Thursday, December 03, 2009

जाँच के नाम पर मानसिक उत्पीड़न

जाँच के नाम पर मानसिक उत्पीड़न
पुलिस ने छुड़वाई पत्रकार की नौकरी

हरियाणा पुलिस पिछले कुछ सालांे से माओवाद की आड़ मंे लोगांे को झूठे केसांे मंे फंसाकर, उनका तरह- तरह की जांच व पूछताछ के नाम पर मानसिक उत्पीड़न कर रही है । कभी पूछताछ के बहाने थाने बुलाना, कभी जिला हैडक्वार्टर ले जाना तो कभी घरवालांे ,रिष्तेदारांे को तंग करना आम बात हो गई है । अब तो जांच का दायरा इतना बढ गया है कि पुलिस दिहाड़ी-मजदूरी व नौकरी करने वालांे के कार्यस्थल पर जाकर सम्पादक पर प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष ढंग से हटाने के लिए दबाव बनाने लगी है जो अभियुक्त की आर्थिक रीड़ को तोड़ने के अलावा और कुछ नहीं है।
पुलिस की ऐसी कार्यवाही का षिकार हुआ गांव जाण्डली कलां निवासी सुनील। जिस पर प्राइवेट युनिवर्सटी बिल का विरोध करने के कारण पुलिस द्वारा देषद्रोह का मामला दर्ज किया गया था। छः महीने जेल मंे रहने के बाद जमानत पर रिहा हुए। सुनील ने फरीदाबाद से प्रकाषित एक मासिक पत्रिका मंे बतौर संवाददाता काम करना षुरू किया था कि हर दूसरे तीसरे दिन घर पर कभी आई.बी., कभी सी.आई.डी.वाले तो कभी सुरक्षा एजंेसी वाले आ धमकते,पूछताछ के नाम पर हर बार एक जैसे सवाल। जब इस तरह के तौर तरीके काम नहीं आए तो सुनील को यहां तक कहा गया कि वह फिर से उसी छात्र संगठन मंे उनका मुखबिर बनकर रहे । जब इससे इन्कार किया तो पुलिस वाले फरीदाबाद मंे पत्रिका ‘निष्पक्ष भारती’ जिसमंे वह काम करता था , के प्रबंधक व संपादक को धमकाया, उनसे उल्टे सीधे सवाल किए। नतीजा यह हुआ कि सुनील को नौकरी से निकाल दिया गया । यह घटना बडे़ नाटकीय ढंग से घटी। 19 जून को सुनील रोहतक पीजीआई मंे एक ‘कवर स्टोरी’ करने गया था। जब वह रोहतक से लौट रहा था तभी संपादक का फोन आया। उसने कहा कि पत्रिका से संबंधित सभी कागजात,रिपोर्टस नरवाना दे दो,अर्जेन्ट है अैार फोन काट दिया । सुनील को कुछ समझ नहीं आया। थोड़ी देर बाद फोन बजा अैार अबकि बार संपादक ने पूछा कि इस अंक में तुम्हारी कोई आपत्तिजनक सामग्री तो नहीं है यहां पुलिस आकर तुम्हारे बारे मंे छानबीन कर रही है। तभी सुनील को याद आया कि इस बार उसने जगतार नामक दलित युवक पर एक स्टोरी लिखी थी जिस पर पुलिस ने डकैती का झूठा केस लगाया अैार साबित करने के मिलए एक नोजपिन की बरामदगी दिखाई । सुनील ने पत्रिका मंे मुकददमंे के फर्जीवाडे़ को उजागर किया था चूकिं 10 महीने पहले भंी पुलिस ने जगतार पर देषद्रोह का मुकददमा दर्ज किया था पर कोर्ट ने उसे इस मुकददमंे से बरी कर दिया था, तभी से पुलिस जगतार को फसंाना चाह रही थी। इस पूरे मामले में यह सवाल उठता रहा कि क्या कोई सामाजिक कार्यकर्ता 200 रूपए की नोजपिन चोरी कर सकता है ।
इस पूरे मामले मंे हद तो उस वक्त पार हुई जब डर के मारे संपादक ने भी पुलिस को झूठ बोला कि सुनील तो विज्ञापन के मिल काम करता था अैार हमने उसकी छुटटी 2 जून को ही कर दी ।
सुनील एक 21-22 साल का नौजवान जो पढ़ाई के दौरान एक छात्र संगठन के संपर्क मंे आया अैार प्राईवेट यनिवर्सिटी बिल 2007 का विरोध करने के कारण जेल गया अैार अब भी यह मामला कोर्ट मंे विचाराधीन है। अब सवाल यह उठता है क्या किसी व्यक्ति पर यदि कोई केस दर्ज हो गया हो तो उसे अपनी आजीविका कमाने का भी कोई हक नहीं है? क्या दुनिया के सबसे बडे़ लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत देश में ऐसे ही पुलिस लोगों को मानसिक ओर शारीरिक यातनांए देती रहेगी? क्या ऐसे ही झूठे केसों में लोगों को फंसाकर उन्हें तंग करती रहेगी?

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