Friday, January 08, 2010

असली मुद्दा हिंसा का नहीं, न्याय और अधिकारों का है

असली मुद्दा हिंसा का नहीं, न्याय और अधिकारों का है

छत्तीसगढ़ सहित देश के अनेक हिस्सों में गृह युद्ध जैसी स्थितियां गहराती जा रही हैं और सरकार उत्तर पूर्व और कश्मीर के बाद युद्ध का तीसरा मोर्चा खोल रही है. यह युद्ध दो ध्रुवीकृत शक्तियों के बीच चल रहा है, जिसमें एक तरफ राजसत्ता है, साम्राज्यवादी शक्तियां हैं, भारी-भरकम सैन्य शक्ति है, मल्टीनेशनल और भारत के दलाल पूंजीपति हैं, कॉरपोरेट मीडिया है और दूसरी तरफ है पूरे देश की संघर्षरत उत्पीडित जनता, जिसके जल-जंगल-जमीन सहित सारे संसाधनों को छीन लेने की कोशिश हो रही है और जिसके पास क्रांतिकारी संघर्षों की एक समृद्ध परंपरा है और साम्राज्यवाद से युद्ध की सदियों पुरानी विरासत है।
खुद सरकार के आंकडों के मुताबिक छत्तीसगढ़ में अभी 50000 सीआरपीएफ, बीएसएफ, राष्ट्रीय राइफल्स, कोबरा और सी-60 के जवान तैनात हैं और उनकी मदद के लिए 75000 अर्ध सैनिक बल और भेजे जा रहे हैं. इनके अलावा सेना और वायुसेना को सक्रिय तौर पर सैन्य अभियानों में लगाने की योजना है. इसमें राज्य की पुलिस और स्पेशल पुलिस अधिकारियों की गिनती नहीं की गयी है. कुछ समय में राज्य पर भारी हवाई हमले के साथ बड़े पैमाने पर अरण्य आखेट शुरू कर दिया जायेगा. अगर आप नामों में दिलचस्पी नहीं भी रखते हों, तब भी यह एक अर्थपूर्ण सूचना है कि ऑपरेशन ग्रीन हंट और सलवा जुडूम दोनों का अर्थ लगभग एक होता है-शिकार पर निकली राजसत्ता. यह 20 रुपये से भी कम पर गुजारा कर रहे, स्कूल, पेयजल और स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित अपने ही लोगों के खिलाफ देश की युद्ध की घोषणा है, जो अपने बजट का 20 प्रतिशत रक्षा के नाम पर खर्च करता है.
यह युद्ध अमेरिकी साम्राज्यवाद की निगरानी में हो रहा है. पिछले कुछ महीनों में काफी संख्या में अमेरिकी डेलिगेटों ने छत्तीसगढ़ का दौरा किया है और उन्होंने अधिकारियों से मिल कर युद्ध को चलाने के तरीके सुझाये हैं. इसके अलावा भारत की सेना अमेरिका से नक्सलियों से निबटने के तरीके सीख रही है. इसके पहले भी भारत का दलाल शासक वर्ग अमेरिकी साम्राज्यवादियों से जनता के खिलाफ युद्ध के तरीके सीखता रहा है. उसके द्वारा उत्तर पूर्व के अनेक राज्यों और छत्तीसगढ़ और दूसरे राज्यों में में चलाये गये सलवा जुडूम, सेंदरा, नागरिक सुरक्षा समिति, तृतीय प्रस्तुति समिति, नरसि कोबरा, हरमाद वाहिनी, सनलाइट सेना और सल्फा जैसे हत्यारे अभियान उसने अमेरिका से ही सीखे हैं, जिसने वियतनाम में इन तरीकों का उपयोग किया था. संसाधनों पर कब्जे के लिए और जनता के प्रतिरोध के दमन के लिए जनता के पैसे से ही नयी-नयी बटालियनों का निर्माण किया जा रहा है. ग्रेहाउंडस और सी-60 के बाद अब कोबरा का निर्माण किया गया है, जिनमें आदिवासियों को अधिक-से-अधिक भरा जा रहा है. इस तरह आदिवासियों को ही सामने रख कर सत्ता इस लड़ाई को लड़ना चाहती है. जनता द्वारा सलवा जुडूम को पराजित करने के बाद राजसत्ता द्वारा माओवाद से लड़ने के नाम पर वंचित, उत्पीडित और संघर्षरत जनता पर बर्बर हमले का यह नया और विस्तारित आयाम है. यह साबित करता है कि शासक वर्ग के साम्राज्यवादी दलाली और कॉरपोरेट लूट के खिलाफ जनता का प्रतिरोध ऐसे स्तर पर पहुंच गया है कि सत्ता को जनपक्षधर होने के तमाम दावों-दिखावों को छोड़ कर खुलेआम जनता के खिलाफ युद्ध में उतरने की घोषणा करनी पड़ी है।
हालांकि यह युद्ध किसी एक जगह या राज्य तक सीमित नहीं है. जहां-जहां अपने जल-जंगल-जमीन की बर्बर लूट का जनता विरोध कर रही है, उसे माओवादी बता कर उसका निर्ममतापूर्वक दमन किया जा रहा है. यह हमने सिंगूर, कलिंगनगर, नंदीग्राम, कोयलकारो, नेत्रहाट, रायगढ़, जशपुर, जगतसिंपुर, लोहंडीगुडा में देखा है और सबसे हाल में लालगढ़ में हम यह होते देख रहे हैं.भारत का शासक वर्ग बहुराष्ट्रीय कंपनियों और भारत के दलाल पूंजीपतियों के हित में यह युद्ध चला रहा है. देश के संसाधनों और संपदा की लूट 1991 में देश पर वैश्वीकरण थोपने के बाद और अधिक तेज हुई है. लूट की इस प्रक्रिया में कॉरपोरेट जगत के साथ देश की तमाम सरकारें हैं, पूरी राजसत्ता है, सेना है, पुलिस है और उसके विज्ञापनों पर पलनेवाला मीडिया है. इस तरह पूरी व्यवस्था जनता से उसके जल-जंगल-जमीन को छीन कर मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपने में लगी हुई है. नदियां बिक रही हैं, जंगल उजाडे जा रहे हैं, खेतों को बंजर कारखानों और विनाशकारी बांधों में बदला जा रहा है. केवल मुट्ठीभर अरबपतियों को फायदा पहुंचानेवाली इन विनाशकारी विकास परियोजनाओं के नाम पर बड़े पैमाने पर जनता को विस्थापित किया जा रहा है. लेकिन ये विस्थापित लोग, जिन्हें आज तक इस सत्ता ने कोई सुविधा नहीं मुहैया करायी, उल्टे उनके पास जो है, उसे छीन ही रही है, जब इस खुली लूट का विरोध करते हैं तो उन्हें राज्य माओवादी कह कर उन उलापा और छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम जैसे काले कानून, सलवा जुडूम, सेना, वायुसेना के जरिये दमन का भयानक सिलसिला थोप देता है।अपने देश की संपदा को बहुराष्ट्रीय कंपनियों और दलाल पूंजीपतियों को सौंप पर उन्हें फायदा पहुंचाने के लिए राज्य द्वारा जारी इस खुली लूट और दमन से जुड़े बस कुछ तथ्य ये हैं. अपने पिछले कार्यकाल में भाजपा की रमन सिंह सरकार ने छत्तीसगढ़ में नये कारखानों के निर्माण के लिए कम से कम 11 कंपनियों से करार (एमओयू) किया. इसके अलावा टाटा, एस्सार, आर्सेलर मित्तल, जिंदल, टेक्सास जैसी कंपनियों को बैलाडिला इलाके में 96 खदानों की लीज दी गयी है, जिनकी शर्तों को देखते हुए कहा जा सकता है कि उन्हें लगभग बेच दिया गया है. इस कदम से इस इलाके में रहनेवाले आदिवासियों के अस्तित्व और उनकी संस्कृति का खात्मा हो जायेगा।अपनी जमीन और अपने अस्तित्व को छीन लेनेवाले विकास के नाम पर ऐसी विनाशकारी परियोजनाओं का जनता जब विरोध करती है तो इस प्रतिरोध को कुचलने के लिए और जमीनें खाली करवारने के लिए सत्ता द्वारा सलवा जुडूम जैसा अभियान शुरू किया जाता है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा गैर कानूनी कहे जाने के बाद भी जारी रखेगये इस अभियान के जरिये सैकड़ों हत्याएं की गयीं, घर फूंक डाले गये और लोगों को अपने गांव छोड़ने पर मजबूर किया गया. सलवा जुडूम से 644 गांवों के 3.5 लाख लोग विस्थापित हुए. उनमें से 47 हजार लोगों को सड़कों के किनारे बनाये गये सरकारी राहत शिविरों में जबरन रखा गया है, जिन्हें सरकार ने अब स्थायी गांव घोषित कर रखा है. जो 40 हजार लोग आंध्र प्रदेश के जंगलों में भाग गये हैं, सरकार ने उन्हें कोई अधिकार नहीं देने की घोषणा की है. बाकी बचे 2,63,000 लोगों ने अपने गांवों में ही रहने का फैसला किया है. सरकार ने कहा है कि जो लोग राहत शिविरों में नहीं रह रहे हैं-वे माओवादी हैं, और इस परिभाषा के अनुसार ये ढाई लाख से अधिक लोग माओवादी हैं।और अब उनसे लड़ने के लिए सेना उतारी जा रही है. इन हत्यारे अभियानों में कॉरपोरेट जगत की दिलचस्पियों के बारे में इस तथ्य से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पहला सलवा जुडूम राहत शिविर बनाने के लिए एस्सार ने फंड मुहैया कराये. एक दूसरा तथ्य यह है कि क्रेस्ट नामक कंपनी बस्तर, दांतेवाड़ा और बीजापुर जिलों में खनिज संपदा के लिए सर्वे करना चाहती थी. उसने कहा था कि वह सर्वे का काम तब तक नहीं कर सकती, जब तक ये इलाके खाली नहीं करा लिये जाते.ये इलाके अब खाली करा लिये गये हैं. जो नहीं हुए हैं, उन्हें खाली कराने के लिए अब सेना उतारी जा रही है. भारतीय सैन्य-अर्ध सैन्य बलों की यह ताकत उन लोगों पर आजमायी जानी है, जिन्हें पहले ही सत्ता पोषित नरसंहारों की श्रृंखला सलवा जुडूम के जरिये लगभग तबाह कर दिया गया है. कॉरपोरेट जगत के हितों से जुड़े इस सैन्य अभियान को मीडिया किन्हीं खूंखार आतंकवादियों के सफाये के गौरवशाली अभियान के बतौर कोक और नैनो के विज्ञापनों के साथ बेचेगा. हमेशा की तरह माओवादी बना दिये गये लोगों के हरेक प्रतिरोध को खून के प्यासे लोगों की हरकत के बतौर पेश किया जायेगा।1947 के बाद से विकास और राष्ट्र निर्माण के नाम पर चल रही बादी परियोजनाओं की कीमत सबसे अधिक आदिवासियों ने चुकायी है. इन परियोजनाओं से विस्थापित हुए कुल लोगों में लगभग आधी आबादी आदिवासियों की है, जबकि देश की आबादी में उनका हिस्सा सिर्फ 15 प्रतिशत है. और राष्ट्र निर्माण व विकास परियोजनाओं से हमें हासिल क्या हुआ है? छह करोड़ से अधिक विस्थापित. कुछ दर्जन अरबपति. और 77 प्रतिशत जनता के लिए 20 रुपये प्रतिव्यक्ति दैनिक खर्च.जाहिर है, यह सिर्फ छत्तीसगढ़ तक ही सीमित नहीं है. झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश-पूरे देश में यह प्रक्रिया चल रही है. कुछ समय पहले ही हमने सिंगूर में देखा कि किस तरह अपने को कम्युनिस्ट कहनेवाली पश्चिम बंगाल की बुद्धदेव सरकार ने किसानों की जमीन एक कॉरपोरेट घराने के लिए छीनी और टाटा को कार बनाने के लिए 2929 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी दी. इसका विरोध करने पर गांववालों पर निर्दयता से लाठी चार्ज किया गया. एक आंदोलनकारी युवती तापसी मलिक का बलात्कार करने के बाद सीपीएम कार्यकर्ताओं ने हत्या कर दी थी. यही सरकार नंदीग्राम में सलेम ग्रुप के लिए सिंगूर से भी बड़ी एक परियोजना के लिए जमीन हड़पने के लिए लोगों पर बर्बरतापूर्वक गोली चलाने से भी नहीं हिचकी. नंदीग्राम के लोगों को प्रतिरोध के लगभग आठ महीनों के दौरान सरकार और सीपीएम दोनों के हर तरह के उत्पीड़न का सामना करना पड़ा.लालगढ़ में सत्ता द्वारा किये जा रहे दमन और इसके प्रतिरोध को जनता एक ऐतिहासिक ऊंचाई पर ले गयी. यहां पुलिस और सीपीएम की हरमाद वाहिनी के दशकों लंबे अत्याचारों के खिलाफ जब जनता ने प्रतिरोध संगठित किया, पुलिस और सीपीएम को अपने इलाके से बाहर खदेड़ दिया और अपने लिए विकास के वैकल्पिक मॉडल विकसित किये तो उसके खिलाफ राज्य ने खुलेआम युद्ध छेड़ दिया. देश के सबसे वंचित और उत्पीड़ित समुदायों में से एक, जंगलमहल की जनता पर राज्य की संगठित सैन्य कार्रवाई इस जून से चल रही है. यहां भी जनता और वैकल्पिक विकास के प्रति उसकी रचनात्मकता के खिलाफ दमनात्मक कार्रवाईयों में सीपीएम सरकार पीछे नहीं रही है. साफ है सीपीएम भी शासक वर्ग की तरफ से इस युद्ध का नेतृत्व कर रही है और वह इसमें कांग्रेस और भाजपा के साथ कदम-से-कदम मिला कर चल रही है।इसी तरह उडीसा के कलिंगनगर में टाटा के प्रोजेक्ट के लिए जमीन के अधिग्रहण का किसान विरोध कर रहे थे, तो उन पर पुलिस ने फायरिंग की. इस बर्बर हमले में 14 आदिवासी मारे गये. झारखंड के कोयलकारो बांध परियोजना के जरिये विस्थापन का विरोध करने के कारण लंबे समय से आंदोलनकारी जनता पर दमन चल रहा है. ये तो देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे भारी विस्थापन, जनता द्वारा किये जा रहे प्रतिरोध और सरकार द्वारा किये जा रहे दमन के बस कुछ उदाहरण भर हैं।अभी हम मीडिया में 'माओवादी हिंसा' की चर्चा बड़े जोर-शोर से देख रहे हैं. लेकिन यही मीडिया पुलिस-सेना-अर्ध सैनिक बलों की कार्रवाईयों में जनता की हत्याओं की खबरों पर चुप्पी साध लेता है. इसी साल फर्जी मुठभेड़ों के नाम पर लगभग 50 लोग अकेले बस्तर इलाके में मारे गये हैं, लेकिन हम कभी मीडिया में इनकी तसवीरें या खबरें नहीं पाते. हमारे देश में वंचित लोग जब तक चुप रहते हैं, तब तक उनकी हत्या और बलात्कार की घटनाएं कभी 'खबर' नहीं बन पातीं, लेकिन जब वे लोग इस दमन के खिलाफ संघर्ष करते हैं तभी वे साम्राज्यवाद के इस प्रचारतंत्र-मीडिया-के लिए खबर बन जाते हैं. लेकिन इसके जरिये भी सिर्फ जनता के संघर्षों की गलत तसवीर और पुलिसिया झूठ का ही प्रचार किया जाता है और जनता के संघर्ष को अनौचित्यपूर्ण ठहराने की कोशिश की जाती है. कहने की जरूरत नहीं है कि सिर्फ जनता के संघर्षों को ही निशाना बनाने के लिए मीडिया और बुद्धिजीवियों द्वारा हिंसा को मुद्दा बनाया जाता है, जबकि असली मुद्दा हिंसा नहीं, बल्कि न्याय और अधिकारों का है, जो जनता से छीने जा रहे हैं।
कुछ बुद्धिजीवी अभी अमन की बातें कर रहे हैं, लेकिन हमें यह समझना पड़ेगा कि अमन अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं हो सकता, बल्कि हमेशा यह इंसाफ के साथ ही आता है. अमन का मतलब अन्याय के खिलाफ चुप्पी नहीं है, बल्कि लड़ाई से अपने अधिकारों को जीतना है. जो लोग लड़ रहे हैं, वे इसी लक्ष्य के लिए लड़ रहे हैं. वे अपने जल-जंगल-जमीन-जिंदगी-ईमान और इज्जत के लिए लड़ रहे हैं।इस लड़ाई में हरेक जनवादी ताकतों को साम्राज्यवादी लूट और सत्ता के खिलाफ लड़ रही जनता के साथ खड़ा होना है, क्योंकि वर्ग संघर्ष की लड़ाई में बीच का रास्ता नहीं होता.

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