनी जमीन नहीं देना चाहते। सबसे अहम् बात तो यह है कि लोगांे को प्रोजेक्ट के बारे मंे कुछ पता ही नहीं है। प्रोजेक्ट के लगने से यहां उनकी रोजमर्रा की जिंदगी पर पड़ने वाले प्रभावांे के बारे मंे ये अनभिज्ञ हैं। वे नहीं जानते कि परमाणु उर्जा केन्द्र से निकलने वाली विकिरणांे से भविष्य मंे कितने भयानक परिणाम होगें हैं। सच तो यह है कि स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इन दुष्प्रभावांे के बारे मंे कोई नहीं जानता। इस प्लांट से जुड़े हर तथ्य पर नजर डाली जाए तो यह तय है कि आस-पास के दस किलोमीटर तक के इलाके मंे लोगांे का स्वास्थ्य इससे बुरी तरह प्रभावित होगा। कैंसर, विकलांगता व चर्म रोगांे की इस इलाके मंे भरमार तो होगी।साथ ही साथ आनुवांशिक अपंगता की दर भी बढे़गी। इस प्लांट से लगने वाले जो गांव इससे प्रभावित होगे,उनमंे गोरखपुर,काजला,कुम्हारिया,मोची, चैबारा,जाण्डली खुर्द, चन्द्रावल, झलनियां,सिवानी आदि मुख्य हैं। पशुपालन होगा बड़े स्तर पर प्रभावित अब तक जहां भी भूमि एक्वायर की गई है वहां पशुपालन बड़े स्तर पर प्रभावित हुआ है जिससे इस पर निर्भर परिवारांे व उन महिलाआंे के सामने रोजगार का संकट खड़ा हुआ है जो पशुपालन के जरिये अपने परिवार की आर्थिक मदद् करती हैं। भूमि अधिग्रहण से अब तक भेड़-पालन, मुर्गी-सुअर फार्मांे मंे कमी आई है। लेकिन न्यूक्लियर पाॅवर प्लांट केवल उसी भूमि पर निर्भर पशुपालन को ही नहीं बल्कि आसपास के इलाके मंें भी विपरीत प्रभाव डालेगा। इससे पशुआंे मंे बीमारी पैदा होगीं और व्यावसायिक पशुपालन एक घाटे का सौदा बन जाएगा। इससे व्यापक तौर पर हरियाणा का दुग्ध उत्पादन भी कम होगा। सरकार यह प्लांट यहां क्यांे लगाना चाहती है? 2600 मेगावाट के प्लांट को चलाने के 300 क्यूसिक पानी की निर्बाध गति की आवश्यकता होती है । जो यहां फतेहाबाद ब्रांच और सिंधु मुख फीडर देने मंे सक्षम हैं। प्रोजेक्ट के यहां लगाने से विकास की क्या संभावनांए हैं? विकास की हर व्यक्ति के लिए अलग परिभाषा होती है और अपनी तरह के मायने हैं। जो विकास होगा वह मजदूर और गरीब किसान का नहीं बल्कि बड़े पूंजीपतियांे और बहुराष्ट्रीय कम्पनियांे का विकास होगा। उनके लूट के अवसर और खुलंेगे। क्या इसके बाद बिजली की समस्या समाप्त हो जाएगी? नहीं, ये प्लांट जो बिजली उत्पादन के नाम पर जमीन अधिग्रहण करके लगाएं जा रहे हैं वो खेतांे मंे किसानांे को बिजली देने या ‘लगने वाले बिजली के कटांे की समस्या का हल करने के लिए नहीं बल्कि उन कंपनियांे की बिजली देने के लिए है जो विशेष आर्थिक जोनांे मंे आने वाली हैं? इस प्लांट के लगने से रोजगार के कितने अवसर पैदा होंगे? सरकारी दावा यह है कि प्लांट मंे 10000 लोगांे को नौकरियां मिलंेगी और40000 लोगांे के लिए अतिरिक्त रोजगार पैदा होगा। इसे कितना सही माना जा सकता है? नहीं, ये दावे केवल भ्रमित करने के लिए किए जाते हैं। बाद मंे कम्पनियां व सरकार दोनांे अपनी बात से मुकर जाते हैं। दूसरी बात यह है कि जो रोजगार पैदा होगा वो योग्यता मंे देखंे तो किसान के बेटे के लिए नहीं होगी वह इतनी योग्यता नहीं ले सकता कि इंजीनियर बन पाए वहां। यहां के बच्चे एक चपड़ासी या मजदूर ही बन पाएंगे अब यह बात सोचने योग्य है कि ऐसे कितने लोगांे की वहां आवश्यक्ता होगी। यदि यह प्लांट इतना खतरनाक है तो सरकार इसे क्यांे लगाना चाहती है क्या इससे बिजली उत्पादन कोयले या बिजली जैसे अन्य तरीकांे से सस्ता है ? नहीं, न्यूक्लियर ;यूरेनियमद्ध से बिजली उत्पादन, कोयले और अन्य तरीके से डेढ़ गुणा मंहगा है और ज्यादा खतरनाक भी। यह केवल इसीलिए लगाया जा रहा है क्यांेकि सरकार अमेरिका के आगे जैसे विकसित देशांे के आगे हमारे देश के लिए खुले द्वार नीति अपनाकर उनकी दलाली कर रही है आज वहां के माल के लिए भारत एक बाजार के रूप मंे दिख रहा है इसी चाकरी का नतीजा पाॅवर प्लांट के रूप मंे हमारे सामने है। क्या दूसरे देश भी प्लांट लगा रहे हैं ? नहीं, पिछले एक दशक मंे विकसित देशंांे मंे प्लांटांे की संख्या मंे कमी आई है, नया लगाने की बजाय पुराने चल रहे प्लांटांे को बन्द किया जा रहा है।
कुम्हारिया न्यूक्लियर पावर प्लांट- हर पल मरेंगे लोग ‘मौत के साए में रोशनी की तलाश

कुम्हारिया न्यूक्लियर पाॅवर प्लांट।’ भारत-परमाणु डील पिछले एक साल से मनमोहन सोनिया के भाषणों में जनता की डील बनी रही जिसे इस समझौते के बारे में कुछ भी नहीं मालूम या यूं कहें हमारे देश का इतिहास रहा है जनता को किसी भी योजना और कानून के लागू होने तक उसके दांव-पेंच और पेचीदगियां नहीं बताई जातीं। उसी तरह समझौते हो जाते हैं और लोगों को केवल इतना पता चलता है कि सरकार ने उनकी जमीन किसी प्रोजेक्ट के लिए दे दी और वह वहां नहीं रह सकते। आज भी ऐसा ही हो रहा है केन्द्र सरकार ने परमाणु समझौते को पार लगा दिया। इस समझौते के बारे में पता उन्हें भी नहीं जो इसे पार लगाने कोशिशें कर रहे हैं व उन्हंे जो विरोध तो बातें मंे कर रहे हैं लेकिन जनता के सामने कोई तस्वीर साफ नहीं कर पा रहे है। इस शर्मनाक समझौते पर मोहर लगने के साथ ही हरियाणा मंे देश के सबसे बड़े २६० मेगावाट के प्लांट का रास्ता भी साफ हो गया है अब इस प्लांट की प्रकिया मंे तेजी आएगी। इस प्लांट का प्रस्ताव केन्द्र सरकार को हरियाणा सरकार द्वारा बहुत पहले ही भेजा जा चुका है केवल केन्द्र की मोहर लगनी बाक़ी है । लेकिन यह बात ध्यान देने योग्य है कि इस प्लांट से संबंधित सारी योजना बन चुकी है बस इसे कार्यनीतिक रूप देना रह गया है। 2450 एकड़ भूमि मंे लगने वाले इस प्लांट को कुम्हारिया पाॅवर प्लांट के नाम से जाना जाएगा। इसका नाम कुम्हारिया इसलिए रखा गया है। इस प्रोजेक्ट के लिए जमीन फतेहाबाद जिले के गोरखपुर गांव की 1700 एकड़, कुम्हारिया की 300 व काजलहेड़ी की 200 एकड़ जमीन एक्वायर की जाएगी। यह जमीन कृषि उत्पादन की दृष्टि से उच्च उत्पादकता वाली जमीन है। इस सारी जमीन मंे पंचायती या सरकारी जमीन का कोई हिस्सा शामिल नहीं किया गया है। यदि इस जमीन का वर्गीकरण किया जाए तो 2000 एकड़ जमीन अच्छी उत्पादकता वाली है केवल गोरखपुर गांव की 450 एकड़ भूमि सेमग्रस्त है। जिसमंे से 200 एकड़ पूरी तरह खराब हो चुकी है। जिसकी उत्पादकता छपसस है यह भूमि आम्लिक ;एसिड ग्रस्तद्ध हो चुकी है। इसका कारण 1995 मंे बाढ़ का प्रभाव है, जिसे लगभग 12 साल बीत चुके हैं इतने लंबे अरसे के बाद भी इसका सरकार या कृषि विभाग द्वारा कोई उपचार न किए जाने के बाद यह आज पूरी तरह खराब हो चुकी है। इस सेम की समस्या के निपटान के लिए इस दौरान एक डेªन बनाई गई , इस डेªन का पानी फतेहाबाद ब्रांच मंे डाला जाना था लेकिन इस पानी को माईनर मंे डाला गया जिसका लोगांे ने विरोध किया। इसके अलावा किसी विभाग द्वारा कोई कदम नहीं उठाया गया। यदि इस जमीन के अधिग्रहण से प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित होने वाले लोगांे का वर्गीय विश्लेषण किया जाए तो केवल 10 जमींदार परिवार हैं जो प्रत्येक 50 एकड़ से अधिक भूमि के ये मालिक है, भूमिहीन हो जाएंगे। इसके अलावा 10ः धनी किसान, 20ः मध्यम किसान प्रभावित हांेगे। बाकी 65: गरीब किसानांे की जमीन इस प्लांट के लिए एक्वायर होगी। यह स्थिति तो केवल जमीन की है। जब इतने बड़े इलाके से जुड़े रोजगार की बात करते हैं तो हम देखते हैं कि खेती का काम ऐसा काम जिसमंे कुछ लोग प्रत्यक्ष रूप से काम करते हैं और एक बड़ी संख्या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होगी । प्रत्यक्ष रूप से 350 परिवारांे के 1500 लोगांे का रोजगार भी छिन जाएगा। जिसमंे ज्यादातर परिवार खेती पर ही निर्भर करते हैं। अब तक यह देखा गया है कि जहां भी भूमि का अधिग्रहण किया गया है वहां पर एक बड़ी समस्या खेत मजदूरांे की बनकर उभरी है। 6ध्12ध्2007 को ‘जागरण’ मंे छपी एक रिपोर्ट मंे ‘नवदान्या और एक्शनैड’ नामक गैर सरकारी संस्थाआंे के सर्वे के अनुसार कुछ महत्वपूर्ण तथ्य साफ हुए हैं। उनकी रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार भूमि अधिग्रहण करने से अब तक लाखांे खेत मजदूर बेरोजगार हो गए हैं। शहरी आवासीय कालोनियां बनाने, बांधांे, विशेष आर्थिक जोनांे व पावर प्लांटांे के निमार्ण हेतु जमीन अधिग्रहण करते समय खेतिहर मजदूरांे को शुरू से ही नज़रअंदाज किया जाता रहा है। क्या जनता जमीन देना चाहती है ? इस पूरे प्रोजेक्ट के लिए एक्वायर की जाने वाली कुल 2450 एकड़ जमीन मंे से केवल 450 एकड़ भूमि जो सेमग्रस्त है केवल इसके मालिक ही जमीन देना चाहते हैं। चूंकि 200 एकड़ भूमि जो पूरी तरह अम्लीय हो चुकी है उसमंे कुछ भी पैदावार नहीं होती और 250 एकड़ भूमि मंे औसत पैदावार का 1/3 हिस्सा भी मुश्किल से पैदा होता है। इसके अलावा 2000 एकड़ जमीन के मालिक बिल्कुल भी अपनी जमीन नहीं देना चाहते। सबसे अहम् बात तो यह है कि लोगांे को प्रोजेक्ट के बारे मंे कुछ पता ही नहीं है। प्रोजेक्ट के लगने से यहां उनकी रोजमर्रा की जिंदगी पर पड़ने वाले प्रभावांे के बारे मंे ये अनभिज्ञ हैं। वे नहीं जानते कि परमाणु उर्जा केन्द्र से निकलने वाली विकिरणांे से भविष्य मंे कितने भयानक परिणाम होगें हैं। सच तो यह है कि स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इन दुष्प्रभावांे के बारे मंे कोई नहीं जानता। इस प्लांट से जुड़े हर तथ्य पर नजर डाली जाए तो यह तय है कि आस-पास के दस किलोमीटर तक के इलाके मंे लोगांे का स्वास्थ्य इससे बुरी तरह प्रभावित होगा। कैंसर, विकलांगता व चर्म रोगांे की इस इलाके मंे भरमार तो होगी।साथ ही साथ आनुवांशिक अपंगता की दर भी बढे़गी। इस प्लांट से लगने वाले जो गांव इससे प्रभावित होगे,उनमंे गोरखपुर,काजला,कुम्हारिया,मोची, चैबारा,जाण्डली खुर्द, चन्द्रावल, झलनियां,सिवानी आदि मुख्य हैं। पशुपालन होगा बड़े स्तर पर प्रभावित अब तक जहां भी भूमि एक्वायर की गई है वहां पशुपालन बड़े स्तर पर प्रभावित हुआ है जिससे इस पर निर्भर परिवारांे व उन महिलाआंे के सामने रोजगार का संकट खड़ा हुआ है जो पशुपालन के जरिये अपने परिवार की आर्थिक मदद् करती हैं। भूमि अधिग्रहण से अब तक भेड़-पालन, मुर्गी-सुअर फार्मांे मंे कमी आई है। लेकिन न्यूक्लियर पाॅवर प्लांट केवल उसी भूमि पर निर्भर पशुपालन को ही नहीं बल्कि आसपास के इलाके मंें भी विपरीत प्रभाव डालेगा। इससे पशुआंे मंे बीमारी पैदा होगीं और व्यावसायिक पशुपालन एक घाटे का सौदा बन जाएगा। इससे व्यापक तौर पर हरियाणा का दुग्ध उत्पादन भी कम होगा। सरकार यह प्लांट यहां क्यांे लगाना चाहती है? 2600 मेगावाट के प्लांट को चलाने के 300 क्यूसिक पानी की निर्बाध गति की आवश्यकता होती है । जो यहां फतेहाबाद ब्रांच और सिंधु मुख फीडर देने मंे सक्षम हैं। प्रोजेक्ट के यहां लगाने से विकास की क्या संभावनांए हैं? विकास की हर व्यक्ति के लिए अलग परिभाषा होती है और अपनी तरह के मायने हैं। जो विकास होगा वह मजदूर और गरीब किसान का नहीं बल्कि बड़े पूंजीपतियांे और बहुराष्ट्रीय कम्पनियांे का विकास होगा। उनके लूट के अवसर और खुलंेगे। क्या इसके बाद बिजली की समस्या समाप्त हो जाएगी? नहीं, ये प्लांट जो बिजली उत्पादन के नाम पर जमीन अधिग्रहण करके लगाएं जा रहे हैं वो खेतांे मंे किसानांे को बिजली देने या ‘लगने वाले बिजली के कटांे की समस्या का हल करने के लिए नहीं बल्कि उन कंपनियांे की बिजली देने के लिए है जो विशेष आर्थिक जोनांे मंे आने वाली हैं? इस प्लांट के लगने से रोजगार के कितने अवसर पैदा होंगे? सरकारी दावा यह है कि प्लांट मंे 10000 लोगांे को नौकरियां मिलंेगी और40000 लोगांे के लिए अतिरिक्त रोजगार पैदा होगा। इसे कितना सही माना जा सकता है? नहीं, ये दावे केवल भ्रमित करने के लिए किए जाते हैं। बाद मंे कम्पनियां व सरकार दोनांे अपनी बात से मुकर जाते हैं। दूसरी बात यह है कि जो रोजगार पैदा होगा वो योग्यता मंे देखंे तो किसान के बेटे के लिए नहीं होगी वह इतनी योग्यता नहीं ले सकता कि इंजीनियर बन पाए वहां। यहां के बच्चे एक चपड़ासी या मजदूर ही बन पाएंगे अब यह बात सोचने योग्य है कि ऐसे कितने लोगांे की वहां आवश्यक्ता होगी। यदि यह प्लांट इतना खतरनाक है तो सरकार इसे क्यांे लगाना चाहती है क्या इससे बिजली उत्पादन कोयले या बिजली जैसे अन्य तरीकांे से सस्ता है ? नहीं, न्यूक्लियर ;यूरेनियमद्ध से बिजली उत्पादन, कोयले और अन्य तरीके से डेढ़ गुणा मंहगा है और ज्यादा खतरनाक भी। यह केवल इसीलिए लगाया जा रहा है क्यांेकि सरकार अमेरिका के आगे जैसे विकसित देशांे के आगे हमारे देश के लिए खुले द्वार नीति अपनाकर उनकी दलाली कर रही है आज वहां के माल के लिए भारत एक बाजार के रूप मंे दिख रहा है इसी चाकरी का नतीजा पाॅवर प्लांट के रूप मंे हमारे सामने है। क्या दूसरे देश भी प्लांट लगा रहे हैं ? नहीं, पिछले एक दशक मंे विकसित देशंांे मंे प्लांटांे की संख्या मंे कमी आई है, नया लगाने की बजाय पुराने चल रहे प्लांटांे को बन्द किया जा रहा है।